सलीम अख्तर सिद्दीकी
उत्तराखंड मसले पर केंद्र सरकार की लगातार किरकिरी हो रही है, लेकिन वह हठधर्मिता पर उतर आई है। उत्तराखंड में हरीश रावत सरकार को बहुमत साबित करने का मौका दिए बगैर ही वहां आनन-फानन में राष्ट्रपति शासन लगाना केंद्र सरकार के लिए सिरदर्द साबित हो रहा है। वह अदालत में दलील दे रही है कि राष्ट्रपति के फैसले को चुनौती नहीं दी जा सकती। लेकिन जब हाईकोर्ट ने केंद्र से सख्त लहजे में कहा कि ‘राष्ट्रपति से भी गलती हो सकती है’, तो उसके पास कोई जवाब नहीं है। कोर्ट ने सही ही तो कहा है कि राष्ट्रपति पर शक नहीं किया जा सकता, लेकिन उनका फैसला समीक्षा से परे नहीं है। कोर्ट ने तो यहां तक कहा कि केंद्र द्वारा राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाकर राज्यपाल के माध्यम से दिल्ली से शासन करने का निर्णय संदेहास्पद लगता है। लेकिन ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार जल्दी से हथियार नहीं डालेगी, तो यह न्यूज चैनल कह रहा है कि गृहमंत्रालय के सूत्र कह रहे हैं कि उत्तराखंड हाइकोर्ट की टिप्पणी गलत है और सरकार इस टिप्पणी को निरस्त कराने या वापस लेने के लिए सुप्रीम कोर्ट जा सकती है। गृहमंत्रालय इसे राष्ट्रपति पर निजी टिप्पणी मान रहा है। अगर ऐसा है तो इसका मतलब यह है कि गृहमंत्रालय हाईकोर्ट की टिप्पणी के बहाने मामले को लंबा खींचना चाहता है।
केंद्र सरकार अपनी गलती छिपाने के लिए सौ जतन करेगी। उसे पता है कि अगर उत्तराखंड मामले में उसकी हार हुई तो उसे इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी। केंद्र सरकार की नीयत जरूर ही पिछले दरवाजे उत्तराखंड में अपना राज चलाने की थी, लेकिन अदालत ने उसका रास्ता रोक दिया लगता है। यह वही भारतीय जनता पार्टी है, जो सबसे ज्यादा लोकतंत्र की माला जपती है। अनुच्छेद 356 को जमकर विरोधी करती रही है, लेकिन जब उसका अपना नंबर आया तो उसने अरुणाचल प्रदेश के बाद उत्तराखंड में इस अनुच्छेद का जमकर दुरुपयोग किया। अगर उत्तराखंड मसला अदालत नहीं पहुंचता तो संभवत: केंद्र अन्य कांग्रेस शासित राज्यों पर अनुच्छेद 356 की चाबुक चला देती। अब पता नहीं कोई की कड़ी फटकार के बाद केंद्र सरकार को शर्म आई या नहीं, लेकिन इतना तय लग रहा है कि अदालत में केंद्र को मुंह की खानी पड़ेगी।
उत्तराखंड मसले पर केंद्र सरकार की लगातार किरकिरी हो रही है, लेकिन वह हठधर्मिता पर उतर आई है। उत्तराखंड में हरीश रावत सरकार को बहुमत साबित करने का मौका दिए बगैर ही वहां आनन-फानन में राष्ट्रपति शासन लगाना केंद्र सरकार के लिए सिरदर्द साबित हो रहा है। वह अदालत में दलील दे रही है कि राष्ट्रपति के फैसले को चुनौती नहीं दी जा सकती। लेकिन जब हाईकोर्ट ने केंद्र से सख्त लहजे में कहा कि ‘राष्ट्रपति से भी गलती हो सकती है’, तो उसके पास कोई जवाब नहीं है। कोर्ट ने सही ही तो कहा है कि राष्ट्रपति पर शक नहीं किया जा सकता, लेकिन उनका फैसला समीक्षा से परे नहीं है। कोर्ट ने तो यहां तक कहा कि केंद्र द्वारा राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाकर राज्यपाल के माध्यम से दिल्ली से शासन करने का निर्णय संदेहास्पद लगता है। लेकिन ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार जल्दी से हथियार नहीं डालेगी, तो यह न्यूज चैनल कह रहा है कि गृहमंत्रालय के सूत्र कह रहे हैं कि उत्तराखंड हाइकोर्ट की टिप्पणी गलत है और सरकार इस टिप्पणी को निरस्त कराने या वापस लेने के लिए सुप्रीम कोर्ट जा सकती है। गृहमंत्रालय इसे राष्ट्रपति पर निजी टिप्पणी मान रहा है। अगर ऐसा है तो इसका मतलब यह है कि गृहमंत्रालय हाईकोर्ट की टिप्पणी के बहाने मामले को लंबा खींचना चाहता है।
केंद्र सरकार अपनी गलती छिपाने के लिए सौ जतन करेगी। उसे पता है कि अगर उत्तराखंड मामले में उसकी हार हुई तो उसे इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी। केंद्र सरकार की नीयत जरूर ही पिछले दरवाजे उत्तराखंड में अपना राज चलाने की थी, लेकिन अदालत ने उसका रास्ता रोक दिया लगता है। यह वही भारतीय जनता पार्टी है, जो सबसे ज्यादा लोकतंत्र की माला जपती है। अनुच्छेद 356 को जमकर विरोधी करती रही है, लेकिन जब उसका अपना नंबर आया तो उसने अरुणाचल प्रदेश के बाद उत्तराखंड में इस अनुच्छेद का जमकर दुरुपयोग किया। अगर उत्तराखंड मसला अदालत नहीं पहुंचता तो संभवत: केंद्र अन्य कांग्रेस शासित राज्यों पर अनुच्छेद 356 की चाबुक चला देती। अब पता नहीं कोई की कड़ी फटकार के बाद केंद्र सरकार को शर्म आई या नहीं, लेकिन इतना तय लग रहा है कि अदालत में केंद्र को मुंह की खानी पड़ेगी।
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