Thursday, May 19, 2016

कांग्रेस को एयूडीएफ से गठबंधन न करना महंगा पड़ा

सलीम अख्तर सिद्दीकी
दो साल बाद भारतीय जनता पार्टी को असम में खुशी मिली है। उसका खुश होना जायज है। दिल्ली और बिहार की हार के बाद वह सकते में थी। इस खुशी में वह भूल रही है कि 2014 के मुकाबले उसका वोट प्रतिशत कम हुआ है। असम में 2104 के लोकसभा चुनाव में उसका मत प्रतिशत 36.5 प्रतिशत था, लेकिन हालिया विधानसभा चुनाव में घटकर 30.1 प्रतिशत रह गया है। इसी तरह केरला में 2014 के 10.33 से घटकर 10.7 प्रतिशत, तमिलनाडु में 5.56 के मुकाबले 2.7 प्रतिशत और पश्चिम बंगाल में 16.8 से घटकर 10.3 प्रतिशत रह गया है। हां, उसने केरल में एक सीट के साथ अपना खाता खोला है, तो पश्चिम बंगाल में तीन सीटों पर विजयी रही है।
यह बहुत शोर मचाया जा रहा है कि मोदी सरकार की नीतियों की वजह से देश में अच्छे दिन आ गए हैं। गरीबों के लिए जो योजनाएं चलाई गई हैं, उनका फायदा उन तक पहुंच रहा है। सवाल यह है कि वह फायदा असम को छोड़कर शेष चार राज्यों के लोगों तक क्या नहीं पहुंचा, जो उसे वहां जबरदस्त मुंह की खानी पड़ी है। यह भी जरूरी नहीं है कि असम की जनता ने मोदी सरकार की नीतियों से खुश होकर भाजपा को वोट दिया है। सच तो यह है कि 15 साल से चल रही कांग्रेस राज को जनता बदलना चाहती थी। विकल्प के रूप में उसके सामने भाजपा थी, इसलिए उसे आजमाने का फैसला किया गया। वैसे भी असम में भाजपा ने बंगलादेशियों की अवैध घुसपैठ का मुद्दा उठाकर वहां धार्मिक ध्रुवीकरण किया, जिसमें वह कामयाब रही। उधर, कांग्रेस को एयूडीएफ से गठबंधन न  करना भी महंगा पड़ा। मुसलिम वोट कांग्रेस और एयूडीएफ में बंटे, जिसका सीधा-सीधा फायदा भाजपा को मिला।
बावजूद इसके सच यह है कि असम में पहली बार भाजपा की सरकार का आना उसके लिए बड़ी उपलब्धि है। अब ेदेखना यह है कि उसने बंगलादेशी घुसपैठियों को बाहर निकालने का जो वायदा असम की जनता से किया है, उसे वह कितना पूरा कर पाती है? यह नहीं भूलना चाहिए कि भाजपा वादे तो करती है, लेकिन उन्हें पूरा नहीं करती। बंगलादेशी घुसपैठियों को निकालना बहुत आसान नहीं है। अब डर इस बात का है कि असम की जीत से उत्साहित भाजपा के वे नेता जो अनाप-शनाप बयान देते हैं, एक बार फिर बाहर निकल सकते हैं, जिससे देश का सांप्रदायिक माहौल गरम हो सकता है। 

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