सलीम अख्तर सिद्दीकी
अरविंद केजरीवाल ने भारत के आम आदमी की कमजोर नस यानी बदलाव पर हाथ रखकर राजनीति के अखाड़े में ताल तो ठोक दी है, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि उनकी ‘आप’ यानी आम आदमी पार्टी क्या उस सिस्टम को बदल पाएगी, जिससे आम आदमी त्रस्त है। आजादी के बाद अरविंद पहले व्यक्ति नहीं हैं, जिन्होंने बदलाव का नारा दिया है, लेकिन जनता ने हर बार ठगा महसूस किया। हां, यह बात जरूर है कि व्यवस्था परिवर्तन का नारा वही लोग लेकर आए थे, जो पहले से ही राजनीति में रचे-बसे थे और उन्होंने बदलाव के नारे को महज सत्ता तक पहुंचने की सीढ़ी भर बनाया।
शुरुआत 1977 से करते हैं। 1975 में जब इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लगाई और प्रेस की आजादी खत्म की, तो पूरे उत्तर भारत में उनके खिलाफ जबरदस्त लहर चली। तब दक्षिण भारत इस लहर से अछूता रहा था। कुछ विपक्षी दलों और कांग्रेस छोड़कर आए नेताओं ने जनता पार्टी बनाकर जनता को ‘दूसरी आजादी’ का ख्वाब दिखाकर सत्ता हासिल की। लेकिन जनता के ख्वाब मात्र 19 महीने में ही चकनाचूर हो गए। कहीं की र्इंट, कहीं को रोड़ा जोड़कर बनाई गई जनता पार्टी के नेता व्यवस्था परिवर्तन तो क्या करते, अपने अहम में ही परिवर्तन नहीं ला सके। नतीजा कांग्रेस दोबारा सत्ता में आ गई।
1984 में इंदिरा गांधी की की हत्या के बाद 1985 के आम चुनाव में कांग्रेस को दो तिहाई से ज्यादा बहुत मिला। वह सहानुभूति से मिली ऐसी जबरदस्त जीत थी, जो आज तक किसी दल को नसीब नहीं हो सकी है। युवा राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने, जिन्हें ‘मिस्टर क्लीन’ यानी ऐसा आदमी जिस पर भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं लगा सका था। जनता में आशा जगी कि कुछ बदलाव होगा, लेकिन बोफोर्स का भूत कांग्रेस को ले डूबा और राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह कांग्रेस से बगावत करके ‘ईमानदारी’ का टैग लगाकर देश भर में भ्रष्टाचार के खिलाफ जनजागरण करने निकल पड़े थे। वह राजा से फकीर हो गए और जनता दल बना डाला। जनता दल में भी जनता पार्टी की तरह ही कांग्रेसी बागियों की भरमार थी। यानी जनता दल पुरानी बोतल में नई शराब थी। 1989 के लोकसभा चुनाव प्रचार में वीपी सिंह हर चुनावी सभा में अपनी जेब से एक कागज निकालकर दिखाते थे और कहते थे, ‘इस कागज पर उन लोगों के नाम लिखे हैं, जिन्होंने बोफोर्स तोप में दलाली खाई है।’ चुनाव हो गया। जनता दल भारतीय जनता पार्टी के सहयोग से सत्ता में आ गया। वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने, लेकिन जिस कागज पर बोफोर्स तोप में दलाली खाने वालों के नाम लिखे थे, वह कभी उनकी जेब से बाहर नहीं आया। जनता दल भी जनता पार्टी की तरह छिन्न-भिन्न हो गया और जनता दल की सरकार 19 महीने बाद मंडल-कमंडल की राजनीति में धराशाई हो गई। देश में बदलाव हुआ जरूर, लेकिन नकारात्मक। जनता जाति और धर्म में बंट गई।
राममंदिर की राजनीति करके भाजपा ने 13 दिन, 13 महीने और छह साल तक गठबंधन सरकार चलाई। औरों से अलग होने का दावा करने वाली भाजपा कांग्रेस की कार्बन कॉपी भर बनकर रह गई। जनता को राहत नहीं मिली। उस समय भाजपा से राममंदिर बनाने के समर्थक उससे जुड़े, तो एक बड़ा वर्ग ऐसा भी जुड़ा, जो इस भ्रम में था कि वह कुछ न कुछ बदलाव जरूर करेगी। लेकिन हुआ क्या? पता चला कि सरकार का वजूद बचाए रखने के लिए राममंदिर मुद्दे को दरकिनार कर दिया गया। न राममंदिर बना और न ही व्यवस्था में बदलाव हुआ। उसके शासन काल में भी कम भ्रष्टाचार नहीं हुआ।
आम आदमी का सपना साकार करने का दावा लेकर अरविंद केजरीवाल राजनीति में पहली बार कदम रख रहे हैं। यह भी इतिहास है कि जब भी किसी गैर राजनीतिक व्यक्ति ने राजनीति में हाथ में आजमाए, उसने मुंह की खाई है। अरविंद केजरीवाल गैर राजनीतिक संगठन चलाते रहे हैं। राजनीति में फिलवक्त उनका इतना योगदान है कि उन्होंने कांग्रेस और भाजपा के कुछ काले चिट्ठों को जनता के सामने रखा है। इससे इतर उन्होंने अभी तक जनता के सामने ऐसा कोई मसौदा नहीं रखा है, जिससे पता चल सके कि वह किस तरह बदलाव लाएंगे।
संविधान में आम आदमी के लिए के लिए हर वह प्रावधान है, जिससे उसे राहत मिले। असली समस्या यह है कि जनता को उसका फायदा कैसे मिले? सब जानते हैं कि आम आदमी के लिए केंद्र या राज्य सरकार से चलने वाला पैसा उस तक आते-आते बीच में इतना कम हो जाता है कि उसकी अहमियत खत्म हो जाती है। पैसा कहां जाता है, यह बताने की जरूरत नहीं है। जरूरत उसी ‘कॉक्स’ को तोड़ने की है, जो इतना दुरूह काम है कि शायद भगवान भी आ जाए, तो वह भी तौबा कर जाए। इसे अतिशोयक्ति कह सकते हैं, लेकिन सच यही है। इसलिए एक अरविंद केजरीवाल और उनके चंद साथी किस तरह बदलाव लाएंगे, यह यक्ष प्रश्न है। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जनता बदलाव के नाम पर कई बार ठगी गई है, इसलिए ‘आप’ को वह कितनी तवज्जो देगी, यह भी एक बड़ा सवाल है?
जनता में यह बात घर कर गई है कि सभी राजनीतिक दल महज सत्ता तक पहुंचने के लिए गए जनता को ख्वाब दिखाते हैं और फिर उसी सिस्टम का हिस्सा बनकर उसका शोषण करते हैं, जिसको बदलने का वायदा किया गया था। जितने भी क्षेत्रीय दल अब तक अस्तित्व में आएं हैं, सब जनता की आकांक्षाएं पूरी करने के नाम पर आए थे, लेकिन सबने कल्याणकारी राज्य की अवधारणा का त्याग करके अपना हित साधने के लिए सत्ता का दुरुपयोग किया। आजादी के बाद से आम आदमी के शोषण का सिलसिला बदस्तूर जारी है। अरविंद केजरीवाल एंड पार्टी दूसरों को बेईमान बताकर खुद को इस तरह स्थापित करने की कवायद में लगी है, जैसे देश की बागडोर उनके हाथ में आ जाए, तो रामराज्य आ जाएगा। यह सही है कि भ्रष्टाचार आज की ज्वलंत समस्या है, लेकिन यह भी सोचा जाना चाहिए कि क्षेत्र, धर्म और जातियों में बंटे इस देश में केजरीवाल ऐसी विचारधारा के लोगों को कहां से लेकर आएंगे, जो इन सबसे ऊपर हों। क्या उनके पास ईमानदार और बेईमान परखने का कोई पैमाना है, जिससे वह यह तय करेंगे कि किसको ‘आप’ में लिया जाएगा, किसको नहीं?
अगले साल दिल्ली विधानसभा में चुनाव होने हैं। ट्रायल के तौर पर ‘आप’ अपने उम्मीदवार उसमें उतारेगी। इन्हीं चुनाव में पता चल जाएगा कि आम आदमी ‘आप’ से कितना जुड़ा है? अरविंद एंड कंपनी एक आंदोलन की उपज है। आंदोलन और राजनीति में फर्क होता है। उसे मीडिया ने बहुत ज्यादा ‘हाइप’ दिया है। मीडिया से पहचान तो बनाई जा सकती है, लेकिन जंग नहीं जीती जा सकती। ‘आप’ को जमीनी हकीकत का तब पता चलेगा, जब उसका कोई उम्मीदवार संसद या विधानसभा में पहुंचेगा और अपनी निधि का पूरा पैसा पूरी ईमानदारी से क्षेत्र के विकास में लगाने की कोशिश करेगा?     
(लेखक जनवाणी से जुड़े हैं)