Wednesday, April 8, 2009

जूता मार पत्रकारिता नहीं चलेगी

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
कभी मुंतजिर जैदी तो कभी जरनैल सिंह जैसे पत्रकार अपनी भावनाओं को जूता फेंककर अभिव्यक्त करने लगे हैं। उल्लेखनीय है कि जरनैल सिंह ने किसी ऐसी समस्या की ओर ध्यान दिलाने के लिए पी चिदंबरम पर जूता नहीं फेंका, जिससे पूरे देश की जनता त्रस्त हो। उन्होंने अपने समुदाय पर कथित ज्यादती करने वाले नेता जगदीश टाइटलर को सीबीआई द्वारा क्लीन चिट देने के विरोधस्वरुप चिदंबरम पर जूता फेंका है। जरनैल सिंह अपने समुदाय के प्रति होने वाले अन्याय से व्यथित हैं। उन्हें यह भी मालूम होना चाहिए कि सही मायने में पत्रकार वह होता है, जो बगैर यह देखे कि शोषित का धर्म, समुदाय अथवा जाति क्या है, अन्याय और शोषण करने वालों के खिलाफ अपनी कलम चलाए। इस देश में अन्याय केवल सिखों के साथ ही नहीं हुआ है। सिखों के साथ केवल 1984 में ही जुल्म हुआ है। इस देश में बहुत सी जातियां ऐसी हैं, जिन पर सदियों से जुल्म होता आया है। उनमें से एक जाति गरीब की है। इस जाति में सभी धर्मों, समुदायों और जातियों के लोग शामिल हैं, जो आजादी से पहले भी और आजादी के बाद भी पूंजीवादियों के जुल्म का शिकार होते आए हैं। दलितों पर होने वाले जुल्मों को कौन भूल सकता है। इस देश में हर रोज किसान आत्महतयाएं कर रहे हैं। 1984 के सिख विरोधी दंगों जैसे ही दंगों की एक लम्बी फैहरस्ति मुस्लिम विरोधी दंगों की है। मुसलमान देखता आ रहा है कि उन पर जुल्म करने वाले लोग सत्ता का स्वाद चख रहे हैं। पुलिस और पीएसी के वह अधिकारी, जिन्होंने लोगों को सरेआम गोलियों से भून दिया था, तरक्की करते रहे। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी उस महिला को अपने मंत्री मंडल में जगह देते हैं, जिस पर गुजरात के नरोदा-पाटिया के 106 मुसलमानों को मारने वाली भीड़ का नेतृत्व करने का आरोप है। मुस्लिम विरोधी दंगों की जांच आयोग की रिपोर्टों को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। ऐसे में क्या कोई मुसलमान पत्रकार यह करे कि वह मुसलमानों पर होने वाले अत्याचार का का ध्यान खींचने के लिए किसी प्रेस कांफ्रेंस में किसी मंत्री या अधिकारी पर जूता चला दे। किसी भी पत्रकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि किसी अधिकारी या मंत्री तक उसकी पहुंच इसलिए हो जाती है कि वह पत्रकार है। इसका नाजायज फायदा उठाना किसी पत्रकार के लिए जायज नहीं कहा जा सकता है। पत्रकार की ताकत उसकी कलम में है, न कि जूते में।
कहते हैं कि 'जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो।' यह भी कहा जाता रहा है कि 'कलम की धार, तलवार की धार से तेज होती है।' लेकिन इसमें दो राय नहीं कि उदारीकरण के इस दौर में कलम की धार न केवल कुन्द हुई है, बल्कि बाजार में बिकने भी लगी है। पत्रकार की हैसियत ऐसे नौकर की हो गयी है, जो अपने मालिक की इच्छानुसार कलम चलाता है। खबरें बाजार के हिसाब से लिखी जाने लगी हैं। बड़े-बड़े विज्ञापन देने वाली कम्पनियों की ज्यादतियों के खिलाफ कोई अखबार लिखने को तैयार नहीं है। प्रत्येक मीडिया हाउस किसी ने किसी राजनैतिक दल से सहानुभूति रखता है। पहले पेज पर ईंट ढोती, मजदूरी करती महिलाओं, ढाबों में काम करते बच्चों के बजाय लिपी-पुती महिलाएं नजर आने लगी हैं। अब कवर स्टोरी सैक्स पर होती है, आम आदमी की समस्याओं पर नहीं। अखबार वाले अनौपचारिक रुप से बताते हैं कि अब अखबार धंधा है, समाज सेवा नहीं। वे कहते हैं कि रिपोर्टर से लिखने की आजादी छीन ली गयी है। खबर लिखते समय यह ध्यान रखा जाने लगा है कि विज्ञापनदाता नाराज न हो जाए। इस चुनाव की बात करें तो अखबारों में जनता की आवाज को उतनी ही जगह दी जा रही है, जिससे विज्ञापन देने वाले प्रत्याशी को नुकसान न हो। कई अखबार तो प्रत्याशियों के फेवर में ऐसी खबरे लिख रहे हैं, जिन्हें पढ़कर यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि यह खबर है या विज्ञापन। अखबारों को यह सोचना होगा कि उसकी जवाबदेही केवल विज्ञानदाता के प्रति ही नहीं, देश की जनता के प्रति भी है। देश की जनता अपनी आवाज उठाने के लिए अखबार को सबसे सशक्त माध्यम मानती रही है। लेकिन अब उसकी ये धारणा खत्म होती जा रही है। शायद जरनैल सिंह को भी अपने अखबार में वह आजादी हासिल न हो, जिसकी वह अपेक्षा रखता है, इसीलिए उसने जूते का रास्ता चुना हो। फिर उनकी हरकत को सही नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन सत्ता प्रतिष्ठानों को यह तो सोचना ही चाहिए कि वे कहां गलती कर हैं कि समाज का प्रबुद्व वर्ग समझे जाने वाले पत्रकारों को भी जूता चलाना पड़ रहा है। वो वक्त दूर नहीं, जब नाइंसाफी करने वाले नेताओं को जनता भी जूते मारने लगेगी।

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