सलीम अख्तर सिद्दीकीकसाब को फांसी दिए जाने के बाद अफजल गुरु को देर-सबेर फांसी होनी ही थी। इसलिए नहीं कि अफजल आतंकवादी था, इसलिए कि देश में लोकसभा चुनाव की आहट शुरू हो गई है और कांग्रेस पर उन मुद्दों को खत्म करने का दबाव था, जिन पर भाजपा कांग्रेस को कठघरे में खड़ा करती रही है। अफजल गुरु को फांसी दिया जाना राजनीति की पिच पर कांग्रेस का ‘अफजल बाउंसर’ है, जो उस समय फेंका गया है, जब भाजपा और उसका मातृसंगठन आरएसएस नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए प्रोजेक्ट करके जोर-शोर से विशुद्ध रूप से हिंदू कार्ड खेलने के मूड में आज चुके हैं। इस बाउंसर यह संकेत भी मिलता है कि कांग्रेस ने हिंदू कॉर्ड खेलने की भी कोशिश की है। कांग्रेस के इस बाउंसर की संघ परिवार को उम्मीद नहीं रही होगी। हो सकता है कि संघ परिवार अंदरुनी तौर पर सकते ही हालत में हो। इस फांसी का मतलब यह भी है कि लोकसभा चुनाव वक्त से पहले हो सकते हैं।
भाजपा प्रतीकों के सहारे राजनीति करने की आदी रही है। 1992 में जब बाबरी मसजिद का विध्वंस हुआ था, तब भी कहा गया था कि बाबरी मसजिद ढहने का मतलब है, भाजपा का मुद्दा खत्म होना। हुआ भी ऐसा ही था। भाजपा कसाब और अफजल गुरु का नाम लेकर कांग्रेस पर यह कहते हुए वार करती रही है कि उन्हें क्यों जेल में बिरयानी खिलाई जा रही है। भाजपा का इस तरह की बातें करने का मकसद यह होता था कि कांग्रेस वोटबैंक की राजनीति कर रही है। मुसलमान नाराज न हो जाएं, इसलिए दोनों को फांसी नहीं दी जा रही है। हालांकि उसकी यह सोच बेबुनियाद थी। कांग्रेस ने अफजल को फांसी देकर उसके मुद्दे की हवा निकाल दी है। किसी भी आतंकवादी को यह सोचे बगैर कि उसका धर्म क्या है, उसके अंजाम तक पहुंचाया ही जाना चाहिए। जब कसाब को फांसी दी गई थी, तो मुसलमानों ने उसको ठीक ही बताया था। कल अगर समझौता एक्सप्रेस और मालेगांव बम धमाकों के आरोपियों पर आरोप सिद्ध हो जाते हैं और उन्हें फांसी की सजा होती है, तो भाजपा फांसी का विरोध इसलिए नहीं कर सकती कि सजा पाने वाले आरोपी हिंदू हैं। यानी वह वक्त भी आ सकता है कि आतंकवाद पर जो गेम भाजपा खेलती रही है, उसकी गेंद उसके पाले में आकर गिर जाए। सरकार कह रही है कि फांसी के पीछे राजनीति ने देखी जाए, लेकिन बाउंसर फेंकने की जो ‘टाइमिंग’ है, वह राजनीति की चुगली कर रही है। बहरहाल, लोकसभा चुनाव के लिए चालें चलनी शुरू हो गई हैं। शह और मात के खेल में बाजी किसके हाथ लगेगी, यह वक्त बताएगा। फिलहाल देश की राजनीति उस दिलचस्प मोड़ पर पहुंच गई है, जहां से वह किसी ओर भी मुड़ सकती है। चुनाव आते-आते कितने और सियासी बाउंसर फेंके जाएंगे, कुछ कहा नहीं जा सकता। नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर पेश करने की कवायद और अफजल गुरु की फांसी, देश की राजनीति की दशा और दिशा बदल सकते हैं।
भाजपा प्रतीकों के सहारे राजनीति करने की आदी रही है। 1992 में जब बाबरी मसजिद का विध्वंस हुआ था, तब भी कहा गया था कि बाबरी मसजिद ढहने का मतलब है, भाजपा का मुद्दा खत्म होना। हुआ भी ऐसा ही था। भाजपा कसाब और अफजल गुरु का नाम लेकर कांग्रेस पर यह कहते हुए वार करती रही है कि उन्हें क्यों जेल में बिरयानी खिलाई जा रही है। भाजपा का इस तरह की बातें करने का मकसद यह होता था कि कांग्रेस वोटबैंक की राजनीति कर रही है। मुसलमान नाराज न हो जाएं, इसलिए दोनों को फांसी नहीं दी जा रही है। हालांकि उसकी यह सोच बेबुनियाद थी। कांग्रेस ने अफजल को फांसी देकर उसके मुद्दे की हवा निकाल दी है। किसी भी आतंकवादी को यह सोचे बगैर कि उसका धर्म क्या है, उसके अंजाम तक पहुंचाया ही जाना चाहिए। जब कसाब को फांसी दी गई थी, तो मुसलमानों ने उसको ठीक ही बताया था। कल अगर समझौता एक्सप्रेस और मालेगांव बम धमाकों के आरोपियों पर आरोप सिद्ध हो जाते हैं और उन्हें फांसी की सजा होती है, तो भाजपा फांसी का विरोध इसलिए नहीं कर सकती कि सजा पाने वाले आरोपी हिंदू हैं। यानी वह वक्त भी आ सकता है कि आतंकवाद पर जो गेम भाजपा खेलती रही है, उसकी गेंद उसके पाले में आकर गिर जाए। सरकार कह रही है कि फांसी के पीछे राजनीति ने देखी जाए, लेकिन बाउंसर फेंकने की जो ‘टाइमिंग’ है, वह राजनीति की चुगली कर रही है। बहरहाल, लोकसभा चुनाव के लिए चालें चलनी शुरू हो गई हैं। शह और मात के खेल में बाजी किसके हाथ लगेगी, यह वक्त बताएगा। फिलहाल देश की राजनीति उस दिलचस्प मोड़ पर पहुंच गई है, जहां से वह किसी ओर भी मुड़ सकती है। चुनाव आते-आते कितने और सियासी बाउंसर फेंके जाएंगे, कुछ कहा नहीं जा सकता। नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर पेश करने की कवायद और अफजल गुरु की फांसी, देश की राजनीति की दशा और दिशा बदल सकते हैं।
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