Tuesday, April 5, 2016

छोटे अफसर बने बलि का बकरा

सलीम अख्तर सिद्दीकी
पीलीभीत में जब 10 सिखों को आतंकवादी बताकर मार डाला गया था, जब पीलीभीत के एसपी सिटी आरडी त्रिपाठी थे। वे आज भी सीना ठोक कर कह रहे हैं कि मारे गए सिख हार्डकोर आतंकवादी थे। आरडी त्रिपाठी आज इसलिए ऐसा बोल पा रहे हैं, क्योंकि सीबीआई ने पक्षपात करते हुए उनका नाम फर्जी मुठभेड़ मामले से निकाल दिया था। 1987 में आरडी त्रिपाठी तब भी सुर्खियों में आए थे, जब वे पीएसी के कमांडेंट थे और पीएसी ने मलियाना में 73 लोगों को मार डाला था। तब तत्कालीन गृहमंत्री गोपीनाथ दीक्षित ने उन्हें सस्पेंड करने की घोषणा मलियाना में खुद मेरे सामने की थी, लेकिन अगले दिन उत्तर प्रदेश सरकार ने इसका खंडन कर दिया था।
सामूहिक हत्याकांडों में बड़े अफसर हमेशा बचते रहे हैं। छोटे अधिकारियों को बलि का बकरा बनाया जाता रहा है। पीलीभीत में भी ऐसा ही हुआ है। सजा पाए पुलिसकर्मी कह रहे हैं कि बड़े अधिकारियों को बचा लिया गया, लेकिन हमें फंसा दिया गया है। उनका कहना सही है, इतना बड़ा कांड वरिष्ठ अधिकारियों की सहमति और साजिश के बगैर नहीं हो सकता। वैसे भी उस वक्त तो आतंकवादियों को ‘खत्म’ करने की पूरी छूट सरकार ने दे रखी थी।
इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता कि उत्तर प्रदेश सरकार की भी इसमें रजामंदी रही हो। पीलीभीत के हत्यारे पुलिसकर्मियों को तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने न सिर्फ पुलिसकर्मियों की ‘आतंकवादियों’ को मार गिराए जाने की खुले दिल से प्रशंसा की थी, बल्कि उन्हें उनकी ‘बहादुरी’ के लिए  पुरस्कृत भी किया था। इंकार तो इससे भी नहीं किया जा सकता कि यदि मरने वालों के परिवारजन और कुछ स्वयंसेवी संगठन इस हत्याकांड के खिलाफ खुलकर सामने नहीं आते, तो कल्याण सिंह सरकार उन्हें ‘बख्श’ देती।  वैसे भी उत्तर प्रदेश सरकार मुठभेड़ के आरोपी पुलिसकर्मियों को इस बीच तरक्की भी करती रही।  यह विडंबनचा है कि फर्जी मुठभेड़ के मुजरिमों को  कल्याण सिंह सरकार ने ही नहीं, हर सरकार ने बचाने की हर संभव कोशिश की थी। लेकिन मरने वालों के परिजनों की मुस्तैद पैरवी के आगे किसी की नहीं चली। 25 साल बाद ही सही, मरने वालों को इंसाफ मिला तो सही।

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