Sunday, February 19, 2017

थ्रिलर के शहंशाह थे वेद


वेद प्रकाश शर्मा। एक ऐसा नाम, जिसने जासूसी उपन्यासों में एक इतिहास रचा। वो भी उस दौर में, जब कई नामचीन उपन्यासकारों का डंका बजता था। उन सबके बीच अपनी पहचान बनाना बहुत दुष्कर काम था। लेकिन निम्न मध्यम वर्ग से ताल्लुक रखने वाले वेद नाम के उस लड़के में ऐसा कुछ था, जिसने जिद ठानी थी कि उसे कुछ करके दिखाना है।  कहां कहां नहीं भटका वेद नाम कर वह लड़का। लेकिन जो बच्चा कोर्स की किताबों से ज्यादा उपन्यास और पत्रिकाएं पढ़ता है, उससे कोई भी अंदाजा लगा सकता था कि ये लड़का कुछ नहीं कर सकेगा। उस वक्त तो घर में कोहराम ही मच गया था, जब वेद अपनी गलत संगत के कारण नवीं क्लास में फेल हो गया। उपन्यास पढ़ने पर घर में वेद को रोज डांट पड़ती थी, लेकिन उपन्यास पढ़ने और स्कूल बंक करके फिल्म देखने की लत थी कि छूटती नहीं थी। कोर्स की किताबों से इतर भी एक पढ़ाई होती है, जो वेद ने पढ़ी। पढ़ते-पढ़ते लिखने का शऊर आ गया। खैर, जैसे तैसे दसवीं क्लास में पहुंचा। कालेज की हिंदी की हेड ने वेद में ऐसा कुछ देखा कि उन्होंने वेद को कालेज की वार्षिक पत्रिका संपादक बना दिया। पत्रिका शानदार निकाली।
पहला उपन्यास
साल 1970, 15 साल की उम्र। दसवीं के इम्तहान के बाद वेद गर्मियों की छुट्टियां मनाने अपने गांव गया। अपने साथ ले गया ढेर सारे उपन्यास। एक एक करके सब पढ़ डाले। खाली हुआ तो कुछ लिखने का ताना बाना बुनने लगा। दिमाग में एक कहानी बनाई और पेन कागज पर उतारने बैठ गया। देखते ही देखते पूरा उपन्यास लिख डाला। टाइटिल दिया ‘विजय मौत के जाल में’। लेकिन अब समस्या यह थी कि घर वालों को कैसे दिखाए? उपन्यास पढ़ने पर ही रात दिन डांट पड़ती थी, लिखने पर क्या हाल करेंगे, यही सोचकर रूह कांप गई। डर की वजह से घर वालों को तो नहीं, लेकिन दोस्तों को उपन्यास पढ़वाया। दोस्तों ने उसमें जो कमियां बतार्इं, उन्हें दूर किया।  इस बीच हाईस्कूल का रिजल्ट आ गया और वेद सेकिंड डिवीजन से पास हो गया। एक दूसरे से होते हुए बात उनके पिता मिश्रीलाल जी के कानों तक पहुंची कि वेद ने उपन्यास लिखा है। पिता ने उनसे वह उपन्यास मांगा। डरते डरते उन्हें दिया। पिता ने रात में उपन्यास पढ़ा और सुबह वेद को बुलाकर कहा, तुमने बहुत अच्छा तो नहीं, लेकिन ठीक लिखा है। आगे लिखने की कोशिश कर। बस जैसे वेद को मुंहमांगी मुराद मिल गई। पिता का आशीर्वाद मिल गया।
प्रकाशकों से निराशा
पिता से आशीर्वाद मिलने के बाद वेद अपना उपन्यास प्रकाशकों के पास लेकर भटकता रहा, लेकिन कोई भी उपन्यास उसके नाम से नहीं, बल्कि उस समय के मशहूर लेखक के नाम से छापना चाहता था। लेकिन वेद की जिद यह कि छपेगा तो मेरे ही नाम से, वरना नहीं छपेगा। वेद जिद पर अड़ा रहा। उपन्यास पर उपन्यास लिखकर एक संदूक में रखता रहा। जिस भी प्रकाशक के पास जाता, टरका दिया जाता। एक प्रकाशक ने बेइज्जत करके आॅफिस से ही निकाल दिया। आखिरकार वेद को पता चला कि अपने नाम से उपन्यास छपवाना आसान नहीं है। वेद ने एक प्रकाशक को उपन्यास सौंप दिया, जो उस समय के हिट लेखक के नाम से आया। बाजार में उपन्यास हाथोहाथ लिया गया। इसके बाद एक के बाद एक उपन्यास वेद ने लिखे। हिट लेखक का नाम होता रहा। लंबे वक्त तक यह सिलसिला चलता रहा। प्रकाशकों में यह बात आम हो गई कि ‘हिट लेखक’ के नाम से कौन उपन्यास लिख रहा है। लेकिन दूसरे प्रकाशक अभी भी उसके नाम से उपन्यास छापने के लिए तैयार नहीं थे।
नाम के साथ पहला उपन्यास ‘दहकता शहर’
आखिरकार ‘कंचन पाकेट बुक्स’ के मालिक सुरेश जैन ‘रितुराज’ ने, जो खुद भी सामाजिक उपन्यास लिखते थे, वेदप्रकाश शर्मा के नाम से उपन्यास प्रकाशित करने का वादा किया तो एक बारगी वेद को यकीन ही नहीं आया। ‘रितुराज’ ने उनसे नए उपन्यास की स्क्रिप्ट मंगवाई। वेद प्रकाश शर्मा नाम से ‘दहकते शहर’ 1973 में आया। लेकिन यहां भी नाम कवर पर नहीं, अंदर के पेज पर छोटे फॉन्ट साइज में छापा गया था। इस उपन्यास ने धूम मचा दी। नए उपन्यास में वेद ने एक नया किरदार गढ़ा था, ‘विकास’। विकास नाम का वह किरदार इतना मशहूर हुआ कि पाठक ‘विकास’ के नाम से उपन्यास मांगने लगे। ‘दहकते शहर’ की बिक्री ने प्रकाशकों की आंखें खोलकर रख दीं। अगले उपन्यास ‘आग का बेटा’ के कवर वेद का नाम तो आ गया, लेकिन तस्वीर अभी भी नहीं आई थी।  चार उपन्यास छपने के बाद कवर पर तस्वीर भी आ गई। वेद की जिद पूरी हुई।
‘वर्दी वाला गुंडा’ ने पहुंचाया बुलंदी पर
वेदप्रकाश शर्मा का जिक्र हो और वेद के अपने प्रकाशन तुलसी पॉकेट बुक्स से प्रकाशित ‘वर्दी वाला गुंडा’ की चर्चा न हो, यह संभव नहीं है। यह ऐसा उपन्यास था, जो ब्लैक में भी बिका। इस उपन्यास की बिक्री ने सभी उपन्यासों की बिक्री के सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले। जो लोग उपन्यास नहीं पढ़ते थे, उन्होंने भी ‘वर्दी वाला गुंडा’ पढ़ा। इस उपन्यास के प्रकाशन ेके बाद वेद प्रकाश शर्मा को पूरे भारत में जबरदस्त पहचान मिली। चर्चा हुई कि क्या कोई थ्रिलर उपन्यास इतना भी बिक सकता है। लेकिन यह सच थ। ‘वर्दी वाला गुंडा’ ने कई रिकॉर्ड बनाए।
केशव पंडित का जन्म और बॉलीवुड में कदम
अस्सी के दशक में जब दहेज के नाम पर बहुएं जलाकर मारी जा रही थीं, तब उस समय की इस बड़ी समस्या पर वेद प्रकाश शर्मा की कलम से निकला ‘बहु मांगे इंसाफ’ नाम का एक थ्रिलर उपन्यास। इसी उपन्यास में उन्होंने एक किरदार गढ़ा केशव पंडित। केशव पंडित। एलआईसी का काईयां जासूस। इस उपन्यास पर फिल्म बनी ‘बहु की आवाज’ इस फिल्म में उस समय की आर्ट फिल्मों में काम करने वाले ओमपुरी  और नसीरूद्दीन शाह ने काम किया था। साथ में थीं सुप्रिया पाठक। ‘बहु की आवाज’ हिट रही। लेकिन कहानी में हो रद्दोबदल किए गए थे, वे वेदप्रकाश शर्मा का पसंद नहीं आए थे।
‘विधवा के पति’ के पति पर बनी अनाम रही सुपर फ्लॉप
‘विधवा का पति’ एक सस्पेंस थ्रिलर उपन्यास था, जो बहुत हिट हुआ था। उस उपन्यास पर रमेश मोदी नाम के एक प्रोड्यूसर ने अरमान कोहली को लेकर ‘अनाम’ फिल्म बनाई, जो सुपर फ्लॉप रही। फिल्म फ्लॉप होने पर वेदप्रकाश शर्मा का समझ में आया कि कहानी के अलावा पटकथा और डायलॉग्स भी कुछ चीज होते हैं। ‘अनाम’ इस मामले में मात खा गई थी।
पटकथा और संवाद भी लिखे
फिल्म निर्माता निर्देशक उमेश मेहरा ने वेदप्रकाश शर्मा से संपर्क किया। वह उनके उपन्यास ‘लल्लू’ पर फिल्म बनाना चाहते थे। लेकिन उमेश मेहरा की शर्त थी कि फिल्म की पटकथा और संवाद खुद वेद लिखेंगे, तो कहानी के साथ इंसाफ होगा। वेद की भी यही तमन्ना थी। उन्होंने ‘लल्लू’ पर बनने वाली फिल्म ‘सबसे बड़ा खिलाड़ी’ की पटकथा और संवाद लिखे। फिल्म न केवल सुपर हिट रही, बल्कि वह उस साल के वीडियोकॉन एवार्ड में भी नॉमिनेट हुई। लेकिन एवार्ड उन्हें नहीं मिला। लेकिन दर्शकों ने फिल्म की गोल्डन जुबली बनाकर अपना ईनाम दे दिया था। इसके बाद उमेश मेहरा की ही ‘इंटरनेशनल खिलाड़ी’ की कहानी, पटकथा और संवाद भी वेदप्रकाश शर्मा ने ही लिखे थे। इस फिल्म में अक्षय कुमार और ट्विंकल खन्ना मुख्य भूमिकाओं में थे। यह फिल्म भी सुपर हिट रही थी।

Thursday, June 2, 2016

69 लोगों के कातिल सिर्फ 24 लोग?

सलीम अख्तर सिद्दीकी
2002 के दंगों में अहमदाबाद की गुलबर्गा सोसायटी में हुए अभूतपूर्व हत्याकांड का फैसला आ गया है। अक्सर ही दंगों के मुकदमों को खुद पीड़ित संजीदगी से नहीं लड़ते हैं। इसलिए हाशिमपुरा के कातिल बरी हो जाते हैं, तो मलियाना हत्याकांड का केस ऐड़ियां रगड़ता हुआ चलता है। मलियाना हत्याकांड का केस चलता हुए 26 साल हो चुके हैं। जो हालात हैं, उनसे लगता है कि 73 आदमियों के कातिल बरी ही हो जाएंगे। ऐसे ही जैसे हाशिमपुरा के कातिल बरी हो गए। लेकिन गुलबर्गा सोसायटी का मामला अलग है। एहसान जाफरी के बेवा जकिया जाफरी ने जिस जीवटता के साथ दंगाइयों का मुकाबला अदालत में किया है, उसकी मिसाल आजाद हिंदुस्तान में शायद ही मिले। लेकिन वह भी अकेले ही ऐसा नहीं कर पातीं अगर उनके साथ तीस्ता तलवाड़, हर्षमंदर और रूपा मोदी जैसे लोग साथ खड़े नहीं होते। अजीब विडंबना है कि एक मोदी वह थे, जिन पर ये आरोप लगे कि उन्होंने हिंदुओं को गुस्सा निकालने की पूरी छूट दी थी, तो दूसरी ओर एक रूपा मोदी हैं, जिन्होंने दंगाइयों को उनके अंजाम तक पहुंचाने के लिए दिन रात एक कर दिया और सांप्रदायिक ताकतों से बिल्कुल नहीं डरीं। रूपा मोदी दरअसल एक पारसी परिवार से हैं। गुलबर्गा सोसाएटी में उनका अकेला परिवार पारसी था। उनका एक बेटा भी लापता हुआ था, जो आज तक नहीं मिला है। यूं अदालत के फैसलों पर उंगली नहीं उठाई जा सकती है। लेकिन कुछ सवाल तो किए ही जा सकते हैं। आखिर क्या वजह है कि अदालत यह कह रही है कि गुलबर्गा सोसायटी की घटना में कोई साजिश नहीं थी? क्या इसका मतलब यह निकाला जाए कि दोषियों को उतनी कड़ी सजा नहीं मिल पाएगी, जैसी उम्मीद की जा रही है? साजिश थी या नहीं, यह अलग बात है, लेकिन इस सच से कैसे इंकार किया जा सकता है कि 69 लोगों को बेरहमी से मार डाला गया? सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि क्या महज 24 लोगों ने इतने बड़े हत्याकांड को अंजाम दे दिया? ऐसा लगता है कि अदालतें भी कभी-कभी निष्पक्षता से काम नहीं ले पातीं। इसमें शक नहीं कि अदालतों पर दंगाइयों के साथ नरम रवैया अपनाने का दबाव अक्सर डाला जाता रहा है। 61 आरोपियों में से महज 24 लोगों को दोषी मानना भी के पीछे भी क्या सत्ता का दबाव है?

Wednesday, June 1, 2016

देश के कोने-कोने में बिखरी हैं जिंदा लाशें

सलीम अख्तर सिद्दीकी
23 साल बाद निसार रिहा हो गया। जिंदगी के 23 साल गर्क हो गए जेल की सीखचों के पीछे। सुरक्षा एजेंसियों ने झूठ-फरेब का सहारा लेकर न जाने कितने ह्यनिसारोंह्ण को दर-बदर कर दिया। उन्हें जिंदा लाश में तब्दील कर दिया। उनके परिवार को खत्म कर दिया। आर्थिक रूप से भी और सामाजिक रूप से भी। 90 के दशक में एक हवा चली थी। देखने निकलेंगे तो देश के कोने में कोने में निसार जैसी जिंदा लाशें मिल जाएंगी। आतंकवाद की। कहीं भी कोई आतंकवादी घटना घटी नहीं कि मुसलिम लड़कों को उठाकर जेल में ठूंसा जाने लगा। यह जांच किए बगैर कि वह उसमें शामिल था भी या नहीं? भयानक अत्याचार करके उनसे उस इकबालिया बयान पर साइन कराए जाते रहे, जो उसने दिया ही नहीं। निसार के साथ भी ऐसा ही किया गया। अदालतें आंख बंद करे इकबालिया बयान के आधार पर सजाएं देती रहीं। सुनवाई दर सुनवाई होती रहीं। आखिर में कई लोग 10, 15, 20 और 23 साल बाद जिंदा लाश बनकर रिहा होते रहे। उनकी रिहाई पर किसी ने प्राइम टाइम नहीं किया। एनडीटीवी करे तो वह वामपंथी हो जाता है। देशद्रोही हो जाता है। कई बदनसीब ऐसे भी रहे जो बेकसूर थे, लेकिन उन पर आतंकवादी का ठप्पा लगाकर दुनिया से रुखसत कर दिया गया। पुलिस को पता चल जाता था उनकी गढ़ी गई झूठी कहानी अदालत में नहीं टिक रही है। इसलिए उसे मार दिया गया। कहानी गढ़ ली जाती कि पुलिस हिरासत से भागने की कोशिश कर रहा था, मुठभेड़ में मारा गया। इस झूठ फरेब के बीच कोई यह मानने को तैयार नहीं था कि आतंकवाद का कोई दूसरा रंग भी हो सकता है। कई संघ कार्यकर्ता देश के विभिन्न शहरों में बम बनाने में चूक होने पर हुए धमाकों में मारे गए। शिनाख्त भी हो गई। उनके ठिकानों से मुसलिम वेशभूषा और नकली दाढ़ियां बरामद की गर्इं। लेकिन बात दबा ली गई। लेकिन जब साध्वी प्रज्ञा और कर्नल पुरोहित जैसे लोग मालेगाव धमाके में पकड़े गए, तो मालूम चला कि धमाके कोई हुजी, कोई इंडियन मुजाहिदीन या लश्कर नहीं कर रहा है। अभिनव भारत संस्था के अतिवादी लोग कर रहे हैं। वे आरएसएस से भी ज्यादा खतरनाक लोग हैं। इतने कि वे संघ परिवार को भी ह्यउदारह्ण मानते हैं। उनके इरादे खतरनाक थे। यह इत्तेफाक नहीं है कि जब से अभिनव भारत की पोल खुली है, तब से देश में धमाके नहीं होते। अब अभिनव भारत के लोगों पर भी एनआईए मेहरबान हो गई है। देर सवेर उनके अच्छे दिन भी आ ही जाएंगे।

Monday, May 30, 2016

क्या एक-दूसरे का सहारा बन पाएंगे मुलायम-अजीत?

सलीम अख्तर सिद्दीकी
लोकसभा चुनाव के बाद राजनीतिक बियाबान में भटक रहे अजीत सिंह किसी ठौर की तलाश में हाथ-पांव मार रहे हैं। चंद दिन पहले खबरें थीं कि अजीत सिंह अपनी पार्टी लोकदल का भाजपा में विलय कर सकते हैं। कहा जाता है कि लोकदल के अधिकतर जाट नेताओं का मानना था कि अजीत सिंह को भाजपा के साथ जाना चाहिए। लेकिन लोकदल का भाजपा में विलय करने का मतलब था, अपना वजूद खो देने के साथ मुसलिम वोटों का छिटक जाना। लोकसभा चुनाव में जाटों ने नल का हत्था छोड़कर कमल का फूल पकड़ लिया था। नतीजा यह निकला कि न सिर्फ बागपत से अजीत सिंह से हारे, बल्कि मथुरा से उनके बेटे जयंत चौधरी का भी पत्ता साफ हो गया।
दरअसल, एक तो मुजफ्फरनगर दंगे ने जाट-मुसलिम समीकरण को तहस-नहस किया तो उधर नरेंद्र मोदी के तूफान में लोकदल के परखच्चे उड़ गए थे। अब जब उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव सिर पर हैं तो अजीत की चिंता है कि कैसे अपनी खोई हुई राजनीतिक जमीन हासिल की जाए? पहले वह जदयू के साथ जाना चाहते थे। लेकिन यह बात कोई भी समझने में नाकाम था कि बिहार तक सिमटी जदयू से मिलकर कैसे अजीत सिंह दोबारा अपना खोया जनाधार पा सकते हैं? अब फिलहाल खबरें हैं कि अजीत सिंह सपा से तालमेल करके विधानसभा चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं। अभी तालमेल पर मुहर नहीं लगी है, लेकिन सवाल उभर रहा है कि क्या अजीत सिंह और मुलायम सिंह यादव एक-दूसरे का सहारा बनेंगे? इस तालमेल पर मुजफ्फरनगर दंगे की छाया न पड़े, ऐसा संभव नहीं है। मुलायम सिंह यादव अगर समझते हैं कि अजीत सिंह से तालमेल करके सपा को जाटों के वोट मिल जाएंगे, तो शायद वे गलत समझ रहे हैं। इसी तरह अजीत सिंह को भी इस भुलावे से बचना होगा कि सपा का मुसलिम वोट लोकदल को मिल जाएगा। एक तल्ख हकीकत यह है कि भले ही लोकदल नेतृत्व भाजपा से बचना चाहता है, लेकिन जाट वोटर भाजपा के पक्ष में हैं। इस वक्त अजीत सिंह अपनी राजनीतिक कॅरियर की सबसे बड़ी दुविधा में फंसे हैं। मुजफ्फरनगर दंगे ने उनके राजनीतिक भविष्य पर ग्रहण लगा दिया है।

Friday, May 27, 2016

मोदी युग में नेहरू की तारीफ!

सलीम अख्तर सिद्दीकी
ये तानाशाही नहीं तो और क्या है? मध्य प्रदेश के बड़वाणी जिले के आईएएस अधिकारी और बड़वानी के जिला कलेक्टर अजय सिंह गंगवार ने यह गलती कर दी  कि उन्होंने फेसबुक पर देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की तारीफ कर दी। उनका ऐसा करना गजब हो गया। भला बताइए, मोदी युग में जवाहर लाल नेहरू की तारीफ कैसे हो सकती है? इसका खामियाजा गंगवार को उठाना पड़ा। गंगवार को भोपाल में सचिवालय में उप सचिव के तौर पर स्थानांतरित कर दिया गया।
क्या किसी सरकारी अधिकारी को किसी राजनेता की तारीफ करने का हक नहीं है? ये बात अरसे से महसूस की जा रही है कि मोदी सरकार अभिव्यक्ति की आजादी पर किसी भी तरह पाबंदी लगाना चाहती है। गंगवार को सजा देने का मतलब यह है कि अब कोई अधिकारी दूसरे राजनीतिक दलों की तारीफ करने से पहले सौ बार सोचेगा। खासतौर से किसी कांग्रेसी नेता की। यानी पिछले दरवाजे से अभिव्यक्ति की आजादी का गला घोंटने की तैयारी कर ली गई है। गंगवार ने लिखा था, ‘मुझे उन गलतियों का पता होना चाहिए जो नेहरू को नहीं करनी चाहिए थीं। क्या यह उनकी गलती है कि उन्होंने हमें 1947 में हिंदू तालिबानी राष्ट्र बनने से रोका। क्या आईआईटी, इसरो, बार्क, आईआईएसबी, आईआईएम खोलना उनकी गलती है? क्या यह उनकी गलती है कि उन्होंने आसाराम और रामदेव जैसे बुद्धिजीवियों की जगह होमी जहांगीर का सम्मान किया?’
इस पोस्ट में ऐसा कुछ भी नहीं कि गंगवार को सजा दी जाती। आखिर जवाहर लाल नेहरू ने देश को दूसरा ‘पाकिस्तान’ बनने से रोका है, से कौन गलत ठहरा सकता है। आजादी के फौरन बाद हिंदू महासभा, आरएसएस और कांग्रेस में मौजूद कट्टर हिंदुत्ववादी देश को हिंदू राष्ट्र बनाने का सपना देखने लगे थे। वे पाकिस्तान का उदाहरण देकर कहते थे कि हम भी भारत को हिंदू स्टेट बनाएंगे। लेकिन नेहरू ने ऐसा नहीं होने दिया। यही वह टीस है, जो संघ परिवार को रह-रह कर सालती है। अब जब देश में एक ऐसे आदमी की सरकार आई है, जो कहता है कि हां मैं एक कट्टर हिंदू राष्ट्रवादी हूं, तो खतरा तो पैदा हो ही गया है कि देश को एक बार फिर हिंदू राष्ट्र बनाने की ओर धकेला जाए। 

Thursday, May 26, 2016

दो साल, बेरोजगारी की मार

सलीम अख्तर सिद्दीकी
नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने दो साल पूरे कर लिए हैं। इन दो सालों का जश्न ऐसे मनाया जा रहा है, जैसे वाकई भारत बदल गया है, हर ओर खुशहाली आ गई है, महंगाई दुम दबाकर भाग गई है, हर आदमी के हाथ में रोजगार आ गया है। यह जश्न ऐसे वक्त में मनाया जा रहा है, जब देश के एक दर्जन से ज्यादा राज्य सूखे की चपेट में हैं। वहां पानी के लिए हाहाकार मचा हुआ है। कहते हैं कि जब रोम जल रहा था, तो नीरो बंसी बजा रहा था। ये तो सिर्फ बंसी ही नहीं बजा रहे और ढोल नगाड़े बजा रहे हैं। यह सरकार आत्ममुग्धता की शिकार हो गई है। जमीनी हकीकत से नजरें चुराकर सिर्फ जुमलेबाजी हो रही है। इस सरकार की सबसे बड़ी असफलता रोजगार के मोर्चे पर सामने आई है। यही नरेंद्र मोदी चुनाव से पहले कहते थे कि यदि भाजपा की सरकार आई तो हर आदमी के हाथ में रोजगार होगा। दो करोड़ रोेजगार हर सृजित होंगे। लेकिन हकीकत भयावह है। सर्वों पर यकीन करने वाली सरकार इस सर्वे पर भी यकीन करे कि एक सर्वे में 43 प्रतिशत लोगों ने यह माना है कि मोदी नौकरियों के पर्याप्त अवसर पैदा कर पाने में असफल रही है। अगर सर्वे की भी न मानें तो आम आदमियों के बीच जाकर कोई भी यह जान सकता है कि रोजगार का बुरा हाल है। बात सिर्फ नौकरियों की नहीं है, जिन लोगों के निजी व्यवसाय हैं, वे बेहद मंदी की बात कर रहे हैं। छोटा व्यापारी हो या बड़ा, सबका यही कहना है कि जब से मोदी सरकार आई है व्यापार लगातार नीचे जा रहा है। जहां तक महंगाई की बात है। भले ही आंकड़ों में यह कहा जा रहा हो कि महंगाई पर काबू पा लिया गया है या वह कम हो गई है, लेकिन हकीकत इसके उलट है। महंगाई अपने चरम पर है। खासतौर से खाने पीने की चीजें आम आदमी की पहुंच से बाहर होती जा रही हैं। आज सुबह एक दिलचस्प वाकया हुआ। मैं अपने दोस्त से मजाक कर रहा था। मैंने उससे कहा, अगली बार भी मोदी सरकार। इतना सुनते ही पास से गुजरता एक शख्स रुक कर बोला। भाई साहब मोदी सरकार सबसे बेकार। हमने पूछा, ऐसा क्यों? उसने जवाब दिया, जब से मोदी सरकार आई है काम धंधों का बुरा हाल है। लेकिन क्या करें, तीन साल तक तो इस सरकार को झेलना ही होगा। यह है इस सरकार की जमीनी हकीकत।

Tuesday, May 24, 2016

बजरंग दल के ट्रेनिंग कैंप नई बात नहीं है

सलीम अख्तर सिद्दीकी
अयोध्या में बजरंग दल युवाओं को आतंक की ट्रेनिंग दे रहा है। बजरंग दल कुछ भी कहता रहे कि यह ट्रेनिंग देश दुश्मनों के लिए है, लेकिन कोई भी समझ सकता है कि युवाओं में सांप्रदायिकता का जहर बोया जा रहा है। अगर हथियार चलाने की ट्रेनिंग देश के लिए है, तो फिर उसमें जो आतंकवादी दर्शाए गए हैं, उन्हें मुसलिम क्यों बताया गया है? मुजफ्फरनगर दंगों के बाद मीडिया रिपोर्टों में बताया गया था कि वेस्ट यूपी के कई शहरों में हिंदूवादी संगठन खुलेआम खतरनाक हथियार चलाने की ट्रेनिंग दे रहे हैं। विभिन्न नामों से चलने वाले हिंदू संगठनों के कर्ताधर्ता कैमरों के सामने कहते पाए गए कि यह मुसलमानों के खिलाफ तैयारी है। विद्रूप तो यह है कि सब कुछ सामने आने के बाद भी उत्तर प्रदेश सरकार ने इन संगठनों के खिलाफ कोई कठोर कदम नहीं उठाया। इससे सरकार की नीयत पर संदेह होना लाजिमी है कि वह वास्तव में ही धर्मनिरपेक्ष है और अल्पसंख्यकों को सुरक्षा देने में वाकई गंभीर है?
हजारों मील दूर बैठे आईएस से खतरा बताने वाले आखिर अपने देश में चलने वाले आतंकी ट्रेनिंग कैंपों की ओर से क्यों आंखें मूंद रहे हैं? सवाल यह है कि हमें खतरा आईएस से ज्यादा है या अपनी बगल में चल रहे हथियार चलाने की टेÑनिंग देने वाले कैंपों से? मीडिया का एक वर्ग आईएसआईएस का ऐसा हौवा खड़ा करता है, जैसे बस उसका हमला भारत पर होने ही वाला है। दरअसल, मीडिया का एक वर्ग भी एक तरह से हिंदूवादी संगठनों में सांप्रदायिकता का जहर बोने के लिए आईएस हौवा खड़ा करता है। उन्हें वह सब कुछ करने पर उकसाता है, जो अयोध्या में सामने आया है। सच यह भी है कि मीडिया का एक वर्ग हिंदूवादी एजेंडे पर लगातार काम कर रहा है, जिसका मकसद हमेशा से ही रहा है कि धार्मिक धु्रवीकरण बना रहे, जिससे भाजपा को फायदा होता रहे। चुनाव के वक्त मीडिया का यह वर्ग कुछ ज्यादा ही सक्रिय हो जाता है। अब जब उत्तर प्रदेश चुनाव आने वाले हैं, तो हम देख सकते हैं कि राज्य में इस तरह की बातें सामने आएंगी, जो सांप्रदायिक वैमनस्य को बढ़ावा देंगी और भाजपा समर्थित मीडिया उन्हें नमक मिर्च लगाकर परोसेगा।