Saleem Akhter Siddiqui
केंद्र की सत्ता गंवाने के बाद राज्यों की सरकारों से हाथ धोती जा रही कांग्रेस को एक अद्द ऐसे चेहरे की दरकार है, जो डूबती कांग्रेस को साहिल पर दोबारा ला सके। चूंकि कांग्रेस नेहरू परिवार के सम्मोहन से निकलना नहीं चाहती, इसलिए कांग्रेस के बीच से प्रियंका गांधी को राजनीति में लाने की आवाजें सुनाई देने लगी हैं। शायद कांग्रेस नेताओं को लगता है कि प्रियंका गांधी में वह जादू है, जो मोदी मैजिक से टक्कर ले सकता है। आखिर प्रियंका गांधी में ऐसा क्या है, जो डूबती कांग्रेस के लिए तिनका बन सकती हैं। अभी तक प्रियंका के बारे में यही सामने आया है कि वह अच्छा बोल लेती हैं, तुर्की-ब-तुर्की जवाब दे सकती हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि वह खूबसूरत हैं। किसी कांग्रेसी से पूछ लीजिए कि प्रियंका में ऐसा क्या है, जो आप उनको राजनीति में लाने की मांग करते हैं? जवाब आएगा, उनमें इंदिरा गांधी का अक्स दिखता है। सवाल यह है कि क्या राजनीति में आने के लिए इतना ही काफी है? देश में मौजूद गंभीर मुद्दों पर प्रियंका की क्या राय है, यह अभी तक किसी भी रूप में सामने नहीं आया है। हालिया लोकसभा चुनाव में भी उनकी भूमिका सीमित ही रही है।1984 में जब इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी, तो राजीव गांधी को कलकत्ता से लाकर दिल्ली की गद्दी सौंप दी गई थी। राजीव गांधी की एकमात्र विशेषता यही थी कि वह इंदिरा गांधी के बेटे थे। उनकी यह एकमात्र योग्यता उन्हें एक अच्छा प्रधानमंत्री नहीं बना पाई। 1985 में कांग्रेस को मिले ऐतिहासिक बहुमत के बावजूद महज दो साल में उनकी नैया ऐसी डावांडोल हुई कि 1989 में कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई। 1991 के लोकसभा चुनाव के दूसरे चरण से पहले राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस में ऐसा कोई गांधी परिवार का सदस्य नहीं था, जो प्रधानमंत्री बन सके। तब मजबूरी में राजनीति से संन्यास ले चुके नरसिंहा राव को प्रधानमंत्री बना दिया गया। जिन नरसिंहा राव पर कांग्रेस ने भरोसा किया, उनके शासनकाल में बाबरी मसजिद का विध्वंस हुआ, जिसकी वजह से कांग्रेस राजनीति के बियाबान में ऐसी भटकी कि उसे 2004 में ही सत्ता नसीब हुई। 2004 और 2009 के बीच भी गांधी परिवार का कोई सदस्य ऐसा नहीं था, जो प्रधामंत्री बन सके। सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बन सकती थीं, लेकिन शायद वह अपने आपको अभी इस योग्य नहीं समझ रही थीं। इसके अलावा सोनिया गांधी को लेकर विदेशी मूल का मुद्दा ऐसा उछला कि उन्होंने मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री को बना दिया। यदि राहुल गांधी उस समय प्रधानमंत्री बनने लायक होते, तो यकीनी तौर पर वे ही प्रधानमंत्री बनते। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस ने मजबूरी में ही गांधी परिवार से अलग किसी कांग्रेस के नेता को प्रधानमंत्री पद का सौंपा।
हालिया लोकसभा चुनाव के दौरान राहुल गांधी को ही आगे रखकर चुनाव लड़ने की जिद भी समझ से परे थी। हालांकि कांग्रेस के वरिष्ठनेता समझरहे थे कि राहुल अभी इतने परिपक्व नहीं हुए हैं कि उन्हें इतनी बड़ी जिम्मेदारी सौंपी जा सके, लेकिन सवाल तो यह था कि कौन दस जनपथ में यह बात रखता? ऐसा नहीं था कि कांग्रेस के पास युवाओं के साथ वरिष्ठ अनुभवी नेताओं की कमी है। ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट सरीखे युवा नेताओं को भी राहुल के साथ जोड़ दिया जाता तो शायद नतीजे कुछ और आ सकते थे, लेकिन शायद गांधी परिवार के इस डर ने कि राहुल गांधी के सामने किसी और का कद बड़ा न हो जाए, ऐसा करना मुनासिब नहीं समझा गया होगा। पी चिदबंरम भी एक विकल्प हो सकते थे। सबक लोकसभा चुनाव में हार के बाद भी नहीं लिया गया। महाराष्ट्र और हरियाणा में एक बार फिर राहुल गांधी को झोंक दिया गया। अब जम्मू कश्मीर और झारखंड में क्या होता है, यह देखने वाली बात होगी। कांग्रेस में राहुल गांधी को दरकिनार करने की आवाजें बुलंद होने लगी हैं। पी चिदबंरम के इस विचार को कि कांग्रेस अध्यक्ष गांधी परिवार से इतर हो सकता है, बढ़ावा दिया जाना चाहिए। कोई भी राजनीतिक दल लंबे समय तक किसी एक परिवार की बपौती नहीं बना रह सकता। बेहतर हो कि इसकी शुरूआत जम्मू कश्मीर और झारखंड से की जाए। क्या कांग्रेस की विचाधारा महज एक परिवार की बपौती बनी रहेगी? पूर्व वित्त मंत्री पी चिदबंरम का अगर विचार यह है कि कांग्रेस अध्यक्ष गांधी परिवार से अलग हो, तो यह एक सकारात्मक पहल कही जानी चाहिए। ऐसा कभी नहीं रहा कि कांग्रेस में गैर गांधी परिवार के ऐसे नेता न रहे हों, जो कांग्रेस का नेतृत्व के लायक नहीं थे। लेकिन गांधी परिवार ने उन्हें कभी उबरने नहीं दिया।
सबसे बड़ी बात तो यह है कि कोई करिश्माईचेहरा ही क्यों किसी राजनीतिक दल की हार-जीत तय करे? उस दल की नीतियां क्यों नहीं वोटरों को लुभाए? भारत की यह त्रासदी है कि यहां नीतियों और विचारधारा पर चेहरे को प्राथमिकता दी जाती है। कोईभी आदर्शराजनीतिक दल वही हो सकता है, जो किसी परिवार से बंधा न होकर नीतियों और विचारधारा से बंधा हो, लेकिन दुर्भाग्य से कम्युनिस्ट पार्टियों को छोड़कर कमोबेश सभी राजनीतिक दलों के मुखियाओं ने पार्टी को अपनी जेबी पार्टीबना डाला। सपा का अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव या उनके परिवार का सदस्य ही क्यों होना चाहिए? मुलायम सिंह यादव के परिवार के सभी सदस्यों को लोकसभा या विधानसभा में जाना वंशवाद की इंतहा है। क्या समाजवादी विचारधारा को फैलाने की जिम्मेदारी मात्र मुलायम सिंह यादव परिवार की ही रहेगी?जब लालू प्रसाद यादव चारा घोटाले में जेल जाते हैं, तो अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री पद सौंपकर वंशवाद की बेल को और ज्यादा सींचते नजर आते हैं। बसपा भी एक चेहरे की गुलाम होकर रह गईहै।
वंशवादी राजनीतिक दल जितनी जल्दी हो सके, परिवार का मोह छोड़कर दूसरे नेताओं को भी आगे आने का मौका देंगे, उतना ही अच्छा है। आने वाली राजनीति में शायद वंशवाद के लिए कोई जगह नहीं बचेगी। दुर्भाग्य से भाजपा ने भी व्यक्तिवादी राजनीति की ओर कदम बढ़ा दिए हैं। उपचुनावों में भी हार का कारण मोदी का प्रचार न करना बताना इस और इशारा करता है कि भाजपा नरेंद्र मोदी की बंधक होती जा रही है। जब सत्ता हाथ से जाती है, तो वंशवादी या व्यक्तिवादी राजनीतिक दलों का शिराजा बिखरने में देर नहीं लगती।
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