Monday, June 10, 2013

गर्मी, रिक्शा और समाजवाद

सलीम अख्तर सिद्दीकी
तपती दोपहर में मैं अपने शहर के बस अड्डे पर पहुंचा। धूप से बचने के लिए मैंने एक दुकान के आगे पड़े टिन शेड का सहारा लिया। मुझसे चंद कदम आगे लगभग 70 साल का एक बूढ़ा अपना रिक्शा लिए हुए खड़ा था। वह बार-बार अपने कंधे पर पड़े कपड़े से पसीना पोंछ रहा था और इस आस में चारों ओर देख रहा था कि कोई सवारी मिल जाए। मैं उसे देखकर सोच में पड़ गया कि इस उम्र में वह क्यों गर्मी में रिक्शा चलाने पर मजबूर है? क्या उसका कोई नहीं दुनिया में? फिर ख्याल आया कि हो सकता है बेटे-बहुओं से न बनती हो। यह भी कोई ताज्जुब की बात नहीं थी कि बेटों ने बूढ़े को फालतू चीज समझकर घर से ही निकाल दिया हो। मेरी तंद्रा तब टूटी, जब दो लड़कों ने रिक्शे वाले से कहीं जाने के लिए कहा। बूढ़े ने अभी जवाब भी नहीं दिया था कि उनमें से एक लड़का बोल पड़ा, अबे इस गर्मी में कहां जाएगा यह बुड्ढा? कहीं रास्ते में मर-मरा गया, तो लेने के देने पड़ जाएंगे। दूसरे ने भी गर्दन हिलाकर उसका समर्थन किया। अचानक दो लड़कियां प्रकट हुर्इं और उन्होंने रिक्शे वाले से कहीं जाने के लिए कहा। बूढ़े ने बड़ी आस से हां कहा। एक लड़की रिक्शे में बैठ गई। दूसरी लड़की बैठने ही वाली थी कि उसे दूर से लोकल बस आती दिखाई दी। उसने रिक्शे से उतरते हुए कहा, अरी, देख बस आ गई है, उससे चलेंगे। बूढ़े की उम्मीद टूट गई। दूसरी लड़की ने रिक्शे से उतरते समय बूढ़े की ओर देखा। उसने कुछ सोचा और जल्दी से अपने पर्स से एक दस का नोट खींचकर रिक्शे वाले के हाथ पर रख दिया। रिक्शे वाले ने प्रतिवाद किया, जब काम ही नहीं किया, तो पैसे किस बात के दे रही हो? लड़की के पास जवाब देने के लिए वक्त नहीं था। वह जल्दी से बस में सवार हो गई। बूढ़े का चेहरा आत्मग्लानि से बिगड़ गया। यह देखकर एहसास हुआ कि वह खुद्दार भी है। अभी बूढ़ा किसी सोच में गुम ही था कि उसके रिक्शे के पीछे पुलिसवाले का डंडा पड़ा। उसने अचकचाकर पीछे देखा। उसका रिक्शा एक शानदार गाड़ी की राह में रुकावट बन रहा था। गजब यह था कि गाड़ी पर प्रदेश की समाजवादी विचारधारा वाली वर्तमान सरकार का झंडा लगा हुआ था। रिक्शा किनारे हुआ और गाड़ी तेजी से आगे बढ़ गई। मैंने ध्यान दिया कि काले शीशे वाली गाड़ी पर लगा समाजवादी विचारधारा का झंडा पूरी अकड़ के साथ लहरा रहा था।

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