Tuesday, November 10, 2015

संघ प्रमुख ने रखी भाजपा की हार की बुनियाद


सलीम अख्तर सिद्दीकी
किसी राज्य के चुनाव नतीजों को लेकर इतनी उत्सुकता कभी नहीं रही, जितनी इस साल फरवरी में हुए दिल्ली विधानसभा चुनाव को  लेकर रही थी और और अब बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर रही है। दिल्ली चुनाव केंद्र में भाजपा के प्रचंड बहुमत से सत्ता में आने के नौ महीने बाद चुनाव हुए थे। माना जा रहा था कि यह चुनाव भाजपा आसानी से जीत लेगी, क्योंकि मोदी के विकास मॉडल का खुमार बाकी माना जा रहा था, लेकिन दिल्ली ने भाजपा की खुमारी उतारने की जो शुरुआत की थी, वह बिहार में भी जारी रही। बिहार ने साबित किया कि जनता सब कुछ सह सकती है, लेकिन सांप्रदायिकता और देश को बांटने वाली नीति नहीं सह सकती। इस चुनाव में भाजपा की ओर से उठाए गए कुछ मुद्दे पार्टी पर ही भारी पड़ गए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 25 जुलाई को मुजफ्फरपुर में परिवर्तन रैली में कहा था कि नीतीश कुमार के राजनीतिक डीएनए में ही खराबी है। जिस तरह से नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनाव के दौरान सोनिया गांधी के नीच राजनीति वाले बयान को जाति से जोड़ दिया था, उसी तरह नीतीश ने डीएनए वाले मोदी के बयान को बिहार की अस्मिता से जोड़कर मोदी पर जबरदस्त प्रहार किए। नतीजे बताते हैं कि डीएनए वाला मुद्दा भाजपा और उससे ज्यादा मोदी पर भारी पड़ा।
वैसे बिहार में भाजपा गठबंधन की हार की बुनियाद संघ प्रमुख मोहन भागवत के 21 सितंबर को दिए गए उस बयान ने रख दी थी, जिसमें उन्होंने आरक्षण की समीक्षा किए जाने की बात कही थी। लालू प्रसाद यादव ने उसे लपक किया। मामले की नजाकत देखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आखिर-आखिर तक अपनी चुनावी रैलियों में यह आश्वासन दिया कि आरक्षण में बदलाव नहीं किया जा सकता। लेकिन वे महादलितों, दलितों और पिछड़ों में विश्वास नहीं जगा सके। तीनों ने भाजपा के विरुद्ध वोट दिया। आरक्षण मुद्दे पर घिरती भाजपा को जब कुछ नहीं सूझा तो उत्तर प्रदेश के दादरी मे गोमांस रखने के शक में अखलाक की पीट-पीटकर हत्या किए जाने के बाद उठे बीफ या गोमांस के मुद्दे को वह बिहार में ले गई। उसकी सोच थी कि गोमांस जैसे भावनात्मक मुद्दे के आधार पर हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण अपने पक्ष में कर सकती है, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। गोमांस मुद्दे को भी वोटरों ने नकार दिया। दरअसल, भाजपा अभी तक ‘मोदी मैजिक’ के मोह से बाहर नहीं निकली है। हालांकि उसे दिल्ली में मिली करारी शिकस्त के बाद ही समझ जाना चाहिए था कि मोदी का चेहरा लोकसभा चुनाव में तो ठीक था, लेकिन राज्य के चुनावों में उसी राज्य का चेहरा सामने होना चाहिए, जिसे उसमें मुख्यमंत्री बनना हो। बिहार में वह कोई ऐसा चेहरा पेश नहीं कर पाई, जिसे सामने करके चुनाव लड़ा जा सके। सच तो यह है कि बिहार में नीतीश के सामने लायक भाजपा के पास ऐसा कोई चेहरा था भी नहीं। महागठबंधन ने भाजपा का इस कमजोरी का फायदा उठाया और नीतीश ने ‘बिहारी बनाम बाहरी’ को चुनावी मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ा।
भाजपा इस गफलत में भी रही कि ‘मोदी मैजिक’ के सामने महंगाई कोई मुद्दा नहीं है। लेकिन ऐसा नहीं था। लगातार महंगाई बढ़ती बिहार में भी मुद्दा बनी, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। भाजपा यह भूल गई कि बिहार जैसे राज्य में जहां की लगभग पचास प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से नीचे जिंदगी गुजारती है, उसके लिए 200 रुपये किलो दाल खरीदना कितना दुष्कर रहा होगा। पांचवा चरण आते-आते तो सरसों के तेल के साथ अन्य खाद्य तेलों में भी आग लग गई।
दिल्ली की तरह बिहार में भी दूसरे राज्य के कार्यकर्ताओं को स्थानीय कार्यकर्ताओं के सिर पर लाकर बिठा दिया गया। हद यह कि शत्रुघ्न सिन्हा जैसे बिहारी नेता को हाशिए पर डाल दिया गया। शत्रुघ्न सिन्हा ने तो बार-बार अपनी पीड़ा ट्विट के जरिए जाहिर भी की, लेकिन उनकी पीड़ा को नजरअंदाज किया गया। नतीजा यह हुआ कि भाजपा नेता हुए भी वह एक तरह से नीतीश के खेमे में चले गए। अपनी अनदेखी और बाहरी कार्यकर्ताओं के हस्तक्षेप की वजह से स्थानीय कार्यकर्ता एक तरह से घर बैठ गए। चुनाव से ठीक एक दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिहार के लिए एक लाख पच्चीस हजार करोड़ रुपये का पैकेज देने का ऐलान किया था। भाजपा ने इसे एक तरह से अपना ‘मास्टर स्ट्रोक’ माना था। भाजपा के रणनीतिकार मानकर चल रहे थे कि विकास के नाम पर इतना बड़ा पैकेज बिहार के लोगों को आकर्षित करेगा ही और वे भाजपा की झोली वोटों से भर देंगे। लेकिन ऐसा भी नहीं हुआ। अब सवाल खड़ा हो गया है कि क्या अब केंद्र सरकार बिहार को वह स्पेशल पैकेज देगी या नहीं? अगर वह पैकेज नहीं देती है, तो मोदी सरकार की विश्वसनीयता संदिग्ध हो जाएगी। इसलिए संभव है कि मोदी सरकार ‘अमानत में ख्यानत’ नहीं करेगी। भाजपा बिहार चुनाव परिणामों से यह भी सबक ले कि देश में बढ़ती असहिष्णुता ने भी बिहार के चुनाव में असर डाला है। विद्रूप यह रहा कि भाजपा के बयानवीर नेता एक से एक भड़काऊ बयान जारी करते रहे और प्रधानमंत्री मोदी मौन धारण किए रहे। हद यह हो गई थी कि बढ़ती असहिष्णुता का विरोध करने वालों को राष्ट्र विरोधी करार दिया गया। उम्मीद की जानी चाहिए कि भाजपा बिहार के नतीजों से कुछ सबक लेगी।

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