सलीम अख्तर सिद्दीकी
लोकसभा चुनाव के बाद राजनीतिक बियाबान में भटक रहे अजीत सिंह किसी ठौर की तलाश में हाथ-पांव मार रहे हैं। चंद दिन पहले खबरें थीं कि अजीत सिंह अपनी पार्टी लोकदल का भाजपा में विलय कर सकते हैं। कहा जाता है कि लोकदल के अधिकतर जाट नेताओं का मानना था कि अजीत सिंह को भाजपा के साथ जाना चाहिए। लेकिन लोकदल का भाजपा में विलय करने का मतलब था, अपना वजूद खो देने के साथ मुसलिम वोटों का छिटक जाना। लोकसभा चुनाव में जाटों ने नल का हत्था छोड़कर कमल का फूल पकड़ लिया था। नतीजा यह निकला कि न सिर्फ बागपत से अजीत सिंह से हारे, बल्कि मथुरा से उनके बेटे जयंत चौधरी का भी पत्ता साफ हो गया।
दरअसल, एक तो मुजफ्फरनगर दंगे ने जाट-मुसलिम समीकरण को तहस-नहस किया तो उधर नरेंद्र मोदी के तूफान में लोकदल के परखच्चे उड़ गए थे। अब जब उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव सिर पर हैं तो अजीत की चिंता है कि कैसे अपनी खोई हुई राजनीतिक जमीन हासिल की जाए? पहले वह जदयू के साथ जाना चाहते थे। लेकिन यह बात कोई भी समझने में नाकाम था कि बिहार तक सिमटी जदयू से मिलकर कैसे अजीत सिंह दोबारा अपना खोया जनाधार पा सकते हैं? अब फिलहाल खबरें हैं कि अजीत सिंह सपा से तालमेल करके विधानसभा चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं। अभी तालमेल पर मुहर नहीं लगी है, लेकिन सवाल उभर रहा है कि क्या अजीत सिंह और मुलायम सिंह यादव एक-दूसरे का सहारा बनेंगे? इस तालमेल पर मुजफ्फरनगर दंगे की छाया न पड़े, ऐसा संभव नहीं है। मुलायम सिंह यादव अगर समझते हैं कि अजीत सिंह से तालमेल करके सपा को जाटों के वोट मिल जाएंगे, तो शायद वे गलत समझ रहे हैं। इसी तरह अजीत सिंह को भी इस भुलावे से बचना होगा कि सपा का मुसलिम वोट लोकदल को मिल जाएगा। एक तल्ख हकीकत यह है कि भले ही लोकदल नेतृत्व भाजपा से बचना चाहता है, लेकिन जाट वोटर भाजपा के पक्ष में हैं। इस वक्त अजीत सिंह अपनी राजनीतिक कॅरियर की सबसे बड़ी दुविधा में फंसे हैं। मुजफ्फरनगर दंगे ने उनके राजनीतिक भविष्य पर ग्रहण लगा दिया है।
लोकसभा चुनाव के बाद राजनीतिक बियाबान में भटक रहे अजीत सिंह किसी ठौर की तलाश में हाथ-पांव मार रहे हैं। चंद दिन पहले खबरें थीं कि अजीत सिंह अपनी पार्टी लोकदल का भाजपा में विलय कर सकते हैं। कहा जाता है कि लोकदल के अधिकतर जाट नेताओं का मानना था कि अजीत सिंह को भाजपा के साथ जाना चाहिए। लेकिन लोकदल का भाजपा में विलय करने का मतलब था, अपना वजूद खो देने के साथ मुसलिम वोटों का छिटक जाना। लोकसभा चुनाव में जाटों ने नल का हत्था छोड़कर कमल का फूल पकड़ लिया था। नतीजा यह निकला कि न सिर्फ बागपत से अजीत सिंह से हारे, बल्कि मथुरा से उनके बेटे जयंत चौधरी का भी पत्ता साफ हो गया।
दरअसल, एक तो मुजफ्फरनगर दंगे ने जाट-मुसलिम समीकरण को तहस-नहस किया तो उधर नरेंद्र मोदी के तूफान में लोकदल के परखच्चे उड़ गए थे। अब जब उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव सिर पर हैं तो अजीत की चिंता है कि कैसे अपनी खोई हुई राजनीतिक जमीन हासिल की जाए? पहले वह जदयू के साथ जाना चाहते थे। लेकिन यह बात कोई भी समझने में नाकाम था कि बिहार तक सिमटी जदयू से मिलकर कैसे अजीत सिंह दोबारा अपना खोया जनाधार पा सकते हैं? अब फिलहाल खबरें हैं कि अजीत सिंह सपा से तालमेल करके विधानसभा चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं। अभी तालमेल पर मुहर नहीं लगी है, लेकिन सवाल उभर रहा है कि क्या अजीत सिंह और मुलायम सिंह यादव एक-दूसरे का सहारा बनेंगे? इस तालमेल पर मुजफ्फरनगर दंगे की छाया न पड़े, ऐसा संभव नहीं है। मुलायम सिंह यादव अगर समझते हैं कि अजीत सिंह से तालमेल करके सपा को जाटों के वोट मिल जाएंगे, तो शायद वे गलत समझ रहे हैं। इसी तरह अजीत सिंह को भी इस भुलावे से बचना होगा कि सपा का मुसलिम वोट लोकदल को मिल जाएगा। एक तल्ख हकीकत यह है कि भले ही लोकदल नेतृत्व भाजपा से बचना चाहता है, लेकिन जाट वोटर भाजपा के पक्ष में हैं। इस वक्त अजीत सिंह अपनी राजनीतिक कॅरियर की सबसे बड़ी दुविधा में फंसे हैं। मुजफ्फरनगर दंगे ने उनके राजनीतिक भविष्य पर ग्रहण लगा दिया है।
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