Wednesday, November 25, 2015

भारत धर्मनिरपेक्ष था, है ओर रहेगा

सलीम अख्तर सिद्दीकी
हिंदुस्तान की मिट्टी यह खासियत है कि तमाम झंझावतों के बावजूद धर्मनिरपेक्षता का ताना-बाना टूटता नहीं है, बल्कि और मजबूत होता है। चाहे 1984 के सिख विरोधी दंगे हों या राममंदिर-बाबरी मसजिद का खूरेंज मसला हो। इस झंझावतों से देश न सिर्फ निकला, बल्कि सांप्रदायिक तत्वों को मुंह की खानी पड़ी। सत्ता प्रतिष्ठान द्वारा फैलाई गई असहिष्णुता बहुत खतरनाक होती है। यह हम कांग्रेस शासनकाल में सिखों के विरुद्ध की गई ज्यादतियों में देख सकते हैं। वे दिन हम भूले नहीं हैं, जब हर सिख पर आतंकवादी होने का ठप्पा लगा दिया गया था। किसी बस का कंडक्टर बस में निगाह डालकर जोर से बोलता था, बस में कोई आतंकवादी (सिख) तो नहीं है? कोई सिख यात्रा कर रहा होता था, तो कंडक्टर उसे बस से उतार देता था। ऐसा करने वाले वही लोग थे, जो आज हर मुसलमान को आतंकवादी बताने पर तुले हैं। सिखों को जलील करने का कोई मौका नहीं गंवाया जाता था। जब हम सिखों पर होने वाली ज्यादतियों का विरोध करते हुए अखबारों में संपादक के नाम पत्र लिखते थे, उनका विरोध ऐसे ही होतो था, जैसे आज असहिष्णुता का विरोध करने पर होता है। घर के पते पर सैकड़ों की तादाद में गाली भरे खत आते थे। 1984 का दौर नहीं रहा, राम मंदिर के नाम पर देश को खून में नहलाने वाले दर-बदर हो चुके हैं। आज उन्हें अपने ही लोगों के हाथों अपमान झेलना पड़ रहा है। देश का मौजूदा असहिष्णुता का माहौल भी अपवाद नहीं रहेगा। असहिष्णुता और नफरत फैलाने वाले लोग बर्फ में लगने शुरू हो चुके हैं। दिल्ली, बिहार और रतलाम ने संकेत दे दिए हैं। भारत धर्मनिरपेक्ष था, है और रहेगा। हार सांप्रदायिकत ताकतों की ही होगी, हमेशा की तरह।

Friday, November 20, 2015

झूठे और फरेबी पश्चिमी देश

सलीम अख्तर सिद्दीकी
कहा गया था कि सद्दाम हुसैन के जाने से इराक में शांति आ जाएगी। वहां लोकतंत्र आ जाएगा। ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर मान चुके हैं कि इराक पर झूठ और फरेब की कहानियों के आधार पर हमला किया गया था। वे रासायनिक हथियार आज तक नहीं मिले सके, जिनका इराक में होने का दावा किया गया था। रासायनिक हथियारों का झूठ तो पहले ही सामने आ चुका था। सद्दाम हुसैन के जाने के बाद इराक में न शांति हो सकी और न ही वहां लोकतंत्र आ सका। हां, इतना जरूर हुआ कि अलकायदा और आईएस जैसे खूंखार संगठन जरूर वजूद में आ गए। अब बराक ओबामा कह रहे हैं कि सीरिया में असद सरकार जाने के बाद गृहयुद्ध खत्म हो जाएगा। वे बताएं कि कैसे गृहयुद्ध खत्म हो जाएगा? क्या वे असद के हटने के बाद शांति होने की गारंटी लेने के लिए तैयार हैं? पश्चिमी देशों की धूर्तता देखिए कि उन्होंने सीरिया में शिया-सुन्नी कार्ड खेला है। कुछ देश शिया सरकार के साथ हैं, तो कुछ तथाकथित सुन्नी संगठन आईएस के साथ। वैसे ये देश अपीलें करते हैं शांति की, लोकतंत्र की। नसीहत देते हैं दूसरों को सद्भाव बनाए रखने की। बदकिस्मती यह कि भारत में महमूद मदनी सरीखे लोग उनके बहकावे में आकर अपने आप को एक पार्टी बना लेते हैं। एहसास-ए-कमतरी में आकर उनका विरोध करने निकल पड़ते हैं, जिनका हमारे से कहीं से कहीं तक भी संबंध नहीं है। दूसरों की पैदा की गई गंदगी को खुद साफ करने निकल पड़ते हैं।

Thursday, November 19, 2015

आप सुन रहे हैं ना महमूद मदनी साहब?

सलीम अख्तर सिद्दीकी
महमूद मदनी साहब, अपना घर, अपना शहर, अपना देश सभी को (बॉबी जिंदल जैसे अपवाद हैं) प्यारा होता है। इसे बार-बार दोहराने की जरूरत क्या है? इसे भी बार-बार दोहराया जा चुका है कि इसलाम का आतंकवाद से कोई संबंध नहीं है। किसी ने यह भी नया नहीं कहा है कि ह्यजिसने एक बेकसूर का भी कत्ल किया, समझो उसने पूरी इंसानियत का कत्ल किया।ह्ण जरूरी नहीं कि इस बात को सभी समझ सकें। चोरी, बलात्कार, हत्या आदि अपराध हैं, इसे हर धर्म कहता है। सभी देशों में इसके लिए कठोर कानून हैं। लेकिन ये रुकते नहीं। इसका मतलब यह तो नहीं कि धर्म की शिक्षाओं में कोई कमी है। कानून अपना काम नहीं कर रहा है। आतंकवाद भी ऐसा ही अपराध है, जिसमें चंद सौ या चंद हजार लोग ही शामिल होंगे, लेकिन आतंकवाद का जिक्र आते ही एक पूरी कम्युनिटी को जिम्मेदार मान लिया जाता है।
आतंकवाद क्यों फैल रहा है, इस पर भी थोड़ा मंथन करने की जरूरत है। क्यों कुछ लोग जान लेने और देने पर आमादा हो गए हैं, इस पर भी सोचना चाहिए।
दुनिया आतंकवाद की चपेट में ऐसे ही नहीं आई है। इसके कुछ कारण हैं, जिन्हें कुछ लोग जानबूझकर नजरअंदाज करते हैं, जिससे अपनी सुविधानुसार एक समुदाय को कठघरे में खड़ा कर सकें। आतंकवाद को धर्म का चश्मा उतारकर सत्ता हथियाने और दुनिया पर अपनी दादागिरी चलाने के नजरिए से भी देखना चाहिए। कौन दुनिया पर दादागिरी चला रहा है, इसे सभी समझते हैं। लेकिन जानबूझकर आंखें बंद किए हुए हैं। हैरत इस बात पर है कि महमूद मदनी जैसे लोग भी समझने लगते हैं कि आतंकवाद के लिए मुसलमान जिम्मेदार हैं।
अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा का मानना है कि सीरिया का गृहयुद्ध तब तक खत्म नहीं होगा, जब तक बशर अल असद सत्ता नहीं छोड़ देते। उधर, रूस सीरिया में अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए असद को सत्ता से बेदखल किए जाने का कड़ा विरोध करता है। दुनिया की दो महाशक्तियां के घालमेल से पैदा हुआ है आईएसआईएस जैसा शैतान संगठन। आईएसआईएस समस्या है अरब और पश्चिमी देशों की, लेकिन उसका विरोध करें भारतीय मुसलमान! ऐसा क्यों होना चाहिए? आईएसआईएस को शैतान बनाएं पश्चिमी देश, डराया जाए भारतीय मुसलमानों को! क्या भारतीय मुसलमानों का गुनाह यह है कि वे उस धर्म से ताल्लुक रखते हैं, जिससे तालिबान, अलकायदा या आईएसआईएस रखने का दावा करते हैं?
आईएसआईएस के खिलाफ सबसे पहले फतवा किसने दिया था? भारतीय मुसलमानों ने दिया था। भारतीय मुसलमान आतंकवाद के खिलाफ एक बार नहीं, कई बार फतवे दे चुके हैं। और क्या चाहिए? अब तो शायद यही कसर रह गई है कि भारतीय मुसलमान हथियार लेकर आईएसआईएस से लड़ने सीरिया या इराक चले जाएं।

Tuesday, November 10, 2015

संघ प्रमुख ने रखी भाजपा की हार की बुनियाद


सलीम अख्तर सिद्दीकी
किसी राज्य के चुनाव नतीजों को लेकर इतनी उत्सुकता कभी नहीं रही, जितनी इस साल फरवरी में हुए दिल्ली विधानसभा चुनाव को  लेकर रही थी और और अब बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर रही है। दिल्ली चुनाव केंद्र में भाजपा के प्रचंड बहुमत से सत्ता में आने के नौ महीने बाद चुनाव हुए थे। माना जा रहा था कि यह चुनाव भाजपा आसानी से जीत लेगी, क्योंकि मोदी के विकास मॉडल का खुमार बाकी माना जा रहा था, लेकिन दिल्ली ने भाजपा की खुमारी उतारने की जो शुरुआत की थी, वह बिहार में भी जारी रही। बिहार ने साबित किया कि जनता सब कुछ सह सकती है, लेकिन सांप्रदायिकता और देश को बांटने वाली नीति नहीं सह सकती। इस चुनाव में भाजपा की ओर से उठाए गए कुछ मुद्दे पार्टी पर ही भारी पड़ गए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 25 जुलाई को मुजफ्फरपुर में परिवर्तन रैली में कहा था कि नीतीश कुमार के राजनीतिक डीएनए में ही खराबी है। जिस तरह से नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनाव के दौरान सोनिया गांधी के नीच राजनीति वाले बयान को जाति से जोड़ दिया था, उसी तरह नीतीश ने डीएनए वाले मोदी के बयान को बिहार की अस्मिता से जोड़कर मोदी पर जबरदस्त प्रहार किए। नतीजे बताते हैं कि डीएनए वाला मुद्दा भाजपा और उससे ज्यादा मोदी पर भारी पड़ा।
वैसे बिहार में भाजपा गठबंधन की हार की बुनियाद संघ प्रमुख मोहन भागवत के 21 सितंबर को दिए गए उस बयान ने रख दी थी, जिसमें उन्होंने आरक्षण की समीक्षा किए जाने की बात कही थी। लालू प्रसाद यादव ने उसे लपक किया। मामले की नजाकत देखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आखिर-आखिर तक अपनी चुनावी रैलियों में यह आश्वासन दिया कि आरक्षण में बदलाव नहीं किया जा सकता। लेकिन वे महादलितों, दलितों और पिछड़ों में विश्वास नहीं जगा सके। तीनों ने भाजपा के विरुद्ध वोट दिया। आरक्षण मुद्दे पर घिरती भाजपा को जब कुछ नहीं सूझा तो उत्तर प्रदेश के दादरी मे गोमांस रखने के शक में अखलाक की पीट-पीटकर हत्या किए जाने के बाद उठे बीफ या गोमांस के मुद्दे को वह बिहार में ले गई। उसकी सोच थी कि गोमांस जैसे भावनात्मक मुद्दे के आधार पर हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण अपने पक्ष में कर सकती है, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। गोमांस मुद्दे को भी वोटरों ने नकार दिया। दरअसल, भाजपा अभी तक ‘मोदी मैजिक’ के मोह से बाहर नहीं निकली है। हालांकि उसे दिल्ली में मिली करारी शिकस्त के बाद ही समझ जाना चाहिए था कि मोदी का चेहरा लोकसभा चुनाव में तो ठीक था, लेकिन राज्य के चुनावों में उसी राज्य का चेहरा सामने होना चाहिए, जिसे उसमें मुख्यमंत्री बनना हो। बिहार में वह कोई ऐसा चेहरा पेश नहीं कर पाई, जिसे सामने करके चुनाव लड़ा जा सके। सच तो यह है कि बिहार में नीतीश के सामने लायक भाजपा के पास ऐसा कोई चेहरा था भी नहीं। महागठबंधन ने भाजपा का इस कमजोरी का फायदा उठाया और नीतीश ने ‘बिहारी बनाम बाहरी’ को चुनावी मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ा।
भाजपा इस गफलत में भी रही कि ‘मोदी मैजिक’ के सामने महंगाई कोई मुद्दा नहीं है। लेकिन ऐसा नहीं था। लगातार महंगाई बढ़ती बिहार में भी मुद्दा बनी, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। भाजपा यह भूल गई कि बिहार जैसे राज्य में जहां की लगभग पचास प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से नीचे जिंदगी गुजारती है, उसके लिए 200 रुपये किलो दाल खरीदना कितना दुष्कर रहा होगा। पांचवा चरण आते-आते तो सरसों के तेल के साथ अन्य खाद्य तेलों में भी आग लग गई।
दिल्ली की तरह बिहार में भी दूसरे राज्य के कार्यकर्ताओं को स्थानीय कार्यकर्ताओं के सिर पर लाकर बिठा दिया गया। हद यह कि शत्रुघ्न सिन्हा जैसे बिहारी नेता को हाशिए पर डाल दिया गया। शत्रुघ्न सिन्हा ने तो बार-बार अपनी पीड़ा ट्विट के जरिए जाहिर भी की, लेकिन उनकी पीड़ा को नजरअंदाज किया गया। नतीजा यह हुआ कि भाजपा नेता हुए भी वह एक तरह से नीतीश के खेमे में चले गए। अपनी अनदेखी और बाहरी कार्यकर्ताओं के हस्तक्षेप की वजह से स्थानीय कार्यकर्ता एक तरह से घर बैठ गए। चुनाव से ठीक एक दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिहार के लिए एक लाख पच्चीस हजार करोड़ रुपये का पैकेज देने का ऐलान किया था। भाजपा ने इसे एक तरह से अपना ‘मास्टर स्ट्रोक’ माना था। भाजपा के रणनीतिकार मानकर चल रहे थे कि विकास के नाम पर इतना बड़ा पैकेज बिहार के लोगों को आकर्षित करेगा ही और वे भाजपा की झोली वोटों से भर देंगे। लेकिन ऐसा भी नहीं हुआ। अब सवाल खड़ा हो गया है कि क्या अब केंद्र सरकार बिहार को वह स्पेशल पैकेज देगी या नहीं? अगर वह पैकेज नहीं देती है, तो मोदी सरकार की विश्वसनीयता संदिग्ध हो जाएगी। इसलिए संभव है कि मोदी सरकार ‘अमानत में ख्यानत’ नहीं करेगी। भाजपा बिहार चुनाव परिणामों से यह भी सबक ले कि देश में बढ़ती असहिष्णुता ने भी बिहार के चुनाव में असर डाला है। विद्रूप यह रहा कि भाजपा के बयानवीर नेता एक से एक भड़काऊ बयान जारी करते रहे और प्रधानमंत्री मोदी मौन धारण किए रहे। हद यह हो गई थी कि बढ़ती असहिष्णुता का विरोध करने वालों को राष्ट्र विरोधी करार दिया गया। उम्मीद की जानी चाहिए कि भाजपा बिहार के नतीजों से कुछ सबक लेगी।