सलीम अख्तर सिद्दीकी
उत्तर प्रदेश में विपक्ष की उदासीनता को देखकर लगता है कि जैसे विपक्ष नाम की कोई चीज ही नहीं है। इससे भी आगे जाकर अब पक्ष और विपक्ष नूरा कुश्ती खेलते नजर आते हैं। इतना जरूर है कि जबानी जमा खर्च करके एक-दूसरे पर तीर छोड़कर यह एहसास दिलाया जाता रहता है कि विपक्ष भी प्रदेश में मौजदू है। पिछले महीने समाजवादी पार्टी और भाजपा में ऐसी जुगलबंदी देखने को मिली, जैसे एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी नहीं, सरकार में साझीदार हैं। 2009 के लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा के फायरब्रांड माने जाने वाले नेता वरुण गांधी ने मुसलमानों के खिलाफ जमकर विष वमन किया था। मामला मीडिया में उछला तो उन पर कई केस दर्ज हो गए थे। अब जब 2014 का चुनाव आने को है, तो वह आश्चर्यजनक रूप से एक-एक करके सभी केसों में बरी हो गए। इसमें विद्रूप यह है कि समाजवादी पार्टी, जो सांप्रदायिकता से लड़ने को दावा करती है, ने वरुण के केस वापस लेने में ऐसी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई कि शायद भाजपा सरकार भी नहीं निभा पाती। पिछले साल अक्टूबर में मीडिया में खबरें प्रकाशित हुई थीं कि अखिलेश सरकार वरुण के मुकदमे वापस लेना चाहती है। मुसलिम संगठनों के विरोध के चलते सरकार बैकफुट पर तो आ गई, लेकिन पिछले दरवाजे से उन्हें रिहा कराने में सारी हदें पार कर दीं। चार साल से चल रहे मुकदमे में अचानक इतनी तेजी आ गई कि न्याय क्षेत्र से जुड़े लोग भी हैरान रह गए।
कुछ ऐसा चमत्कार हुआ कि वे गवाह, जिनकी सीडी के आधार पर मुकदमा शुरू हुआ था, अदालत में एक-एक करके मुकरते चले गए। अभियोजन पक्ष ने अपना मुंह बंद कर लिया। सब कुछ एकपक्षीय होता चला गया। यह कैसे हुआ, दबा ही रहता, यदि गवाहों, वकीलों और प्रदेश के सपाई मंत्री रियाज अहमद ने खुफिया कैमरे के सामने सच न उगल दिया होता। कहा जाता है कि रियाज अहमद ने ही सभी मुसलिम गवाहों को पक्षद्रोही कराने में वह सब हथकंडे अपनाए, जो अपनाए जा सकते थे। सपा सरकार ने वरुण गांधी को बरी कराकर उन्हें इस बात का ईनाम दिया है कि उन्होंने 2012 के विधानसभा चुनाव में पीलीभीत विधानसभा सीट से भाजपा उम्मीदवार सतपाल गंगवार को हराने और सपा उम्मीदवार को जिताने का कुचक्र चला था। इसका मतलब यह हुआ कि सपा ने पीलीभीत लोकसभा सीट से वरुण गांधी को जिताने में भी मदद की होगी। यानी लोकसभा में तुम और विधानसभा में हम फॉर्मूला अपनाया गया। नूरा कुश्ती सिर्फ भाजपा और सपा में ही नहीं हो रही है, सपा और बसपा भी ऐसा ही कर रही हैं। मायावती शासन में जिस तरह से स्मारकों और पार्कों पर जनता की गाढ़ी कमाई खर्च की गई और उसमें अरबों रुपये डकार लिए गए थे, वह पिछले विधानसभा चुनाव में मुद्दा बना था। तब सपा सरकार ने बार-बार कहा था कि दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा। सपा ने बहुमत से सरकार बनाई, लेकिन उसने बसपा शासन में हुए भ्रष्टाचार पर कोई ठोस कार्रवाई करने के बजाय इतनी नरम कार्रवाई की कि उससे पता चला कि सरकार का भ्रष्टाचार पर वार करने का कोई इरादा नहीं है। वह सिर्फ ऐसा करते हुए दिखना भर चाहती है। अखिलेश यादव ने मायावती शासन में हुए घोटालों की जांच के लिए एक आयोग बनाने का वादा किया था, लेकिन उसे दरकिनार करते हुए सपा सरकार ने महज स्मारक बनाने में काम आने वाले पत्थरों की खरीद-फरोख्त में हुई गड़बड़ियों की जांच के आदेश लोकायुक्त दिए थे। एक साल बाद लोकायुक्त ने नसीमुद्दीन सिद्दीकी और बाबू सिंह कुशवाहा को घोटालों का अगुवा बाते हुए दोनों से मात्र लगभग सवा चार-सवा चार करोड़ रुपये वसूलने की सिफारिश की कर दी। ध्यान रहे कि सिफारिश की है, आदेश नहीं दिया। सरकार सिफारिश माने या नहीं, यह उसकी मर्जी है। जिस तरह से अखिेलश सरकार मायावती शासन में हुए भ्रष्टाचार पर नरमी बरत रही है, उसे देखकर कहा जा सकता है कि दोनों मंत्रियों से वसूली होगी भी या नहीं, इस पर बड़ा सवालिया निशान लगा है। दरअसल, अखिलेश सरकार बड़ी कार्रवाई इसलिए नहीं करना चाहती, क्योंकि उसे डर है कि कहीं मायावती सहानुभूति की लहर पर सवार होकर आगामी लोकसभा चुनाव में मुलायम सिंह यादव को प्रधानमंत्री बनने की राह में रुकावट न बन जाए। उसे 1977 का जनता पार्टी सरकार का वह शाह आयोग याद है, जिसने इमरजेंसी के दौरान हुई ज्यादतियों की जांच की थी और इंदिरा गांधी को बार-बार आयोग के सामने हाजिरी देनी पड़ी थी। तब इंदिरा गांधी ने उसे अपने पक्ष में भुनाया था कि कैसे जनता पार्टी की सरकार उसे बेइज्जत कर रही है। नतीजा यह हुआ था कि जनता में इंदिरा गांधी के प्रति सहानुभूति उमड़ी और वह 1980 में दोबारा सत्ता में वापस आर्इं थीं। सपा ही बसपा के प्रति नरम रवैया नहीं अपना रही है, बसपा भी चुप रहकर सपा का कर्ज उतार रही है। उत्तर प्रदेश में कानून-व्यवस्था के मुद्दे पर सपा सरकार को घेरा जा सकता है, लेकिन मुख्य विपक्षी दल बसपा सहित पूरा विपक्ष महज जबानी तीर चलाकर ही फर्ज अदायगी कर रहे हैं। वह दिन हवा हुए, जब विपक्ष सत्ता पक्ष को अपने फैसले बदलने पर मजबूर कर देता था। अब तो सभी राजनीतिक दलों के बीच म्युचल अंडरस्टैंडिंग बन गई है कि एक-दूसरे की मदद करो और बारी-बारी से सत्ता का सुख भोगो।
उत्तर प्रदेश में विपक्ष की उदासीनता को देखकर लगता है कि जैसे विपक्ष नाम की कोई चीज ही नहीं है। इससे भी आगे जाकर अब पक्ष और विपक्ष नूरा कुश्ती खेलते नजर आते हैं। इतना जरूर है कि जबानी जमा खर्च करके एक-दूसरे पर तीर छोड़कर यह एहसास दिलाया जाता रहता है कि विपक्ष भी प्रदेश में मौजदू है। पिछले महीने समाजवादी पार्टी और भाजपा में ऐसी जुगलबंदी देखने को मिली, जैसे एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी नहीं, सरकार में साझीदार हैं। 2009 के लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा के फायरब्रांड माने जाने वाले नेता वरुण गांधी ने मुसलमानों के खिलाफ जमकर विष वमन किया था। मामला मीडिया में उछला तो उन पर कई केस दर्ज हो गए थे। अब जब 2014 का चुनाव आने को है, तो वह आश्चर्यजनक रूप से एक-एक करके सभी केसों में बरी हो गए। इसमें विद्रूप यह है कि समाजवादी पार्टी, जो सांप्रदायिकता से लड़ने को दावा करती है, ने वरुण के केस वापस लेने में ऐसी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई कि शायद भाजपा सरकार भी नहीं निभा पाती। पिछले साल अक्टूबर में मीडिया में खबरें प्रकाशित हुई थीं कि अखिलेश सरकार वरुण के मुकदमे वापस लेना चाहती है। मुसलिम संगठनों के विरोध के चलते सरकार बैकफुट पर तो आ गई, लेकिन पिछले दरवाजे से उन्हें रिहा कराने में सारी हदें पार कर दीं। चार साल से चल रहे मुकदमे में अचानक इतनी तेजी आ गई कि न्याय क्षेत्र से जुड़े लोग भी हैरान रह गए।
कुछ ऐसा चमत्कार हुआ कि वे गवाह, जिनकी सीडी के आधार पर मुकदमा शुरू हुआ था, अदालत में एक-एक करके मुकरते चले गए। अभियोजन पक्ष ने अपना मुंह बंद कर लिया। सब कुछ एकपक्षीय होता चला गया। यह कैसे हुआ, दबा ही रहता, यदि गवाहों, वकीलों और प्रदेश के सपाई मंत्री रियाज अहमद ने खुफिया कैमरे के सामने सच न उगल दिया होता। कहा जाता है कि रियाज अहमद ने ही सभी मुसलिम गवाहों को पक्षद्रोही कराने में वह सब हथकंडे अपनाए, जो अपनाए जा सकते थे। सपा सरकार ने वरुण गांधी को बरी कराकर उन्हें इस बात का ईनाम दिया है कि उन्होंने 2012 के विधानसभा चुनाव में पीलीभीत विधानसभा सीट से भाजपा उम्मीदवार सतपाल गंगवार को हराने और सपा उम्मीदवार को जिताने का कुचक्र चला था। इसका मतलब यह हुआ कि सपा ने पीलीभीत लोकसभा सीट से वरुण गांधी को जिताने में भी मदद की होगी। यानी लोकसभा में तुम और विधानसभा में हम फॉर्मूला अपनाया गया। नूरा कुश्ती सिर्फ भाजपा और सपा में ही नहीं हो रही है, सपा और बसपा भी ऐसा ही कर रही हैं। मायावती शासन में जिस तरह से स्मारकों और पार्कों पर जनता की गाढ़ी कमाई खर्च की गई और उसमें अरबों रुपये डकार लिए गए थे, वह पिछले विधानसभा चुनाव में मुद्दा बना था। तब सपा सरकार ने बार-बार कहा था कि दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा। सपा ने बहुमत से सरकार बनाई, लेकिन उसने बसपा शासन में हुए भ्रष्टाचार पर कोई ठोस कार्रवाई करने के बजाय इतनी नरम कार्रवाई की कि उससे पता चला कि सरकार का भ्रष्टाचार पर वार करने का कोई इरादा नहीं है। वह सिर्फ ऐसा करते हुए दिखना भर चाहती है। अखिलेश यादव ने मायावती शासन में हुए घोटालों की जांच के लिए एक आयोग बनाने का वादा किया था, लेकिन उसे दरकिनार करते हुए सपा सरकार ने महज स्मारक बनाने में काम आने वाले पत्थरों की खरीद-फरोख्त में हुई गड़बड़ियों की जांच के आदेश लोकायुक्त दिए थे। एक साल बाद लोकायुक्त ने नसीमुद्दीन सिद्दीकी और बाबू सिंह कुशवाहा को घोटालों का अगुवा बाते हुए दोनों से मात्र लगभग सवा चार-सवा चार करोड़ रुपये वसूलने की सिफारिश की कर दी। ध्यान रहे कि सिफारिश की है, आदेश नहीं दिया। सरकार सिफारिश माने या नहीं, यह उसकी मर्जी है। जिस तरह से अखिेलश सरकार मायावती शासन में हुए भ्रष्टाचार पर नरमी बरत रही है, उसे देखकर कहा जा सकता है कि दोनों मंत्रियों से वसूली होगी भी या नहीं, इस पर बड़ा सवालिया निशान लगा है। दरअसल, अखिलेश सरकार बड़ी कार्रवाई इसलिए नहीं करना चाहती, क्योंकि उसे डर है कि कहीं मायावती सहानुभूति की लहर पर सवार होकर आगामी लोकसभा चुनाव में मुलायम सिंह यादव को प्रधानमंत्री बनने की राह में रुकावट न बन जाए। उसे 1977 का जनता पार्टी सरकार का वह शाह आयोग याद है, जिसने इमरजेंसी के दौरान हुई ज्यादतियों की जांच की थी और इंदिरा गांधी को बार-बार आयोग के सामने हाजिरी देनी पड़ी थी। तब इंदिरा गांधी ने उसे अपने पक्ष में भुनाया था कि कैसे जनता पार्टी की सरकार उसे बेइज्जत कर रही है। नतीजा यह हुआ था कि जनता में इंदिरा गांधी के प्रति सहानुभूति उमड़ी और वह 1980 में दोबारा सत्ता में वापस आर्इं थीं। सपा ही बसपा के प्रति नरम रवैया नहीं अपना रही है, बसपा भी चुप रहकर सपा का कर्ज उतार रही है। उत्तर प्रदेश में कानून-व्यवस्था के मुद्दे पर सपा सरकार को घेरा जा सकता है, लेकिन मुख्य विपक्षी दल बसपा सहित पूरा विपक्ष महज जबानी तीर चलाकर ही फर्ज अदायगी कर रहे हैं। वह दिन हवा हुए, जब विपक्ष सत्ता पक्ष को अपने फैसले बदलने पर मजबूर कर देता था। अब तो सभी राजनीतिक दलों के बीच म्युचल अंडरस्टैंडिंग बन गई है कि एक-दूसरे की मदद करो और बारी-बारी से सत्ता का सुख भोगो।
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