Friday, January 1, 2010
नया साल मतलब सुर, सुरा और सुन्दरी
सलीम अख्तर सिद्दीकी
पूरे हिन्दुस्तान का आंकड़ा तो मुझे मालूम नहीं, लेकिन 1 जनवरी के मेरठ के समाचार-पत्रों में खबर छपी है कि मेरठवासी नए साल का स्वागत करने के लिए एक करोड़ की शराब गटक गए हैं। होटलों में सुर के साथ सुरा की नदियां बहायी गयीं और सुन्दरियों के साथ नाचते-गाते हुए नए साल का स्वागत किया गया। मुझे आज तक यह समझ नहीं आया कि नए साल में ऐसी क्या बात है कि एक वर्ग दीवानावार होकर नाचता-गाता है ? मेरा तो यह मानना रहा है कि प्रत्येक सेकिण्ड, मिनट, घंटे, दिन, सप्ताह और महीने की तरह ही नया साल भी समय की एक ईकाई भर है। चलिए मान लेते हैं कि पूरा साल होना अपने आप में एक अनोखी घटना है तो क्या नए साल का स्वागत सुर, सुरा और सुन्दरी के बगैर पूरा नहीं किया जा सकता ? गुजरा 2009 एक मायने में अच्छा कहा जा सकता है कि इस साल देश में कोई भी आतंकवादी हमला नहीं हुआ। लेकिन दूसरे मायने में इसे बहुत बुरा भी कहा जा सकता है। 2009 में महंगाई ने गरीबों के मुंह से रोटी का निवाला छीन लिया है। महंगाई का यह हमला किसी आतंकवादी हमले से कम नहीं है। 2010 में भी यह उम्मीद नजर नहीं आती कि सुरसा की तरह फैलता जा रहा मंहगाई का मुंह बंद हो जाएगा। ऐसे में जब देश की अधिकतर आबादी दो जून की रोटी की तरस रही हो तो कुछ सम्पन्न लोगों का करोड़ों रुपए की शराब गटक जाना एक त्रासदी ही कही जाएगी। सच यह भी है कि नए साल पर पैसे उड़ाने वाला वही वर्ग है, जो भ्रष्टाचारी, जमाखोर और मुनाफाखोर है। ये लोग अपनी हरकतों से गरीब लोगों के जख्मों पर नमक छिड़कने का काम करते हैं। एक गरीब और मजदूर आदमी के लिए नए साल का पहला दिन तमाम दिनों की तरह ही आता है। उसे मजदूरी करनी है। रिक्शा खींचना है। वह नए साल की खुमारी में डूब गया तो बच्चों के लिए रोटी कहां से लाएगा।
अखबारों में यह तो छपा है कि होटलों में युवतियों ने जमकर धमाल मचाया। युवतियों के आकर्षक फोटो पहले पन्नों पर छपे हैं। अखबारों में ऐसी कोई खबर भी ढूंढे से नहीं मिली, जिसमें यह कहा गया हो कि नए साल के उपलक्ष्य में सबसे निचले तबके की भलाई लिए सरकारी या गैरसरकारी स्तर पर कोई कार्यक्रम किया गया हो। अखबारों को भी यह मुराद नहीं आयी कि वे बाहर निकलकर यह देख लेते कि इस कड़ाके की सर्दी में कितने बेघर लोग अखबार लपेटकर सर्दी से लड़ने की कोशिश कर रहे थे। अखबार ऐसा करें भी क्यों। अब अखबारों का मानना है कि अखबारों के रंगीन पन्नों पर गुरबत अच्छी नहीं लगती। एक तथ्य से अवगत करा दूं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शराब के ठेकों पर शराब की बोतलों पर अधिकतम खुदरा मुल्य से पांच से चालीस रुपए अधिक वसूले जा रहे हैं। यदि अखबारों का यह दावा सही है कि 31 दिसम्बर को मेरठ में ही एक करोड़ की शराब बिकी है तो शराब माफियाओं ने लगभग 10 से 15 करोड़ रुपए की अवैध वसूली एक दिन में ही कर डाली है। यह सब उस सरकार की नाक नीचे हो रहा है, जो अपने को गरीबों का हमदर्द कहते नहीं थकती है।
अन्त में गरीबी की रेखा से नीचे जी रहे उन सैंतीस प्रतिशत भारतीय लोगों के लिए इतना ही कह सकता हूं कि 'नए साल में खुदा उन्हें महंगाई से महफूज रखे।' आमीन !
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भाई आप तो विवादित ही लिखों।
ReplyDeleteसलीम भाई , महगाई, बेरोज़गारी, अशिक्षा, भ्रष्टाचार,मंदिर मस्जिद, आतंकवाद ये सारे मुद्दे तो ग़रीब के लिए है. अमीरो को तो खुशिया मनाने के बहाने चाहिए, न्यू इयर ,वॅलिंटाइन डे वगेरा वगेरा. तो मनाने दीजिए इनको नया साल अब ये मत कहिएगा कि इनको हमारी फ़िक्र नही है ग्लोबल वार्मिंग........ को लेकर ये लोग फाइव स्टार मैं मीटिंग करते हुए आपको मिल जाएँगे.
ReplyDeleteउन्हे ज़िंदगी के उजाले मुबारक
इस नये साल पर में अपनी एक कविता भेंट कर रहा हूं, अगर अच्छी लगे तो बताना मत भूलिये-
ReplyDeleteशाम वही थी सुबह वही है नया नया क्या है
दीवारों पर बस कलैंडर बदला बदला है
उजड़ी गली, उबलती नाली, कच्चे कच्चे घर
कितना हुआ विकास लिखा है सिर्फ पोस्टर पर
पोखर नायक के चरित्र सा गंदला गंदला है
दीवारों पर बस कलैंडर बदला बदला है
दुनिया वही, वही दुनिया की है दुनियादारी
सुखदुख वही, वही जीवन की, है मारामारी
लूटपाट, चोरी मक्कारी धोखा घपला है
दीवारों पर बस कलैंडर बदला बदला है
शाम खुशी लाया खरीदकर ओढ ओढ कर जी
किंतु सुबह ने शबनम सी चादर समेट रख दी
सजा प्लास्टिक के फूलों से हर इक गमला है
दीवारों पर बस कलैंडर बदला बदला है
वीरेंद्र जैन
9425674629
भोपाल्