सलीम अख्तर सिद्दीकी
खबर ब्रिटेन से है और इस्लाम की अवधारणा मसावात यानी धार्मिक और सामाजिक बराबरी के एकदम विपरीत है। ब्रिटिश रेचेल साराह लूई ने इस्लाम का अध्ययन करने के बाद महज 15 साल की उम्र में इस्लाम धर्म अपना लिया था। आज वह 30 साल की हैं, लेकिन 15 साल गुजर जाने के बाद भी ‘पैदाइशी मुसलमान’ उसे एक अच्छा मुसलमान नहीं मानते और उससे दूरी बनाकर चलते हैं। लूई का यह कहना बहुत कह जाता है कि यदि मैंने सिर्फ इस्लाम का अध्ययन करने के बजाय पहले मुिस्लम समुदाय को करीब से देखा होता, इस्लाम अपनाने का फैसला कभी नहीं करती। यह अकेली रेचेल का दर्द नहीं है। ब्रिटेन में इस्लाम तेजी से फैल रहा है। ब्रिटेन की एक गैर सरकारी संस्था ‘फेथ मैटर्स’ के सर्वे पर यकीन करें, तो 2010 तक ब्रिटेन में एक लाख लोग अपना धर्म छोड़कर इस्लाम अपना चुके हैं। 2010 में ही पांच हजार से अधिक लोगों ने इस्लाम कबूला है। ब्रिटिश नव मुस्लिमों ने भेदभाव के चलते अपने संगठन बना लिए हैं, ताकि वह भी एक ‘समुदाय’ के रूप में अपनी पहचान बना सकें। नव मुस्लिमों के साथ सबसे बड़ी समस्या शादी को लेकर आती है। इस्लाम का पैरोकार होने का दम भरने वाले ऊंची जात के मुसलमान भी शादी-ब्याह के मामले में जाति के अलग जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। तर्क यही दिया जाता है कि दूसरी जात में शादी करने से तालमेल नहीं बैठता। यानी रेचेल का दर्द गलत नहीं है, उसके सामने भी यही समस्या आई थी।
ब्रिटेन की यह घटना पूरे इस्लाम जगत की सच्चाई है। भारत भी इससे अछूता नहीं है। जब भारत में मुसलमान आए, तो उन्होंने बराबरी का संदेश दिया। सामाजिक और धार्मिक रूप से प्रताड़ित अन्य धर्मों के लोगों ने देखा कि मुसलमान कहे जाने वाले लोग एक साथ पूजा करते हैं, खाना खाते हैं और एक-दूसरे को छूने और गले लगाने से परहेज नहीं करते। नतीजा यह हुआ कि बड़ी तादाद में लोगों ने इस्लाम अपनाया। कथित ऊंची जात के लोगों को भी इस्लाम ने प्रभावित किया और वह भी इसमें दाखिल हुए। लेकिन, समस्या यह हुई कि जिन ऊंची जात के लोगों ने इस्लाम अपनाया, उन्होंने दलित जातियों से आए मुसलमानों को हमेशा ही हिकारत की नजर से देखा। धीरे-धीरे मुसलमान अगड़े (अशराफ), पिछड़े (अजलाफ) और दलित (अरजाल) में बंट गए। बाद में पिछड़े और दलित मुसलमानों को मिलाकर ‘पसमांदा’ शब्द चलन में आया। पसमांदा का मतलब वंचित या दबे-कुचले से था। यह सही है कि सभी मुसलमान इबादत तो साथ करते रहे, लेकिन सामाजिक रूप से अलग-थलग ही रहे। शिक्षा और सियासत में भी ऊंची जात यानी अशराफ, जो मुख्य रूप से शेख, सैयद, मुगल और पठान के रूप में देखे जाते थे, का ही दबदबा रहा। मुगलकाल से लेकर आज तक ऊंची जाति के मुसलमान ही हुक्मरां रहे।
कहा तो यह भी जाता है कि अगड़ी जातियों ने पिछड़ी मुस्लिम जातियों को इसलिए शिक्षित नहीं किया कि कहीं यह वर्ग तालीम की रोशनी पाकर उनकी इजारेदारी को चुनौती न देने लगे। यदि शिक्षा में मुसलमान पिछड़े हैं, तो इसकी बड़ी वजह यह भी रही है। यदि तथ्यों पर नजर दौड़ाएं तो पहली लोकसभा से लेकर मौजूदा लोकसभा में अब तक 400 मुसलमान सांसद चुने गए थे। इनमें 340 ऊंची जात के थे, तो मात्र 60 पिछड़ी जातियों से थे। भारत की मुस्लिम आबादी में लगभग 85 प्रतिशत दलित-पिछड़ी जाति के मुसलमान हैं। इस तरह 15 प्रतिशत अगड़े मुसलिम मुसलमानों के नाम पर राजनीति में हावी रहे। मुस्लिम राजनीति के नाम पर अगड़े ही लाभ उठाते रहे।
पसमांदा मुसलमानों का लगने लगा था कि उनका हक लगातार मारा जा रहा है। उत्तर प्रदेश में दलित हिंदुओं ने बसपा के बैनर पर एकजुट होकर सत्ता हासिल की, तो पसमांदा मुसलमानों को भी लगा कि जब वे भी मुस्लिम आबादी का 85 प्रतिशत हैं, तो उन्हें सत्ता में भागीदारी क्यों न मिले। इसी नजरिए के चलते बिहार मेें 1998 में ‘आॅल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज’ अस्तित्व में आया। यह महाज पसमांदा मुसलमानों की दुर्दशा को सामने लाया। नतीजा यह हुआ कि बिहार में पसमांदा मुसलमानों का आंदोलन रंग लाया और राजनीतिक दलों के लिए उन्हें नजरअंदाज करना मुश्किल हो गया। राजनीतिक दलों को भी लगा कि मुसलमानों के सबसे बड़े वर्ग को ही साथ लेने में फायदा है। अब उत्तर प्रदेश में भी पसमांदा मुस्लिम समाज के सम्मेलन होने लगे हैं। ‘दलित-पिछड़ा एक समान, हिन्दू हो या मुसलमान’ का नारा चलन में आ गया है। पसमांदा मुसलमान सच्चर समिति की रिपोर्ट से भी इत्तेफाक नहीं रखते। उनका मानना है कि सिर्फ दलित और पिछड़े मुसलमानों को ही आरक्षण मिलना चाहिए। उनकी सोच है कि यदि सभी मुसलमानों को आरक्षण मिला, तो क्रीमीलेयर ही फायदे में रहेगा।
अब तक वोटों का आंकड़ा हिंदू जातियों को अलग-अलग करके देखा जाता था और मुसलमानों को एक जगह गिना जाता था, लेकिन अब ऐसा नहीं है। अब किसी लोकसभा या विधानसभा के वोट का हिसाब लगाते हुए यह भी देखा जाता कि किस मुस्लिम जाति के कितने वोट हैं।
2012 के विधानसभा चुनाव में ऐसा अबकी बार हो चुका है। इसके चलते कई विधानसभा सीटों पर मुस्लिम जातियों में बंटे और अपनी-अपनी जाति के उम्मीदवार को वोट दिया। आगे इसके बढ़ने की और ज्यादा संभावना है। मुस्लिम अगड़ी जातियों ने पिछड़े और दलित मुसलमानों से भेदभाव करके उनमें जो अलगाव के बीज बोए थे, उन्हें अब राजनीतिक दल मंजिल तक लेकर जाएंगे। इस तरह इस्लाम का मसावात का संदेश दम तोड़ता नजर आता है।
मसावात का फलसफा सिर्फ मुसलमानों के लिए ही नहीं था, पूरी दुनिया के लोगों के लिए था, चाहे उसका धर्म कोई भी हो। पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब ने अपने अमल से यह साबित किया था कि इस्लाम सबके लिए है। उन्होंने गुलामों को भी गले लगाया। लेकिन, दिक्कत यह है कि पैगंबर की उम्मत के ही कुछ तथाकथित दानिशवरों ने इस्लाम के बुनियादी उसूल मसावात की जड़ों में मट्ठा डालने का काम किया। यदि ऐसा न होता, तो पाकिस्तान के हिंदुओं के मंदिर नहीं तोड़े जाते और उन्हें अपना मुल्क छोड़ने पर मजबूर नहीं होना पड़ता।
लंबे अरसे से चला आ रहा गैरबराबरी का सिलसिला रुका नहीं है। ब्रिटिश की रेचेल को नहीं मालूम था कि वह इस्लाम, जिसे अल्लाह ने पैगंबर मोहम्मद साहब के जरिए दुनिया में भेजा था, वह कहीं खो गया लगता है। वह जब किताबों से हटकर अमल में आई, तो उसे झटका लगना स्वाभाविक ही था। उलेमाओं को रेचेल की आपबीती को गंभीरता से लेना चाहिए और मुसलमान और ज्यादा ‘समुदायों’ में न बंटे, इस पर काम करना चाहिए। किसी गैर मुस्लिम के इस्लाम कबूल करने पर इतराने की बजाय, यह देखा जाना चाहिए कि उसे वह सम्मान मिल रहा है या नहीं, जिसकी उसे जरूरत है। वह दिन आना चाहिए, जब कोई रेचेल इस्लाम की ओर बढ़े, तो वह पहले मुसलमानों के किरदार से प्रभावित हो और उसके बाद इस्लाम का अध्ययन करके इस्लाम कबूल करे।
बेहतर लेखनी !!!
ReplyDeleteबहुत अच्छा लिखा है
ReplyDelete