Sunday, February 10, 2013

‘मजहब की नहीं, पैसे की बात कर अम्मा’

सलीम अख्तर सिद्दीकी
जब समझौता एक्सप्रेस धीरे-धीरे पाकिस्तान-भारत का बॉर्डर क्रॉस कर रही थी,  शाम के चार बज रहे थे। रमजान का महीना था। यात्रियों ने अपना सामान स्टेशन पर उतारा। मेरी पाकिस्तान की पहली यात्रा थी। रोमांच था, उस देश को देखने का, जो कभी भारत का हिस्सा था और न जाने कितने लोगों को जख्म देकर वजूद में आया था। मैंने अपना सामान उस टेबिल के सामने रखा, जिस पर मेरा कस्टम होने वाला था। अफसर ने मेरे एक एयर बैग को देखकर पूछा, ‘आपका सामान कहां है?’ मैंने बैग की तरफ इशारा कर दिया। उसने हैरत से कहा, ‘बस इतना ही? क्या है इसमें?’ ‘बस सर चार जोड़ी कपड़े हैं।’ अफसर ने यह कहते हुए बैग खोलकर कपड़ों को बाहर पटका, ‘यार कुछ नहीं लाओगे, तो हमारा काम कैसे चलेगा?’ उसने नागवारी से मुझे क्लीन चिट दी। मैं पास पड़ी एक चेयर पर बैठ गया। शाम का धुंधलका छाने लगा था। रोजा इफ्तार का वक्त करीबतर होता जा रहा था। अफसरों की टेबिल रोजा खोलने की सामग्री सजने लगीं। मुझसे कुछ ही दूरी पर एक दूसरी टेबिल पर भी कस्टम चल रहा था। वहां कुछ ज्यादा भीड़ थी। उस भीड़ में लगभग सत्तर साल की एक बुजुर्ग महिला अपने नंबर का इंतजार कर रही थी। जब उसका नंबर आया तो अफसर ने उसका सामान देखा और कहा, ‘अम्मा, क्या पूरा हिंदुस्तान साथ ले आई हो?’ महिला ने जवाब दिया, ‘बेटा, बेटी है मेरी कराची में। उसके और उसके बच्चों के लिए ले जा रही हूं।’ अफसर ने उसकी बात नजरअंदाज करते हुए कहा, ‘हमारे लिए भी कुछ लाई हो या नहीं?’ महिला ने सकुचाते हुए कहा, ‘बेटा सब तुम्हारा ही है, जो चाहे ले लो।’ अफसर अब धूर्त की तरह हंसकर बोला, ‘अम्मा पांच हजार रुपये दो, तब ले जाने यह सामान अपनी बेटी के पास।’ यह सुनकर महिला की सांस थम-सी गई। वह अवाक अफसर के चेहरे को देखने लगी, जिस पर किसी तरह के भाव नहीं थे। अफसर महिला के एहसेसात से बेखबर अपने टेबल पर लगी उन प्लेटों पर नजर डाल रहा था, जिनमें रोजा खोलने के लिए कई तरह ही खाने की चीजें सजी हुई थीं। महिला अभी भी अफसर को देखे जा रही थी। वह हिम्मत करके बोली, ‘बेटा मेरे पास तो इतने पैसे नहीं है, अभी तो मुझे कराची तक जाना है।’ अफसर महिला की बात अनसुनी करके दूसरे यात्री से ‘सौदेबाजी’ करने में व्यस्त हो गया था। रोजा खोने का वक्त हो गया। थोड़ी देर में अजान ही आवाज आने लगीं। महिला ने कहा, ‘बेटा अजान हो रही है, सच में मेरे पास इतने पैसे नहीं है।’ अफसर बेशर्मी से बोला, ‘अम्मा मजहब की बातें मत कर, इससे काम नहीं चलता, पैसे से काम चलता है।’ अब महिला उससे सौदेबाजी करने लगी थी। अफसर के चेहरे पर पैसे मिलने की चमक उभर आई थी।

4 comments:

  1. :-) kyonki inke liye paisa hi mazhab hai...

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  2. पता नहीं पैसों का ऐसा क्या करेंगे आपने साथ ऊपर तो लेजा नहीं सकते फिर जाने क्यूँ पैसा-पैसा करते नहीं थकते लोग ...

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