Tuesday, December 29, 2009

झूठ बोलते हैं शाहिद सिद्दीकी

सलीम अख्तर सिद्दीकी
शाहिद सिद्दीकी उर्दू साप्ताहिक 'नई दुनिया' के मालिक हैं। मालिक हैं तो खुद ही सम्पादक भी हैं। पक्के सैक्यूलर कहलाए जाते हैं। सैक्यूलर होने की मिसाल उन्होंने एक हिन्दू लड़की से शादी करके दी थी। लेकिन उनका अखबार कितना सैक्यूलर है, यह उसे पढ़कर अन्दाजा लगाया जा सकता है। बाबरी मस्जिद, अनुच्छेद 370, समान सिविल कोड, अमेरिका, ईरान, इराक, अफगानिस्तान और पाकिस्तान तक ही सिमटा यह अखबार उन लोगों का पसंदीदा अखबार है, जो बाहर झांक कर देखना नहीं चाहते हैं। इस अखबार को मुसलमानों का 'पांज्जन्य' कहा जा सकता है। लेकिन यह जरुरी नहीं है कि वे अपने अखबार में जो लिखते हैं, उससे वे सहमत भी हों। शाहिद सिद्दीकी साहब को सियासत का भी चस्का है, इसलिए पार्टी बदलने के साथ ही अखबार की पॉलिसी भी बदलती रहती है। जिस पार्टी में रहते हैं, अखबार को उस पार्टी का मुखपत्र बना दिया जाता है। आजकल न्यूज चैनलों पर एक मुस्लिम चेहरे के रुप में उनकी शिरकत अक्सर देखी जा सकती है। जिस पार्टी में होते हैं, उस पार्टी के पक्ष में बोलते हुए गला तक सुखा लेते हैं। जब वे सपा में थे तो एक न्यूज चैनल पर सपा के पक्ष में जम कर बोल रहे थे, लेकिन एक घंटे बाद दूसरे चैनल पर वे बहन मायावती के चरणों की वंदना करते नजर आए थे। हाल ही में एनडीटीवी के 'मुकाबला' में में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री द्वारा उत्तर प्रदेश को बांटने के प्रस्ताव की जमकर वकालत कर रहे थे, लेकिन पता नहीं फिर क्या हुआ, लगभग एक सप्ताह बाद ही खबर आ गयी कि शाहिद सिद्दीकी साहब को बसपा से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। शाहिद साहब ने बसपा के टिकट पर 2009 का लोकसभा का चुनाव लड़ा था। लेकिन चुनाव हार गए। बसपा से बाहर आने के लिए 'शहीद' होना जरुरी था इसलिए बहन जी की शान में शायद जानबूझकर गुस्ताखी की और 'शहीद' होकर बसपा से बाहर आ गए। 'तहलका' के ताजा अंक में उन्होंने कहा है कि मायवाती कहती थीं कि तुम्हारे मुसलमान गद्दार हैं, इसलिए उनसे बर्दाश्त नहीं हुआ। अब पता नहीं मायावती ने यह बात कही है या नहीं लेकिन इतना जरुर है कि शाहिद साहब ने यह तो सरासर झूठ बोला है कि उन्होंने पैसे देकर बसपा से लोकसभा का टिकट नहीं लिया था। वह एक पत्रकार हैं। इस बात को अच्छी तरह से समझ सकते हैं कि बसपा एक राजनैतिक पार्टी नहीं बल्कि एक 'दुकान' भर है। वहां पर सिर्फ और सिर्फ पैसे देकर ही टिकट खरीदा जाता है। शाहिद सिद्दीकी में सूर्खाब के पर नहीं लगे थे कि मायावती ने उन्हें बगैर पैसे लिए ही लोकसभा का चुनाव लड़वा दिया। सच तो यह है कि अगर वो चुनाव जीत जाते तो मायावती भले ही लाख बार कहतीं कि शाहिद तुम्हारे मुसलमान गद्दार हैं, शाहिद साहब खींसे निपोर कर रह जाते। न्यूज चैनलों पर जमकर मायावती और बसपा की पैरवी करते। उन्हें सबसे बड़ा सैक्यूलर बताते।
दरअसल, शाहिद सिद्दीकी जैसे लोग मुसलमानों को इमोशनल ब्लैकमेल करके अपनी रोजी-रोटी चलाते हैं। मुसलमानों की भलाई के लिए न तो उनके पास समय है और हमदर्दी। उनके दो चेहरे हैं, एक चेहरा वो है, जो न्यूज चैनलों और उनके अखबार में नजर आता है, दूसरा चेहरा अपने स्वार्थ का है। उनका मकसद किसी भी तरह से लोकसभा और राज्यसभा में जाने का रहता है। इसलिए सियासी पार्टियों को कमीज की तरह बदलते रहते हैं। अस्सी के दशक में जब बाबरी मस्जिद और राममंदिर का आंदोलन चल रहा था तो उनका अखबार बराबर यह लिखता आ रहा था कि बाबरी मस्जिद पर से किसी भी हालत में कब्जा नहीं छोड़ा जाएगा। बात मई 1988 की है। मैं 'नई दुनिया' के दफ्तर में अपनी एक रिपोर्ट 'दंगों के एक साल बाद मलियाना' देने गया था। रिपोर्ट को उन्होंने सरसरी पढ़ा और यह कहकर कि रिपोर्ट तो अच्छी लिखी है, अपने पास रख ली। वह रिपोर्ट 'नई दुनिया' प्रमुखता के साथ छपी थी। चाय पीने के दौरान बाबरी मस्जिद की चर्चा शुरु हो गयी। मैंने उनसे पूछा कि बाबरी मस्जिद समस्या का हल आपकी नजर में क्या हो सकता है। इस सवाल पर उन्होंने मुझसे कहा था कि मेरी अपनी राय तो यह है कि बाबरी मस्जिद हिन्दुओं को सौंप दी जाए और उसके एवज में मुसलामन अपने लिए और सुविधाएं ले लें। एक ऐसा कानून बनवा लें जिसके अनुसार आइन्दा किसी मस्जिद पर हिन्दू दावा नहीं कर सकें। उन्होंने साथ में कहा कि ये मेरा अपना ख्याल है, लेकिन इस ख्याल को मैं अपने अखबार में नहीं लिख सकता क्योंकि मुझे अपना अखबार चलाना है।

6 comments:

  1. बेहद दुखद है. ऐसे रंगे सियार मानवता के प्रति हमारी सहज उदारता का बेजा इस्तेमाल अपने व्यक्तिगत फायदे के लिए करते हैं. नाम कौम का और फायदा अपना. भरोसा शब्द तो जैसे बेमानी हो गया है.

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  2. दरअसल, शाहिद सिद्दीकी जैसे लोग मुसलमानों को इमोशनल ब्लैकमेल करके अपनी रोजी-रोटी चलाते हैं। मुसलमानों की भलाई के लिए न तो उनके पास समय है और हमदर्दी।
    आप के लेख से सहमत हुं, लेकिन हिन्दू या मुसलमानो की भलाई के लिये किसी के पास समय नही सब को अपनी अपनी वोट की चिंता है,

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  3. बहुत उम्दा और खरा लेख......

    मुसलमानों को और लोगों ने कम खुद मुसलमानों ने नुकसान पहुचाया है....आगरा में पुरे एशिया का सबसे बडा कब्रिस्तान था....मुस्लमान उसे बेच-बेच कर खा गये....उस कब्रिस्तान की ज़मीन पर पुरी नार्थ ईदगाह कालोनी, पुलिस लाईन, फ़ायर बिग्रेड का आगरा हेडक्वाटर, शिक्षा विभाग का आफ़िस, एस.एन. मेडिकल कालेज़ का हास्टल, होलमेन पब्लिक स्कुल की तीन शाखाये और एक चर्च बना है.......

    अब आलम ये है कि दफ़नाने के लिये जगह कम पडने लगी है.......


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  4. सलीम भाई,शाहिद सिद्दीक़ी का हाल अब धोबी के कुत्ते जैसा हो गया है,जिससे फायेदा दिखा लगे उसके तलुवे चाटने. इन जैसे लोगो ने मुसलमानो का जितना नुक़सान किया है उतना तो शायद संघ ने भी नही किया ? बस अब रहने दें, ज़्यादा कुछ कहेंगे तो इनके भाइयो को बुरा लग जाएगा, हमारे मामू ने तो नई दुनिया अख़बार ही पढ़ना छोड़ दिया है बस लानत भेज रहे है शाहिद, मुख़्तार, शाहनवाज़ जैसो पर... और भी नाम हैं. लानत भेजो इन कम्बख़्तो पर

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  5. इस घर को आग लग गयी घर के चिराग से!

    शाहिद सिदिकी को मैं भी जानता हूँ.नयी ज़मीन के लिए मैं ने भी खून-जिगर एक किया था कभी! दो चेहरे अज़ीज़ बर्नी के भी हैं जनाब!

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