मुंबई में मार्च1993 को हुए सीरियल बम ब्लॉस्ट के एक अभियुक्त याकूब मेनन को फांसी देने की तारीख जैसे-जैसे नजदीक आती जा रही है, उसे फांसी दिए जाने पर बहस भी तेज होती जा रही है। दुनिया में एक अरसे से यह बहस जारी है कि मौत की सजा दी जाए या नहीं? लेकिन फिलवक्त बहस यह है कि क्या याकूब मेनन वाकईमौत की सजा का हकदार है? सवाल यह भी उठ रहा है कि क्या इस फांसी के पीछे राजनीति काम कर रही है। दुर्भाग्य से इसका जवाब हां में ही दिया जा सकता है। वैसे भी फांसी की जो ‘टाइमिंग’ है, उसे देखते हुए भी इसे राजनीति से प्रेरित बताया जा रहा है। जब कसाब और अफजल गुरु को फांसी दी गई थी, तब वह वक्त था, जब यूपीए-2 सरकार भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप झेल रही थी और जनता में उसकी विश्वसनीयता खत्म हो रही थी। आम चुनाव सिर पर थे। ऐसे में अजमल कसाब और अफजल गुरु को फांसी देकर कांग्रेस अपने गुनाहों को थोड़ा कम करना चाहती थी। कसाब पर तो नहीं, लेकिन अफजल गुरु की फांसी पर सवाल उठे थे। उसके घर वालों को बताए बगैर आनन-फानन में जिस तरह से अफजल गुरु को फांसी दी गईथी, उसकी आज तक आलोचना होती है। हालांकि कसाब और गुरु को फांसी देकर कांग्रेस के गुनाह कम नहीं हो सके थे और उसे चुनाव में शर्मनाक शिकस्त का सामना करना पड़ा था।
याकूब मेमन की फांसी की जो ‘टाइमिंग’ है, उस पर भी शक की गुंजाइश बनती है। मौजूदा केंद्र सरकार के कई मुख्यमंत्री और एक केंद्रीय मंत्री भ्रष्टाचार के आरोप झेल रहे हैं। उसे संसद चलाना भारी पड़ रहा है। उधर, दो महीने बाद बिहार में चुनाव हैं। भाजपा का आंतरिक सर्वेक्षण बिहार में भाजपा की हालत पतली बता रहा है। उधर, अब तक जो भी चुनावी सर्वेक्षण आए हैं, उनमें भी बिहार के महागठबंधन को बढ़त दिखाईजा रही है। क्या ऐसा नहीं लगता कि केंद्र की मोदी सरकार याकूब मेमन को फांसी देकर एक मजबूत सरकार होने का आभास कराना चाहती है?
2004 में पश्चिम बंगाल में हत्या और दुष्कर्मके आरोपी धनंजय सिंह को फांसी दिए जाने के बाद लगभग आठ साल तक देश में अदालतों ने कईमामलों में मौत की सजाएं जरूर सुनाईं हैं, लेकिन फांसी में अमल नहीं लाईगई थी। उसके बाद नवंबर 2012 में 26/11 हमलों के आरोपी अजमल कसाब और उसके तीन महीने बाद संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु को ही फांसी दी गईहै। ऐसा भी हुआ है कि फांसी की सजा पाए कईलोगों की फांसी की तारीख तय होने के बाद भी ऐन वक्त पर फांसी टाली गईहै। निठारी कांड का अभियुक्त सुरेंद्र कुमार कोली भी उन्हीं में से एक है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े कहते हैं कि इस समय देश में लगभग 477 अपराधी ऐसे हैं, जो फांसी दिए जाने का इंतजार कर रहे हैं या अपनी सजा को आजीवन कारावास में बदले जाने की आस में रोज मर रहे हैं और रोज जी रहे हैं। देश की आजादी के बाद से अब तक 54 लोगों को ही फांसी दी गईहै। एनसीआरबी के आंकड़े यह भी कहते हैं कि 2001 से 2011 के दौरान देश की अदालतों ने हर साल औसतन 132 लोगों को मौत की सजा सुनाई थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इनमें से हर साल 3-4 सजाओं की ही पुष्टि की है। इतने लोगों को फांसी की सजा सुनाने के बाद भी उनको फांसी दिया जाना अधर में लटका है और कईकी फांसी को सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया गया है। पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत के हत्यारे भुल्लर सिंह और राजीव गांधी के हत्यारों को भी अभी तक फांसी नहीं दी गईहै, तो फिर एक शख्स, जिसका नाम याकूब मेमन है, उसको फांसी दिए जाने की इतनी जल्दी क्या है? अगर 1993 बम बलॉस्टमामले को ही लें, जिसमें याकूब मेमन समेत 11 लोगों कों फांसी की सजा सुनाई गई थी, लेकिन इनमें से 10 की सजा को आजीवन कारावास में बदला जा चुका है।
सवाल याकूब मेमन को फांसी दिए जाने या नहीं दिए जाने का भी नहीं है। सवाल यह है कि क्या फांसी की सजा को जारी रखा जाना चाहिए? सजा-ए-मौत के सर्मथन में अक्सर दलील दी जाती है कि इससे अपराधियों में दहशत पैदा होती है। लेकिन क्या वास्तव में ऐसा होता है? क्या निर्भया कांड के बाद बने कानून के बाद देश में दुष्कर्मपर लगाम लग गईहै? अक्सर देखा गया है कि कई अपराधी सजा पाने के बाद प्रायश्चित करते हैं। उनका जीवन बदल जाता है। जेल में रहकर पढ़कर डिग्रियां हासिल करते हैं। जैसे खुद याकूब मेनन ने किया है।जो नहीं बदलते उनके लिए मौत के फंदे से ज्यादा कड़ी सजा यह है कि वह मरते दम तक अपनी जिंदगी जेल की सलाखों के पीछे काटे।
इससे भी आंखें नहीं चुरानी चाहिए कि रसूखदार लोग कानून को प्रभावित करने में कामयाब हो जाते हैं। सलमान खान इसकी मिसाल है। हाई कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस ढींगरा मानते हैं कि कानूनी प्रक्रिया में पैसा और पहुंच का बड़ा महत्व होता है। वे कहते हैं कि ‘ऐसे कई मामले हैं, जब रसूखदार और अमीरों को अदालतों ने रविवार को भी जमानत दी है। उनके लिए आधी रात को भी अदालतें खुली हैं। आम आदमी के लिए ऐसा नहीं होता।’ याकूब मेमन को फांसी होगी या नहीं, यह अदालत तय करेगी, लेकिन इस पर बहस होनी चाहिए कि राजनीति से प्रेरित फांसी की सजा कहां तक सही है?
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