सलीम अख्तर सिद्दीकी
वह शहर का ऐसा होटल था, जहां हमेशा की कुछ ऐसे लोग बैठे रहते थे, जिन्हें किसी ऐसे शख्स का इंतजार रहता था, जो पुण्य कमाने की गर्ज आएगा और उन्हें खाना खिलाएगा। कुछ पैसे वाले लोग वहां आकर उन लोगों के खाने के पैसे होटल वाले को दे जाते थे। उस दिन भी कड़ाके की सर्दी में उस होटल के सामने लगभग 10-15 लोग बैठे हुए थे। उन्हें कोई कार आती दिखाई देती, तो उनके चेहरे पर चमक आ जाती, लेकिन जैसे ही वह सीधी चली जाती, चेहरों पर फिर से उदासी की चादर लिपट जाती। चेहरे-मोहरे से सभी भिखारी लग रहे थे। कपड़े मैले-कुचैले थे। सर्दी से लड़ने के लिए कुछ के पास जगह-जगह से फटे हुए कंबल का सहारा था, तो कुछ महज एक झीनी-सी चादर से सर्दी से लड़ रहे थे। इंतजार के लम्हे लंबे होने के साथ ही उनकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। वक्त गुजरने के साथ ही उम्मीद भी खत्म होती जा रही थी। सर्दी की रात की वजह से सड़क भी सुनसान होने लगी थी। घनी होती कोहरे की चादर के बीच उनमें से कुछ लोग और ज्यादा सिकुड़ गए थे। आशा-निराशा के बीच कोहरे को चीरती हुई एक कार होटल के पास आकर रुकी। वहां बैठे हुए लोगों में हलचल शुरू हो गई। कार से एक कद्दावर शख्स निकला। उसका चेहरा ही उसके संपन्न होने की निशानी थी। उसने होटल वाले को कुछ कहा। होटल वाले ने आंखों ही आंखों में बाहर बैठे हुए लोगों की गिनती की। उस शख्स ने जेब से रुपये निकाले और होटल वाले को पकड़ाए। उसके और मेरे बीच ज्यादा फासला नहीं था। अभी वह वापस जाने के लिए मुड़ा ही था कि उसके फोन की घंटी बजी। उसने फोन रिसीव किया। उधर से क्या गया, यह तो पता नहीं चला, लेकिन उस शख्स की बातचीत से मालूम हुआ कि वह बड़ा सरकारी अधिकारी था। थोड़ी और बातचीत से पता चला कि उसका संबंध एक्साइज विभाग से था। वह बात करता हुआ अपनी कार की ओर बढ़ा। जब वह मेरे पास से गुजरा तो वह शख्स फोन करने वाले को चेतावनी भरे लहजे में कह रहा था, ‘तुम्हारे पास कल तक का वक्त है, एक लाख ले आना, तुम्हारी माल छूट जाएगा। यार मैं अकेल थोड़े ही खा जाऊंगा, ऊपर से नीचे तक सबको देना पड़ता है’ मैंने पलटकर देखा। वे सभी लोग, जिन्हें उस अधिकारी ने खाना खिलाया था, पूरी तन्मयता से खाना खा रहे थे।
वह शहर का ऐसा होटल था, जहां हमेशा की कुछ ऐसे लोग बैठे रहते थे, जिन्हें किसी ऐसे शख्स का इंतजार रहता था, जो पुण्य कमाने की गर्ज आएगा और उन्हें खाना खिलाएगा। कुछ पैसे वाले लोग वहां आकर उन लोगों के खाने के पैसे होटल वाले को दे जाते थे। उस दिन भी कड़ाके की सर्दी में उस होटल के सामने लगभग 10-15 लोग बैठे हुए थे। उन्हें कोई कार आती दिखाई देती, तो उनके चेहरे पर चमक आ जाती, लेकिन जैसे ही वह सीधी चली जाती, चेहरों पर फिर से उदासी की चादर लिपट जाती। चेहरे-मोहरे से सभी भिखारी लग रहे थे। कपड़े मैले-कुचैले थे। सर्दी से लड़ने के लिए कुछ के पास जगह-जगह से फटे हुए कंबल का सहारा था, तो कुछ महज एक झीनी-सी चादर से सर्दी से लड़ रहे थे। इंतजार के लम्हे लंबे होने के साथ ही उनकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। वक्त गुजरने के साथ ही उम्मीद भी खत्म होती जा रही थी। सर्दी की रात की वजह से सड़क भी सुनसान होने लगी थी। घनी होती कोहरे की चादर के बीच उनमें से कुछ लोग और ज्यादा सिकुड़ गए थे। आशा-निराशा के बीच कोहरे को चीरती हुई एक कार होटल के पास आकर रुकी। वहां बैठे हुए लोगों में हलचल शुरू हो गई। कार से एक कद्दावर शख्स निकला। उसका चेहरा ही उसके संपन्न होने की निशानी थी। उसने होटल वाले को कुछ कहा। होटल वाले ने आंखों ही आंखों में बाहर बैठे हुए लोगों की गिनती की। उस शख्स ने जेब से रुपये निकाले और होटल वाले को पकड़ाए। उसके और मेरे बीच ज्यादा फासला नहीं था। अभी वह वापस जाने के लिए मुड़ा ही था कि उसके फोन की घंटी बजी। उसने फोन रिसीव किया। उधर से क्या गया, यह तो पता नहीं चला, लेकिन उस शख्स की बातचीत से मालूम हुआ कि वह बड़ा सरकारी अधिकारी था। थोड़ी और बातचीत से पता चला कि उसका संबंध एक्साइज विभाग से था। वह बात करता हुआ अपनी कार की ओर बढ़ा। जब वह मेरे पास से गुजरा तो वह शख्स फोन करने वाले को चेतावनी भरे लहजे में कह रहा था, ‘तुम्हारे पास कल तक का वक्त है, एक लाख ले आना, तुम्हारी माल छूट जाएगा। यार मैं अकेल थोड़े ही खा जाऊंगा, ऊपर से नीचे तक सबको देना पड़ता है’ मैंने पलटकर देखा। वे सभी लोग, जिन्हें उस अधिकारी ने खाना खिलाया था, पूरी तन्मयता से खाना खा रहे थे।
"ऊपर से नीचे तक सबको देना पड़ता है"
ReplyDeleteसही कहा उसने... सबको खिला तो रहा था वह.... "रिश्वत की रोटी"
बढिया
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