Thursday, April 23, 2009

पत्रकारिता के स्कूल थे उदयन शर्मा

(पुण्य तिथि 23 अप्रैल पर विशेष)
सलीम अख्तर सिद्दीकी
हिन्दी पत्रकारिता को नये तेवर देने वाले उदयन शर्मा को नई पीढ़ी के पत्रकार शायद ही जानते हों। अपनों में पंडित जी के नाम से प्रसिद्व उदयन शर्मा के लिए पत्रकारिता केवल प्रोफेशन नहीं बल्कि मिशन थी। उनका बौद्विक व्यक्त्तिव समाजवादी मानवीय सरोकारों की बुनियाद पर विकसित हुआ था। शायद इसीलिए वह हमेशा मजलूमों की पैरवी करते रहे। उनकी लेखनी कभी मशाल, कभी तलवार और कभी लगाम का काम करती थी। 1977 में रविवार के प्रकाशन आरम्भ होने से पहले हिन्दी पत्रकारिता दीन-हीन अवस्था में थी। अंग्रेजी के पत्रकारों का बोलबाला था। रविवार के माध्यम से उदयन शर्मा ने हिन्दी पत्रकारिता को दीन-हीन अवस्था से बाहर निकाला और उसको ऐसे तेवर प्रदान किये कि अंग्रेजी के पत्रकार भी उनका लोहा मानने लगे। सम्भवतः वो अकेले ऐसे पत्रकार थे, जिसने गरीबों, वंचितों, दलितों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों पर होने वाली ज्यादती को मौके पर जाकर देखकर उसे महसूस किया और पूरी शिद्दत के साथ उनकी समस्याओं को देश-दुनिया के सामने रखा। 1981 में उत्तर प्रदेश के देहुली में 25 और साढूपुर में 10 दलितों के सामूहिक निर्मम हत्याकांड को उदयन शर्मा ने रविवार में प्रभावशाली ढंग से जगह देकर पूरे देश का ध्यान हत्याकांड की तरफ खींचा। 1980 में जब बागपत पुलिस ने माया त्यागी को नंगा करके सरेआम अपमानित किया तो उदयन शर्मा ने बागपत में जाकर उस घटना की पड़ताल करके बागपत पुलिस के क्रूर चेहरे को बेनकाब किया। 1990-91 के दौरान, जब अयोध्या आन्दोलन के कारण पूरा उत्तर प्रदेश साम्प्रदायिकता की ज्वाला में धधक रहा था तो उदयन शर्मा ने अपनी कलम से साम्प्रदायिक ताकतों पर प्रहार किया। कोई घटना होते ही मौके पर जाकर उसकी रिपोर्टिंग करने के लिए उनका दिल मचलने लगता था। शायद यही वजह थी कि रविवार के सम्पादक बनने के बाद भी एसी दफ्तर में बैठक्र सम्पादकी करने के बजाय वो रिपार्टर की भूमिका में ही रहे।
साम्प्रदायिकता के घोर विरोधी उदयन शर्मा साम्प्रदायिकता को देश की एकता और अखंडता के लिए सबसे ज्यादा घातक मानते थे। साम्प्रदायिक दंगों की रिपोर्टिंग में उन्हें महारत हाासिल थी। उन्होंने ही सबसे पहले दंगों के सच को सबको सामने रखा। उनके पत्रकारिता में कदम रखने के बाद शायद ही कोई ऐसा छोटा-बड़ा साम्प्रदायिक दंगा हो, जिसकी पड़ताल उन्होंने मौके पर जाकर न की हो। उन्होंने ही सबसे पहले यह लिखना शुरू किया कि दंगों में कितने मुसलमान या हिन्दू मारे गये। दंगा पहले किसने शुरू किया। इससे पहले दो सम्प्रदायों के बीच तनाव या एक सम्प्रदाय के इतने लोग मारे गये आदि ही छापा जाता था। दंगाईयों का धर्म और वेहरा सामने नहीं आता था। साम्प्रदायिकता पर उन्होंने न तो कभी संघ परिवार के प्रति नरमी दिखायी और न ही मुस्लिम साम्प्रदायिक ताकतों को बख्शा। एक बार उन्होंने अपने कॉलम प्रथम पुरूष में लिखा था- मैं उस दिन बहुत खुश होता हूं , जिस दिन पांजन्नय मेरी आलोचना करता है। मैंने उदयन शर्मा को 1987 के दंगों के दौरान भीषण गरमी में मेरठ की तंग गलियों में घूमते देखा है। मलियाना के एक-एक दंगा पीड़ित के घर जाकर घटनाओं की जानकारी लेते देखा है।
उदयन शर्मा ने 1971 में बतौर प्रशिक्षु पत्राकार टाइम्स ऑफ इंडिया ज्वायन किया। उसके बाद डा0 धर्मवीर भारती के सम्पादन में निकलने वाले धर्मयुग में काम किया। उसके बाद कोलकाता के आन्नद बाजार पत्रिाका ग्रुप के नये साप्ताहिक रविवार में आ गये। 1985 में रविवार के सम्पादक बने। अपने सम्पादन से उन्होंने रविवार के माध्यम से हिन्दी पत्रकारिता के नए आयाम बनाये। रविवार में उनका प्रथम पुरूष कॉलम बहुत मशहूर था। 1989 में जब उन्होंने रविवार से इस्तीफा दिया तो उनके प्रशसंकों में मायूसी फैल गयी। लेकिन मायूसी ज्यादा दिन तक कायम नहीं रह सकी। दिल्ली के अंग्रेजी संडे ऑब्जार्वर ने इसी नाम से एक हिन्दी साप्ताहिक का प्रकाशन शुरू किया तो उदयन शर्मा को उसका सम्पादक बनाया गया। संडे ऑब्जर्वर में भी उनके रविवार वाले तेवर कायम रहे। संडे आब्जर्वर के बन्द होने के बाद कुछ टी वी चैनलों में काम किया लेकिन उदयन शर्मा को प्रिन्ट मीडिया ही रास आता था। उनका अन्तिम पड़ाव अमर उजाला बना।
उदयन शर्मा ने राजनीति में भी जोर आजमाइश की। शायद उनकी सोच थी कि पत्रकारिता के साथ-साथ राजनीति में रहकर मजलूमों की आवाज और पुरजोर तरीके से उठायी जा सकती है। लेकिन दूसरे राजनीतिज्ञों का आकलन करने वाले उदयन शर्मा अपना राजनैतिक आकलन करने में चूक गये। उन्होंने 1984 में आगरा से चौधरी वरण सिंह की पार्टी दलित मजदूर किसान पार्टी (दमकिपा) से तब चुनाव लड़ा, जब कांगेस की जबरदस्त लहर चल रही थी और 1991 में मध्य प्रदेश के भिंड संसदीय क्षेत्र से तब चुनाव लड़ा, जब कांग्रेस का जहाज डूब रहा था। लिहाजा दोनों क्षेत्रों से असफलता हाथ लगी।
ब्रेन ट्यूमर की घातक बीमारी ने 23 अप्रैल 2001 को उनको हमसे हमेशा के लिए छीन लिया। उन्होंने राजकपूर को श्रद्वांजलि देते समय लिखा था- 64 की उम्र बहुत नहीं होती। यह उम्र राजकपूर की हो तो और भी नहीं। लेकिन उदयन तो खुद 64 के भी नहीं हुऐ थे। मात्र 52 साल की उम्र ही पायी उन्होंने। छोटी सी उम्र में ही उन्होंने अपनी खुश अखलाक़ी और काम से अपने हजारों प्रशंसक बनाये। फिल्मों की तरह पत्राकारिता में भी स्टार सिस्टम है तो मैं उन्हें इस सदी का सुपर स्टार कहूंगा। यदि वह सुपर स्टार नहीं होते तो 11 जुलाई को उनके जन्म दिवस पर दिल्ली में होने वाले कार्यक्रम में हर साल बेहद मसरूफ लोग उनको याद करने के लिए एक जगह इकटठा नहीं होते।
बहुत से लोग पूछते हैं कि उदयन शर्मा में ऐसा क्या था, जो सभी उनको इतनी शिद्दत से याद करते हैं। जो लोग उनको समझना चाहते हैं, उन्हें साम्प्रदायिक दंगों पर की गयी उनकी रिपोर्टों के संकलन दहशत, ग्रामीण भारत को करीब से देखने के लिए फिर पढ़ना इसे जरूर पढ़नी चाहिए। उन लोगों को तो खासतौर से जो पत्रकारिता में आना चाहते हैं अथवा पत्रकारिता में अभी नए आये हैं। दहशत और फिर पढ़ाना इसे के अलावा उनकी अन्य दो पुस्तकें, किस्सा कश्मीर का और जनता पार्टी क्यों टूटी भी उल्लेखनीय हैं। इनके अतिरिक्त उनके शिष्य कुरबान अली द्वारा सम्पादित उदयन नाम की स्मारिका, जो उनके जन्म दिन 11 जौलाई 2007 पर प्रकाशित की गयी थी जरुर पढ़ें। इस स्मारिका में उनके सहयोगियों ने उनके बारे में ऐसे अनछुए पहलूओं के बारे में लिखा है, जिनसे बहुत लोग अनजान रहे हैं। इस स्मारिका में उदयन शर्मा के चुनींदा लेखें को दिया गया है। इसमें दो राय नहीं कि उदयन शर्मा पत्रकारिता के स्कूल थे। उन्होंने अपने पीछे पत्रकारों की एक लम्बी फौज छोड़ी है। उन्हें कोई भी तेज-तर्रार युवक नजर आता था, उसे वो तुरन्त अपनी योग्यता साबित करने का मौका प्रदान करते थे।

Tuesday, April 21, 2009

डरपोक और कमजोर नरेन्द्र मोदी



सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से कहा है कि यदि वे मजबूत हैं तो अफजल गुरु को फांसी देकर अपनी मजबूती साबित करें। उनका यह बयान आज के अखबारों में छपा है। साथ में एक तस्वीर छपी है। तस्वीर में दिखाया गया है कि नरेन्द्र मोदी एक जाल के पीछे से अपना भाषण दे रहे हैं। नरेन्द्र मोदी खुद इतने डरपोक और कमजोर हैं कि उन पर कोई दिलजला जूता न फेंक दे, इसलिए जाल का सहारा ले रहे हैं। नरेन्द्र मोदी साहब पहले खुद इतने मजबूत बनिए फिर किसी और को मजबूत होने का मशविरा देना। जहां तक अफजल गुरु को फांसी देने का सवाल है तो वे इतना समझ लें कि ये वही अफजल गुरु है, जिसने राजग की सरकार के दौरान संसद पर हमला किया था। जनता ने आपकी सरकार को तो संसद हमले के बहुत बाद में चलता किया था, तभी क्यों नहीं अफजल गुरु को सरेआम फांसी पर लटकाकर मजबूती दिखायी थी ? और हां आपके लौहपुरुष साहब कितने लोहे के बने हैं, यह तब साबित हो गया था, जब उनके विदेश मंत्री खूंखार आतंकवादियों को बिरयानी खिलाते हुऐ आदर के साथ कंधार तक छोड़ कर आए थे। पहले अपने पीएम वेटिंग को इतना मजबूत तो कीजिए कि देश पर संकट के सामने मोम बनने बजाय लोहे के बने रहें। सिर्फ कसरत करते तस्वीर खिंचवाने और बाजू फड़काने से कोई मजबूत नहीं हो जाता। पता नहीं क्यों आजकल आडचाणी साहब की कुछ ऐसी तस्वीरें आ रहीं हैं, जिनमें वे मजबूत दिखने की कोशिश करते नजर आते हैं। अब उन्हें कौन समझाए कि देश का प्रधानमंत्री शरीर से ज्यादा दिमाग से मजबूत होना चाहिए। प्रधानमंत्री को अखाड़े में कुश्ती नहीं लड़नी पड़ती। मनमोहन सिंह दोनों तरह से मजबूत प्रधानमंत्री हैं। आडवाणी साहब मजबूत दिखते भर हैं, मजबूत है नहीं। जहां तक खुद नरेन्द्र मोदी की मजबूती की बात है, उन्होंने जाल को ढाल बनाकर यह दिखा ही दिया है कि वह खुद कितने डरपोक और कमजोर हैं।

Monday, April 13, 2009

यह कैसी पत्रकारिता है शशि शेखर जी !


सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
हिन्दी पत्रकारिता में मुझे जिन लोगों ने प्रभावित किया है, उनमें प्रभाष जोशी, स्वर्गीय उदयन शर्मा साहब, स्वर्गीय राजेन्द्र माथुर, आलोक तोमर, आलोक मेहता के नाम प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त जब मैंने इंडिया टुडे में शशि शेखर साहब का पाक्षिक कालम पढ़ा तो वह भी मेरी पसन्द में शामिल हो गए थे। वह बेबाक लिखते रहे हैं। लेकिन इधर कुछ दिनों से अमर उजाला में प्रकाशित होने वाले उनके आलेख में वो दम नजर नहीं आ रहा है, जिसका मैं कायल हूं। 13 अप्रैल के अमर उजाला में भाजपा के पीएम इन वेटिंग कहे जा रहे लालकृष्ण आडवाणी का साक्षात्कार प्रकाशित हुआ है। साक्षात्कार अमर उजाला के शशि शेखर साहब ने लिया है। साक्षात्कार पढ़कर कहीं से नहीं लगा कि यह उन्हीं शशि शेखर ने लिया है, जिनकी लेखनी का मैं हमेशा कायल रहा हूं। पढ़कर लगा कि जैसे शशि आडवाणी साहब का न सिर्फ बचाव कर रहे हैं, बल्कि उनकी कट्टर हिन्दू नेता की छवि को नजर अंदाज करके उन्हें ओबलाइज कर रहे हैं। ऐसा लगने की वजहूवात थीं। जब आडवाणी साहब की बात हो तो अस्सी के दशक में उनके द्वारा चलाया गया राम मंदिर आंदोलन को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। उल्लेखनीय है कि राम मंदिर आन्दोलन के चलते देश में आग लग गयी थी और हिन्दुत्व के नाम पर नफरत फैलायी गई। शहर दर शहर दंगे हुऐ। हजारों बेगुनाह मारे गए। हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच की दूरियां बढ़ गयी थीं। भाजपा के दो से 180 सीट पर लाने का श्रेय आडवाणी को ही जाता है। लेकिन देश ने इसकी कितनी बड़ी कीमत चुकाई, इसे सभी जानते हैं। पता नहीं क्यों शशि साहब ने राम मंदिर आंदोलन का जिक्र तक नहीं किया। न ही उनसे गुजरात नरसंहार पर कोई सवाल किया। न ही यह पूछा गया कि वह नरेन्द्र मोदी का क्यों बचाव करते हैं। यह सवाल भी नहीं किया कि राम मंदिर के नाम पर क्यों बार-बार नफरत फैलाने का काम किया जाता है। आडवाणी साहब से यह भी पूछा जाना चाहिए था कि मजबूत और निर्णायक सरकार की बात करने वाले आडवाणी साहब जब सरकार में थे तो उन्होंने कंधार विमान अपहरणकर्ताओं के सामने घुटने टेक कर खतरनाक पाकिस्तानी आतंकवादियों का क्यों रिहा कर दिया था ? क्या ऐसी ही मजबूत सरकार होती है ? आडवाणी साहब से शश्ि जी यह भी पूछते कि सत्ता में आने के बाद सबसे पहले वे अफजल गुरु को फांसी देंगे या अजमल कसाब को ? जब एनडीए की सरकार थी, तब देश में कितने आतंवादी हमले हुऐ यह भी पूछा जाना चाहिए था। पूरे साक्षात्कार में शशि साहब आडवाणी के प्रति नरमी बरतते नजर आए। ऐसा लगा जैसे कोई तीखा सवाल करते ही आडवाणी साहब शशि जी को जहाज से नीचे फेंकने का हुक्म दे देते। या फिर ऐसा कुछ होगा कि यह साक्षात्कार गिव इन टेक के सिद्वान्त पर लिया गया हो। आखिर आजकल के पत्रकार भी तो राज्यसभा में जाने को लालायित रहते ही हैं। कई पत्रकार राज्यसभा के शोभा बढ़ा चुके हैं। कुछ आज भी बढ़ा रहे हैं। स्वर्गीय चन्दूलाल चंद्रराकर, राजीव शुक्ला, मीम अफजल, चंदन मित्रा आदि ऐसे ही पत्रकारों में हैं। यदि शशि शेखर की भी कोई ऐसी ही इच्छा हो तो इसमें बुरा क्या है। लेकिन क्या राज्यसभा में जाने के लिए सिर्फ एक ही रास्ता है ? यह कैसी पत्रकारिता है शशि शेखर साहब !

Wednesday, April 8, 2009

जूता मार पत्रकारिता नहीं चलेगी

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
कभी मुंतजिर जैदी तो कभी जरनैल सिंह जैसे पत्रकार अपनी भावनाओं को जूता फेंककर अभिव्यक्त करने लगे हैं। उल्लेखनीय है कि जरनैल सिंह ने किसी ऐसी समस्या की ओर ध्यान दिलाने के लिए पी चिदंबरम पर जूता नहीं फेंका, जिससे पूरे देश की जनता त्रस्त हो। उन्होंने अपने समुदाय पर कथित ज्यादती करने वाले नेता जगदीश टाइटलर को सीबीआई द्वारा क्लीन चिट देने के विरोधस्वरुप चिदंबरम पर जूता फेंका है। जरनैल सिंह अपने समुदाय के प्रति होने वाले अन्याय से व्यथित हैं। उन्हें यह भी मालूम होना चाहिए कि सही मायने में पत्रकार वह होता है, जो बगैर यह देखे कि शोषित का धर्म, समुदाय अथवा जाति क्या है, अन्याय और शोषण करने वालों के खिलाफ अपनी कलम चलाए। इस देश में अन्याय केवल सिखों के साथ ही नहीं हुआ है। सिखों के साथ केवल 1984 में ही जुल्म हुआ है। इस देश में बहुत सी जातियां ऐसी हैं, जिन पर सदियों से जुल्म होता आया है। उनमें से एक जाति गरीब की है। इस जाति में सभी धर्मों, समुदायों और जातियों के लोग शामिल हैं, जो आजादी से पहले भी और आजादी के बाद भी पूंजीवादियों के जुल्म का शिकार होते आए हैं। दलितों पर होने वाले जुल्मों को कौन भूल सकता है। इस देश में हर रोज किसान आत्महतयाएं कर रहे हैं। 1984 के सिख विरोधी दंगों जैसे ही दंगों की एक लम्बी फैहरस्ति मुस्लिम विरोधी दंगों की है। मुसलमान देखता आ रहा है कि उन पर जुल्म करने वाले लोग सत्ता का स्वाद चख रहे हैं। पुलिस और पीएसी के वह अधिकारी, जिन्होंने लोगों को सरेआम गोलियों से भून दिया था, तरक्की करते रहे। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी उस महिला को अपने मंत्री मंडल में जगह देते हैं, जिस पर गुजरात के नरोदा-पाटिया के 106 मुसलमानों को मारने वाली भीड़ का नेतृत्व करने का आरोप है। मुस्लिम विरोधी दंगों की जांच आयोग की रिपोर्टों को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। ऐसे में क्या कोई मुसलमान पत्रकार यह करे कि वह मुसलमानों पर होने वाले अत्याचार का का ध्यान खींचने के लिए किसी प्रेस कांफ्रेंस में किसी मंत्री या अधिकारी पर जूता चला दे। किसी भी पत्रकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि किसी अधिकारी या मंत्री तक उसकी पहुंच इसलिए हो जाती है कि वह पत्रकार है। इसका नाजायज फायदा उठाना किसी पत्रकार के लिए जायज नहीं कहा जा सकता है। पत्रकार की ताकत उसकी कलम में है, न कि जूते में।
कहते हैं कि 'जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो।' यह भी कहा जाता रहा है कि 'कलम की धार, तलवार की धार से तेज होती है।' लेकिन इसमें दो राय नहीं कि उदारीकरण के इस दौर में कलम की धार न केवल कुन्द हुई है, बल्कि बाजार में बिकने भी लगी है। पत्रकार की हैसियत ऐसे नौकर की हो गयी है, जो अपने मालिक की इच्छानुसार कलम चलाता है। खबरें बाजार के हिसाब से लिखी जाने लगी हैं। बड़े-बड़े विज्ञापन देने वाली कम्पनियों की ज्यादतियों के खिलाफ कोई अखबार लिखने को तैयार नहीं है। प्रत्येक मीडिया हाउस किसी ने किसी राजनैतिक दल से सहानुभूति रखता है। पहले पेज पर ईंट ढोती, मजदूरी करती महिलाओं, ढाबों में काम करते बच्चों के बजाय लिपी-पुती महिलाएं नजर आने लगी हैं। अब कवर स्टोरी सैक्स पर होती है, आम आदमी की समस्याओं पर नहीं। अखबार वाले अनौपचारिक रुप से बताते हैं कि अब अखबार धंधा है, समाज सेवा नहीं। वे कहते हैं कि रिपोर्टर से लिखने की आजादी छीन ली गयी है। खबर लिखते समय यह ध्यान रखा जाने लगा है कि विज्ञापनदाता नाराज न हो जाए। इस चुनाव की बात करें तो अखबारों में जनता की आवाज को उतनी ही जगह दी जा रही है, जिससे विज्ञापन देने वाले प्रत्याशी को नुकसान न हो। कई अखबार तो प्रत्याशियों के फेवर में ऐसी खबरे लिख रहे हैं, जिन्हें पढ़कर यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि यह खबर है या विज्ञापन। अखबारों को यह सोचना होगा कि उसकी जवाबदेही केवल विज्ञानदाता के प्रति ही नहीं, देश की जनता के प्रति भी है। देश की जनता अपनी आवाज उठाने के लिए अखबार को सबसे सशक्त माध्यम मानती रही है। लेकिन अब उसकी ये धारणा खत्म होती जा रही है। शायद जरनैल सिंह को भी अपने अखबार में वह आजादी हासिल न हो, जिसकी वह अपेक्षा रखता है, इसीलिए उसने जूते का रास्ता चुना हो। फिर उनकी हरकत को सही नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन सत्ता प्रतिष्ठानों को यह तो सोचना ही चाहिए कि वे कहां गलती कर हैं कि समाज का प्रबुद्व वर्ग समझे जाने वाले पत्रकारों को भी जूता चलाना पड़ रहा है। वो वक्त दूर नहीं, जब नाइंसाफी करने वाले नेताओं को जनता भी जूते मारने लगेगी।

Sunday, April 5, 2009

नारी देह के सौदागर

सलीम अख्तर सिद्दीकी
सरकार और मीडिया महिला सशक्तिकरण की बहुत बातें करते हैं। नामचीन महिलाओं का उदाहरण देकर कहा जाता है कि महिला अब पुरूषों से कमतर नहीं हैं। लेकिन जब किसी गरीब, लाचार और बेबस लड़की के बिकने की दास्तान सामने आती है तो महिला सशक्तिकरण की धज्जियां उड़ जाती हैं। मेरठ के पास फफूंडा की ग्यारहवीं पास कमला को इसका लेशमात्रा भी संदेह नहीं हुआ कि उसकी सगी बुआ ही ने एक लाख में उसका सौदा कर दिया है। उसकी बुआ उसको मेरठ घुमाने के बहाने बस्तौरा गांव ले आयी। बस्तौरा में उसको कई लोग देखने आये। और आखिर में अनिल नाम के एक व्यक्ति के माध्यम से उसका सौदा कर दिया गया। लेकिन ÷संकल्प' संस्था के लिए काम करने वाली वर्षा और शांति को इसकी भनक लग गयी। उन्होंने ग्राम प्रधान डा0 इकबाल की मदद से पूरे मामले का भंडाफोड़ कर दिया और लड़की के मां-बाप को खोजकर लड़की को उनकी सुपुर्दगी में दे दिया गया।
हैदराबाद के काकापुर नतारनी की मुमताज नाम एक लड़की अपने घर के ही नौकर के प्रेम में पड़कर भाग आयी। कथित प्रेमी ने उसे गढ़मुक्तेश्वर में भूरे नाम के आदमी को बेच दिया। भूरे ने चार माह बाद मखदूमपुर में एक अन्प्य व्यक्ति को दो हजार में बेच दिया। लेकिन लड़की का यह आखिरी ठिकाना नहीं था। मखदूमपुर के खरीददार ने उसे बस्तौरा गांव के एक दबंग व्यक्ति को तीन हजार में बेच दिया। यहां भी ÷संकल्प' संस्था के कार्यकर्ताओं ने लड़की को छुड़ाने में अपनी अहम भूमिका निभायी।
बस्तौरा गांव हस्तिनापुर क्षेत्रा में पड़ता है। यहां केवल दो घटनाओं का उल्लेख किय गया है। हस्तिनापुर क्षेत्र से पिछले दो माह में ही 11 लड़कियां बरामद की जा चुकी हैं। दरअसल, पूरा पश्चिमी उत्तर प्रदेश लड़कियों की खरीद-फरोख्त और देह व्यापार का अड्डा बन गया है। ये लड़कियां नेपाल, असम, बंगाल, बिहार, झारखंड मध्य प्रदेश तथा राजस्थान आदि प्रदेशों से खरीदकर लायी जाती हैं। पिछले साल ÷एंटी ट्रेफिकिंग सेल नेटवर्क' का एक दल झारखंड से तस्करी से लायी गयीं 602 महिलाओं को खोजने मेरठ आया था। सेल नेटवर्क की अध्यथ रेशमा सिंह ने बताया था कि पिछले पांच से छः वर्षों के दौरान पश्चिमी यूपी में लगभग 6 हजार महिलाएं तस्करी से लाकर बेची जा चुकी हैं। इनमें से कुछ 15 से 16 तथा कुछ 20 से 22 साल की आयु की थीं। रेषमा सिंह के अनुसार झारखंड के लोगों के लिए मेरठ मंडल ही यूपी है। झारखंड के बोकारो, हजारी बाग, छतरा और पश्चिम सिंह भूम जिलों में महिलाओं की हालत सबसे खराब है। इन्हीं जिलों से महिलाओं की तस्करी सबसे अधिक होती है। मेरठ की बात करें तो दिसम्बर 2007 तक सरकारी आंकडों के अनुसार 419 बच्चों के गायब होने की रिपोर्ट है। इनमें से विभिन्न आयु वर्ग की 270 लड़कियां हैं। लड़कियों के बारे मे पुलिस शुरूआती दिनों में प्रेम प्रसंग का मामला बनाकर गम्भीरता से जांच नहीं करती है। निठारी कांड के बाद गायब हुए बच्चों की तलाश के लिए बड़ी-अड़ी बातें की गयी थीं। लेकिन निठारी कांड पर धूल जमने के साथ ही गायब हुऐ बच्चों की तलाश के अभियान पर भी ग्रहण लग गया है।
हालिया आंकड़ों के अनुसार पश्चिमी यूपी में लड़कियों की जन्म दर में सात से आठ प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गयी है। इसके अलावा इस क्षेत्र में विशेष कारणों से हमेशा ही अविवाहित पुरुषों की संख्या अधिक रही है। इसलिए यहां पर महिलाओं की खरीद-फरोख्त का धंधा बढ़ता जा रहा है। अपने लिए दुल्हन खरीद कर लाये एक अधेड़ अविवाहित ने बताया कि ÷दिल्ली में एक दर्जन से भी अधिक स्थानों से नेपाल, बिहार, बंगाल, झारखंड तथा अन्य प्रदेशों से लायी गयी लड़कियों को मात्र 15 से 20 हजार में खरीदा जा सकता है।' दिल्ली में यह सब कुछ ÷प्लेसमेंट एजेंसियों' के माध्यम से हो रहा है। इन्हीं प्लेसमेंट एजेंसियों के एजेन्ट आदिवासियों वाले राज्यों में नौकरी-रोजगार देने का लालच देकर लाते हैं और उन्हें ÷जरूरतमंदों' को बेच देते हैं। ये एजेंसियां इन लड़कियों के नाम-पते भी गलत दर्ज करते हैं ताकि इनके परिवार वाले इन्हें ढूंढ न सकें। अधेड़ लोग सन्तान पैदा करने के लिए तो कुूछ मात्र अपनी हवस पूरी करने के लिए इन लड़कियों को खरीदते हैं। कुछ सालों के बाद इन लड़कियों को जिस्म फरोशी के धंधे में धकेलकर दूसरी लड़की खरीद ली जाती है। कुछ पुलिस अधिकारी यह मानते हैं कि लड़कियों को बंधक बनाकर उन्हें पत्नि बनाकर रखा जाता है, लेकिन लड़की के बयान न देने के कारण पुलिस कार्यवाई नहीं कर पाती है। लड़कियों की खरीद-फरोख्त तथा देह व्यापार एक वुनौती बन चुका है। इस व्यापार में माफियाओं के दखल से हालात और भी अधिक विस्फोटक हो गये हैं। सैक्स वर्करों को जागरूक करने का कार्य करने वाले गैर सरकारी संगठनों को इन माफियाओं से अक्सर जान से मारने की धमकी मिलती रहती है।
कुछ जातियों में देह व्यापार को मान्यता मिली हुई है। यदि ऐसी जातियों को छोड़ दिया जाये तो देह व्यापार में आने वाली अधिकतर लड़कियां मजबूर और परिस्थितियों की मारी होती हैं। प्यार के नाम ठगी गयीं, बेसहारा और विधवाएं। आजीविका का उचित साधन न होने। बड़े परिवार के गुजर-बसर के लिए अतिरिक्त आय बढ़ाने के लिए। अकाल अथवा सूखे के चलते राहत न मिलना, परिवार के मुखिया का असाध्य रोग से पीड़ित हो जाना। परिवार का कर्जदार होना, जातीय और साम्प्रदायिक दंगों में परिवार के अधिकतर सदस्यों के मारे जाने आदि देह व्यापार में आने की मुख्य वजह होती हैं। किसी देश की अर्थ व्यवस्था चरमरा जाना भी देह व्यापार का मुख्य कारण बनता है। सोवियत संघ के विघटन के बाद आजाद हुऐ कुछ देशों की लड़कियों की भारत के देह बाजार में आपूर्ति हो रही है। एक दशक पहले के आंकड़ों पर नजर डालें तो दिल्ली, कोलकाता, चैन्नई, बंगलौर और हैदराबाद में सैक्स वर्करों की संख्या लगभग सत्तर हजार थी। एक दशक बाद यह संख्या क्या होगी इसकर केवल अंदाजा लगाया जा सकता है। मेरठ महानगर के रेड लाइट एरिया में ही लगभग 1450 सैक्स वर्कर हैं। इनमें लगभग 1160 केवल 12 से लेकर 16 वर्ष की नाबालिग बच्चियां हैं, जिन्हें अन्य प्रदेशों से लाकर जबरन इस धंधे में लगाया गया है। जब से यह कहा जाने लगा है कि कम उम्र की लड़कियों से सम्बन्ध बनाने से एड्स का खतरा नहीं होता, तब से बाल सैक्स वर्करों की संख्या में इजाफा हुआ है। देह व्यापार में उतरते ही इन लड़कियों के शोषण का अंतहीन सिलसिला शुरू हो जाता है। दलालों और कोठा संचालकों का उनकी हर सांस और गतिविधि पर कड़ा शिकंजा रहता है। यदि कोई लड़की भागने की कोशिश करती है तो उस पर भयंकर अत्याचार किए जाते हैं। शारीरिक हिंसा, लगातार गर्भपात, एड्स, टीबी तथा हैपेटाइटिस बी जैसी बीमारियां इनका भाग्य बन जाती हैं।
देह व्यापार भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में अकूत धन कमाने का आसान जरिया हो गया है। एशिया में ही एक अनुमान के मुताबिक प्रतिवर्ष लगभग 10 हजार महिलाएं देह व्यापार में लग जाती हैं। एशिया में थाइलैंड देह व्यापार का सबसे कुख्यात अड्डा माना जाता है। भारत में नेपाल से औरतों की तस्करी बहुत पहले से हो रही है।
मेरठ के रेड लाइट एरिया में ऐसी अनेकों लड़कियां हैं, जो इस धन्धे से बाहर आना चाहती हैं। लेकिन माफिया उन्हें धन्धे से बाहर नहीं आने देना चाहते। वे अगर बाहर आ भी जाती हैं तो उनके सामने सबसे सवाल यह रहता है कि क्या समाज उन्हें स्वीकार करेगा। ऐसे भी उदाहरण हैं कि किसी सैक्स वर्कर ने इस दलदल से मुक्ति चाही, लेकिन दलाल उसे फिर देह व्यापार के दलदल में वापस खींच लाये। पिछले दिनों मेरठ के रेड लाइट एरिया की जूही नाम की सैक्स वर्कर ने सुरेश नाम के लड़के से कोर्ट मैरिज कर ली। लेकिन कोठा संचालिका और दलालों को जूही का शादी करना अच्छा नहीं लगा। उसे जबरदस्ती फिर से कोठे पर ले जाने का प्रयास किया गया, जो असफल हो गया। लेकिन जूही एक अपवाद मात्रा है। धन्धे से बाहर आने की चाहत रखने वाली हर सैक्सवर्कर की किस्मत जूही जैसी नहीं होती।
देह व्यापार में केवल गरीब, लाचार और बेबस औरतें और लड़कियां ही नहीं हैं। देह व्यापार का एक चेहरा ग्लैमर से भरपूर भी है। सम्पन्न घरों की वे औरतें और लड़कियां भी इस धन्धे में लिप्त हैं, जो अपने अनाप-शनाप खर्चे पूरे करने और सोसाइटी में अपने स्टेट्स को कायम रखने के लिए अपनी देह का सौदा करती हैं। मेरठ के एक ट्रिपल मर्डर की सूत्रधार शीबा सिरोही ऐसी ही औरतों के वर्ग से ताल्लुक रखती है, जो पॉश कालोनी के शानदार फ्लैट में रहती हैं और लग्जरी कारों का इस्तेमाल करती हैं। भूमंडलीकरण के इस दौर में नवधनाढ़यों का एक ऐसा वर्ग तैयार हुआ है, जो नारी देह को खरीदकर अपनी शारीरिक भूख को शांत करना चाहता है। इन धनाढ़यों की जरूरतों को पूरा करने का साधन ऐसी ही औरतें और लड़कियां बनती हैं।
समाज का एक बर्ग यह भी मानता है कि रेड लाइट एरिया समाज की जरूरत है। इस वर्ग के अनुसार भारत की आबादी का लगभग आधा हिस्सा युवा है और इस युवा वर्ग के एक बड़े हिस्से को अनेक कारणों से अपनी शारीरिक जरूरत पूरी करने के लिए रेड लाइट एरिया की जरूरत है। सर्वे बताते हैं कि जहां रेड लाइट एरिया नहीं हैं, वहां बलात्कार की घटनाओं में इजाफा हुआ है।
सैक्स वर्करों की बीच काम करने वाली गैर सरकारी संस्थाओं के सामने देह व्यापार को छोड़कर समाज की मुख्य धारा में आने वाली लड़कियों का पुनर्वास एक बड़ी चुनौती होता है। हालांकि सरकार सैक्स वर्करों के पुनर्वास के लिए कई योजाएं चलाती है। लेकिन सैक्स वर्करों के अनपढ़ होने, स्थानीय नहीं होने तथा दलालों के भय से वे योजना का लाभ नहीं उठा पाती हैं। कुछ गैर सरकारी संगठन वेश्यावृत्ति के उन्मूलन के लिए सार्थक प्रयास तो कर रहे हैं लेकिन उन्हें समाज, प्रशासन और पुलिस का उचित सहयोग और समर्थन नहीं मिल पाता।
170, मलियाना, मेरठ

Thursday, April 2, 2009

संघ परिवार का नया मोहरा वरुण

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
मैंने वरुण के आगे गांधी लगाना बंद कर दिया है, क्योंकि वरुण के आगे गांधी लगाना महात्मा गांधी का अपमान है। महात्मा गांधी वो शख्स थे, जो अहिंसा के कायल थे। वरुण हिंसा की बातें करके समाज का बांटने का काम कर रहा है। उसके स्वर्गीय पिता ने भी इमरजैंसी के दौरान हिंसा के बल पर देश की जनता को हांकने की कोशिश की थी। लेकिन देश की जनता ने उन्हें किनारे लगा दिया था। संघ परिवार को वरुण में संजय की झलक दिखायी दे रही है। संघ परिवार को हमेशा से ही खून और आग में वोट चमकते हैं। वरुण हाथ काटने और जला देने की बात कर रहा है, इसलिए वरुण संघ परिवार का नया मोहरा बन गया है। आपत्तिजनक अवस्था में देखा। जैसे इतना की काफी नहीं था। आतंकवादियों को सम्मान के साथ संघ परिवार को ऐसे ही मोहरों की तलाश रहती है। पुराने मोहरे बूढ़े हो गये हैं। उनकी धार को देश की जनता और वक्त ने कुंद कर दिया है। जिने मोहरों के सहारे सत्ता हासिल की थी, उन्हें कूड़ेदान में डाल दिया है। सत्ता मिली तो भ्रष्टाचार के मामले में कांग्रेस को अच्छा कहलवा दिया। देश की जनता ने सिर्फ इन्हीं लोगों को नोट और औरत के पीछे भागते देखा। लोगों ने नोटों के बंडलों को चुपके से दराज में रखते और पैसे को दूसरा खुदा बताते हुए माथे से लगाते देखा। नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले संघ के एक पदाधिकारी को एक महिला के साथ कंधार तक हिफाजत के साथ छोड़ते देखा। गुजरात को एक सम्प्रदाय के खून से रंगते देखा। ईसाईयों के लिए उड़ीसा की जमीन तंग करते देखा। ईसाईयों को जंगलों में रहने के लिए मजबूर करते देखा। जिन लोगों ने यह सब किया उन्हें सजा देने के बजाय सत्ता की कुर्सी सौंपते देखा।
इस चुनाव में भाजपा के पास जनता के सामने वोट मांगने के लिए जाना था। कोई मुद्दा नहीं था। वरुण को उकसाया गया। उसके मुंह से वह सब कहलवाया गया, जिससे समाज में नफरत फैले, दंगे हों, कर्फ्यू लगे और वोटों की फसल लहलाने लगे। पीलीभीत में गेंहूं की फसल कट रही है। लेकिन भाजपा वहां वोटों की फसल बोना चाहती है। वरुण झांसे में आ गया। अब जेल की हवा खा रहा है। संटा परिवार को अभी पता ही नहीं चला है कि जिस राजनीति को वह बार-बार आजमाना चाहता है, उस राजनीति के दिन कब के लद चुके हैं। देश का हर आदमी चाहे वह किसी भी सम्प्रदाय से ताल्लुक रखता है। सबसे पहले दो जून की रोटी चाहता है। भूखे पेट तो भजन भी नहीं होता। सच तो यह है कि संध परिवार और तालिबान का मकसद एक ही है। तालिबान इस्लाम के नाम पर तो संघ परिवार का हिन्दुत्व के नाम पर बेगुनाह लोगों को मारने की बात करता है। न तो तालिबान का इस्लाम को कुछ लेना-देना है और न ही संघ परिवार का हिन्दुत्व से कोई वास्ता है। वरुण को जेल में करने के लिए कुछ नहीं होगा। उसे जेल में चिंतन करना चाहिए कि उनकी मां, जो जानवरों के खरोंच आने पर भी भावुक हो उठतीं हैं, इंसानों की जान लेने की बात करके वह अपनी मां के आन्दोलन को खत्म करना चाहता है या संघ परिवार का मोहरा बनकर एक दायरे में सिमटना चाहता है।

Wednesday, April 1, 2009

फासिस्ट ताकतों का विरोध जरुरी

सलीम अख्तर सिद्दीकी
३१ मार्च की मेरी पोस्ट वरुण पर रासुका सही फैसला पर तीखे कमेंटस आए हैं। दरअसल, जिन लोगों ने भी मुझ पर कमेंटस किए हैं, उन्होंने मेरी सभी पोस्ट नहीं पढ़ी हैं। मैं फासिस्ट ताकतों का हमेशा से विरोध करता रहा हुुं। वे ताकते चाहे मुस्लिम हो या फिर हिन्दू। हालांकि इरशाद भाई ने मेरी तरफ से सब कुछ कह दिया है। फिर भी सोचा कि चलो स्थिति को साफ कर दिया जाए। मै अपनी एक पुरानी पोस्ट प्रकाशित कर रहा हूं। हो सकता है कि उससे गलतफहमियां दूर हो जाएं। अन्त में एक बात यह कि इस देश की फासिस्ट ताकतों का विरोध करना बहुत आवश्यक है। यदि ऐसा नहीं किया गया तो हमारे बच्चों का मुस्तकबिल रोशन नहीं होगा।

बाबरी मस्जिद, गुजरात, आतंकवाद और पाक
मुंबई के आतंकी हमलावरों ने जब ताज होटल में कुछ लोगों को बंधक बनाया तो बंधकों में से एक ने हिम्मत करके पूछा ÷तुम लोग ऐसा क्यों कर रहे हो ?' इस पर एक आतंकी ने कहा, ÷क्या तुमने बाबरी मस्जिद का नाम नहीं सुना ? क्या तुमने गोधरा के बारे में नहीं सुना ?' आतंकी बाबरी मस्जिद और गुजरात का हवाला देकर अपनी नापाक हरकत को पाक ठहराने का कुतर्क दे रहे थे। सिर्फ मुंबई ही नहीं देश के अन्य हिस्सों में हुई आतंकी वारदात को अंजाम देने वाले संगठन बाबरी मस्जिद और गुजरात को ढाल बनाते रहे हैं। इन आतंकियों से पूछा जाना चाहिए, जिन बेकसूर लोगों को तुम निशाना बनाते हो क्या वे लोग बाबरी मस्जिद विध्वंस और गुजरात दंगों के लिए जिम्मेदार थे ? आतंकी हमलों में मारे गए उन बच्चों का क्या कसूर था, जिन्होंने बाबरी मस्जिद विध्वंस और गुजरात दंगों के बाद ही दुनिया देखी थी ? भारतीय मुसलमानों की हमदर्दी का नाटक करने वाले आतंकी संगठन क्या इस तरह से फायरिंग करते हैं या बमों को प्लांट करते हैं कि मुसलमान बच जायें और दूसरे समुदाय के लोग मारे जायें। आतंकियों को मालूम हो चुका होगा मुंबई हमलों में ही ४० मुसलमानों ने अपनी जान गंवाई है और ७० के लगभग घायल हुऐ हैं। पहले भी मुसलमान आतंकी हमलों के शिकार होते रहे हैं। मुसलमानों को निशाना बनाकर वे बाबरी मस्जिद और गुजरात का कैसा बदला है, यह समझ से बाहर है।
दरअसल, बाबरी मस्जिद और गुजरात का नाम लेकर आतंकी भारतीय मुसलमानों की हमदर्दी हासिल करने के साथ ही मुसलमानों और हिन्दुओं के बीच की दूरी बढ़ाना चाहते हैं। लेकिन दोनों ही समुदायों ने उनकी चाल को कभी कामयाब नहीं होने दिया। मुंबई हमलों के बाद तो हिन्दुओं और मुसलमानों की बीच की दूरियां कम ही हुई हैं। इससे बड़ी क्या बात हो सकती है, भारतीय मुसलमान मारे गए आतंकियों को भारत की सरजमीं पर दफन होते भी नहीं देखना चाहते। आतंकियों और पाकिस्तान के खिलाफ मुसलमानों का गुस्सा इस बात का संकेत है कि मुसलमान भी अब बाबरी मस्जिद और गुजरात को को आतंकियों की ढाल बनता नहीं देखना चाहते हैं।
बाबरी मस्जिद विध्वंस और गुजरात दंगे हमारे देश का अपना मसला है। भारतीय मुसलमानों ने बाबरी मस्जिद विध्वंस और गुजरात दंगों का बदला लेने के लिए पाकिस्तानियों को अधिकृत नहीं किया है। मुसलमानों को अपने देश के संविधान और न्यायपालिका पर भरोसा है। मुसलमान अपने उपर होने वाले जुल्म की लड़ाई को इस देश के हिन्दुओं के सहयोग से लड़ता रहा है। मुसलमानों ने कभी पाकिस्तान से मदद नहीं मांगी और न ही मांगना चाहते हैं। गुजरात और बाबरी मस्जिद की आड़ में आतंक बरपाने वाले लोगों के देश में गुजरात और बाबरी मस्जिद जैसे हादसों की गिनती करना मुश्किल है। पाकिस्तान में नमाजियों से भरी मस्जिद को बमों से उड़ाकर कौनसी मस्जिद के विध्वंस का बदला लिया जाता है ? आत्मघाती हमलों में बेकसूर लोगों की जान लेकर किस गुजरात का बदला लिया जाता है ? भारतीय मुसलमानों पर होने वाले अत्याचार का बहाना बनाकर आतंकी वारदात करने वालों को पहले अपने देश के उन मुसलमानों पर गौर करना चाहिए, जिन्हें आज तक भी पाकिस्तानी होने का सर्टीफिकेट नहीं मिल सका है। बंटवारे के समय पाकिस्तान गए भारतीय मुसलमानों पर से ६० साल बाद भी महाजिर (शरणार्थी) होने का लेबल हटा नहीं है।
एक हादसे की बदौलत ÷मिस्टर १० परसेन्ट' से मिस्टर १०० परसेन्ट बने आसिफ अली जरदारी की बेशर्मी देखिए कि वह सबूत होने के बाद भी यह मानने को तैयार नहीं हैं कि आतंकवादी पाकिस्तान से ही ट्रेनिंग लेकर आए थे। उनके झूठ का पर्दाफाश करने वाले निजी न्यूज चैनल पर देशद्रोह का मुकदमा कायम करके आसिफ जरदारी लोकतन्त्र में तानाशाह जैसा बर्ताव कर रहे हैं।