सलीम अख्तर सिद्दीकी
जब वह न हो पाए, जिसका वादा किया था, तो खीज स्वाभाविक है। असफलता की खीज मोदी सरकार के मंत्रियों के बयानों से साफ झलक रही है। भाजपा के राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने आरबीआई के गवर्नर रघुराम राजन पर निशाना साधते हुए कहा है कि उसने देश की अर्थव्यवस्था को रसातल में मिला दिया है। राजन को हटाकर शिकागो भेज देना चाहिए। स्वामी का मानना है कि राजन की नीतियों से देश में बेरोजगारी बढ़ रही है। सवाल यह है कि वित्त मंत्री रघुराम राजन हैं या अरुण जेटली? नीतियां कौन बनाता है? केंद्र सरकार ही न? फिर अर्थव्यवस्था के रसातल में जाने का जिम्मेदार कौन है? क्या केंद्र सरकार अपनी असफलता ठीकरा राजन पर फोड़ना चाहती है? राजन तो कई बार अपरोक्ष रूप से सरकार को चेता चुके हैं कि जो आर्थिक नीतियां बनाई जा रही हैं, वे देशहित में नहीं हैं। स्वामी का बयान उस वक्त आया है, जब आंकड़े कह रहे हैं कि देश में महंगाई बढ़ी है और देश का औद्योगिक उत्पादन खतरनाक हद तक घट चुका है। हैरत की बात यह है कि सरकार इससे अनजान रही।
उधर, अदालत का उत्तराखंड मामले पर बोल्ड कदम उठाना और सूखे पर केंद्र सरकार को आड़े हाथों लेना भी केंद्र सरकार को नागवार गुजरा है। वित्त मंत्री अरुण जेटली कहते हैं कि न्यायपालिका का कार्यपालिका और विधायिका में दखल बढ़ना लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। अरुण जेटली यह क्यों नहीं समझते कि जब सरकारें अपने कर्तव्य से विमुख होकर सिर्फ राजनीति में लगी रहेंगी और जनता परेशान होगी तो अदालत को सामने आना ही होगा। अगर सरकारों पर अदालतों का अंकुश न हो तो वे बेलगाम होकर तानाशाह सरीखा काम करने लगेंगी। केंद्र की मोदी सरकार चाहती है कि वह निरंकुश होकर काम करे। वह जो करे, उसे सब सिर झुकाकर स्वीकार कर लें। सच तो यह है कि जो हवाई वादे करके सरकार सत्ता में आई थी, उनमें से एक भी वादा आज तक पूरा नहीं हो सका है। असफलता की खीज प्रधानमंत्री मोदी से लेकर उसके मंत्रियों पर हावी हो चुकी है। पीएम मोदी केरल की तुलना सोमालिया से कर बैठते हैं, जिसका दुनिया भर में उनका मजाक उड़ता है। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज लीबिया में फंसे केरल के लोगों को निकालने का एहसान जताते हुए कहती हैं कि उनका खर्च हमने वहन किया। इससे कम अक्ली की बात क्या होगी कि एक विदेश मंत्री इतना भी नहीं जानतीं कि जो पैसा खर्च हुआ, वह जनता का है।
जब वह न हो पाए, जिसका वादा किया था, तो खीज स्वाभाविक है। असफलता की खीज मोदी सरकार के मंत्रियों के बयानों से साफ झलक रही है। भाजपा के राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने आरबीआई के गवर्नर रघुराम राजन पर निशाना साधते हुए कहा है कि उसने देश की अर्थव्यवस्था को रसातल में मिला दिया है। राजन को हटाकर शिकागो भेज देना चाहिए। स्वामी का मानना है कि राजन की नीतियों से देश में बेरोजगारी बढ़ रही है। सवाल यह है कि वित्त मंत्री रघुराम राजन हैं या अरुण जेटली? नीतियां कौन बनाता है? केंद्र सरकार ही न? फिर अर्थव्यवस्था के रसातल में जाने का जिम्मेदार कौन है? क्या केंद्र सरकार अपनी असफलता ठीकरा राजन पर फोड़ना चाहती है? राजन तो कई बार अपरोक्ष रूप से सरकार को चेता चुके हैं कि जो आर्थिक नीतियां बनाई जा रही हैं, वे देशहित में नहीं हैं। स्वामी का बयान उस वक्त आया है, जब आंकड़े कह रहे हैं कि देश में महंगाई बढ़ी है और देश का औद्योगिक उत्पादन खतरनाक हद तक घट चुका है। हैरत की बात यह है कि सरकार इससे अनजान रही।
उधर, अदालत का उत्तराखंड मामले पर बोल्ड कदम उठाना और सूखे पर केंद्र सरकार को आड़े हाथों लेना भी केंद्र सरकार को नागवार गुजरा है। वित्त मंत्री अरुण जेटली कहते हैं कि न्यायपालिका का कार्यपालिका और विधायिका में दखल बढ़ना लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। अरुण जेटली यह क्यों नहीं समझते कि जब सरकारें अपने कर्तव्य से विमुख होकर सिर्फ राजनीति में लगी रहेंगी और जनता परेशान होगी तो अदालत को सामने आना ही होगा। अगर सरकारों पर अदालतों का अंकुश न हो तो वे बेलगाम होकर तानाशाह सरीखा काम करने लगेंगी। केंद्र की मोदी सरकार चाहती है कि वह निरंकुश होकर काम करे। वह जो करे, उसे सब सिर झुकाकर स्वीकार कर लें। सच तो यह है कि जो हवाई वादे करके सरकार सत्ता में आई थी, उनमें से एक भी वादा आज तक पूरा नहीं हो सका है। असफलता की खीज प्रधानमंत्री मोदी से लेकर उसके मंत्रियों पर हावी हो चुकी है। पीएम मोदी केरल की तुलना सोमालिया से कर बैठते हैं, जिसका दुनिया भर में उनका मजाक उड़ता है। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज लीबिया में फंसे केरल के लोगों को निकालने का एहसान जताते हुए कहती हैं कि उनका खर्च हमने वहन किया। इससे कम अक्ली की बात क्या होगी कि एक विदेश मंत्री इतना भी नहीं जानतीं कि जो पैसा खर्च हुआ, वह जनता का है।
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