Wednesday, December 26, 2012

समाज के लिए भी चिंतन का वक्त


सलीम अख्तर सिद्दीकी
दिल्ली में पहियों पर बलात्कार अनहोनी घटना नहीं है। तथाकथित मेट्रो शहरों में अब यह आम है। कभी-कभी कोई हादसा मीडिया के जरिए हाइलाइट हो जाता है और उससे संसद भी हिल जाती है और हमारी कई माननीया सांसद रोने लगती हैं। इस हादसे पर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस मार्कंडेय काटजू का जो बयान आया है, उससे बहुत लोग असहमत हो सकते हैं, लेकिन उन्होंने कड़वी सच्चाई बयान की है। दिल्ली हादसे और इस पर सड़क से संसद तक होने वाले हंगामों के बीच कई बलात्कार की खबरें आर्इं, लेकिन उनका ऐसे संज्ञान ऐसे नहीं लिया गया, जैसे बस गैंगरेप का। आज जो लोग सड़कों पर आक्रोश दिखा रहे हैं, और रोज ही कहीं न कहीं कैंडिल मार्च निकाल रहे हैं, वहीं लोग बलात्कार की घटना की खबर को नजरअंदाल करके आगे बढ़ जाते हैं। क्या हमारी संवेदनाओं को जगाने के लिए वीभत्स और जघन्य कांड होना जरूरी है? इससे कोई भी इंकार नहीं कर सकता कि दिल्ली की घटना अति अमानवीय है, लेकिन छोटे शहरों, कस्बों और देहातों में होने वाले बलात्कार बड़ी खबर क्यों नहीं है? पुलिस भी गरीब-गुरबाओं की लड़कियों के साथ होने वाले बलात्कार की रिपोर्ट तक लिखना गवारा नहीं करती। अंत में पीड़ित अपनी नियति मानकर रो-पीटकर शांत होकर बैठे जाते हैं। कई जगहों पर तो बलात्कारी पर जुर्माना लगाकर या पंचायत में थोड़ी-बहुत सजा देकर छोड़े जाने की खबरें आती रही हैं।
समाज में बदलाव हो रहे हैं। यह कहने में हिचक नहीं है कि युवा पीढ़ी का एक वर्ग कुछ ज्यादा ही उन्मुक्त हुआ है। दिल्ली की ही बात करें तो पार्कों, मेट्रो, बसों और अन्य सार्वजनिक स्थलों पर कुछ ऐसे नजारे देखने को मिल जाते हैं, जिनकी कल्पना कभी पश्चिमी देशों में की जाती थी। दिल्ली जैसे बड़े शहर ही क्यों, अब तो छोटे और मझोले शहर भी इस मामले में होड़ लगाते दिख रहे हैं। जिन पश्चिमी देशों के बारे में कहा जाता है कि वहां के लोग कुछ मामलों में उन्मुक्त व्यवहार करते हैं, गलत है। नैतिकता की वकालत पश्चिमी देशों में भी की जाती है, जिनकी नकल करने पर हम उतारु हैं। पिछले साल पश्चिमी देशों की कुछ मांओं ने कहा था कि वे नहीं चाहती कि हमारे बच्चे ब्रिटनी स्पीयर्स के कार्यक्रम देखें। सच तो यह है कि पश्चिमी देश यौन उन्मुक्तता से आजिज आ गए हैं और इससे पीछा छुड़ाना चाहते हैं। लेकिन भारत जैसे विकासशील देश इसे हाथोंहाथ ले रहे हैं। बल्कि कहना चाहिए कि उन्हें यौन उन्मुक्ता की ओर जबरदस्ती धकेला जा रहा है। कुछ लोगों का सार्वजनिक स्थानों पर किया गया गलत व्यवहार किसी को कुंठित कर सकता है। दिल्ली के कुछ पार्कों में खुलेआम अश्लीलता की हदें पार की जाती हैं। उस पर आज तक किसी ने उंगली नहीं उठाई, जो उठाता है, उसे दकियानूसी कहकर किनारे कर दिया जाता है। तर्क दिया जाता है कि दो व्ययस्क आपस में किस तरह के संबंध रख रहे हैं, उसमें दखलअंदाजी नहीं की जानी चाहिए। तर्क अपनी जगह सही है, लेकिन बंद कमरों में किया जाना वाला व्यवहार, जब सार्वजनिक स्थलों पर किया जाएगा, तो उसका परिणाम वहीं होंगे, जो आज दिखाई दे रहे हैं। बहुत हद तक समाज में हो रहे यही परिवर्तन लड़कियों के प्रति नजरिया बदलने के लिए जिम्मेदार हैं।
बाजार तय कर रहा है कि समाज में किस तरह के परिवर्तन आएं, जिससे भारी मुनाफा कमाया जा सके। यौन उन्मुक्ता को बाजार ही बढ़ा रहा है। आज की फिल्में, टीवी सीरियल और यहां तक कि विज्ञापन हमें क्या सीख दे रहे हैं? किसी परफ्यूम, कंडोम या अंत:वस्त्रों के विज्ञापन सॉफ्ट पोर्न से कम नहीं होते। अतीत पर गौर करें, तो देखेंगे कि फिल्मों और टीवी पर यौन उन्मुक्तता को धीमे जहर तौर दिया जाता रहा है, जिसे समाज आत्मसात करता रहा। वही जहर आज अपना काम कर रहा है। पारिवारिक कहे जाने वाले सीरियलों में अंतरंग सीन दिखाई देने लगे हैं। ‘बड़े अच्छे लगते हैं’ जैसे पारिवारिक सीरियल में अंतरंग सीन देना बताने के लिए काफी है कि बाजार समाज को कहां ले जाना चाहता है? बच्चे फिल्मों और टीवी पर बड़े होंगे, किशोर होते-होते वे क्या सीखेंगे, क्या यह बताने की जरूरत है? पोर्न फिल्मों का बाजार बहुत तेजी के साथ फैला है। 10 घंटे की पोर्न डीवीडी सरेआम फुटपाथ पर पुलिस के संरक्षण में धड़ल्ले से बेची जाती हैं। इंटरनेट पर एक क्लिक पर हजारों पोर्न साइटें खुलकर सामने आ जाती हैं। समाजशास्त्रियों के लिए यह शोध का विषय हो सकता है कि क्या फिल्मों और टीवी पर बढ़ती यौन उन्मुक्ता के साथ ही बलात्कार के मामले भी बढ़े हैं? क्या समाज को घरों में घुस आई यौन उन्मुक्तता के खिलाफ सड़कों पर आने की जरूरत नहीं है?
बलात्कारियों को नई-नई सजा देने के तरीके सुझाए जा रहे हैं। कुछ अतिउत्साही लोग बलात्कारी को नपुसंक बनाने की वकालत भी जोरशोर से कर रहे हैं। जनता ऐसे चित्र लेकर प्रदर्शन कर रही है, जिसमें कुछ लोगों को सरेआम फांसी पर लटकाता हुए दिखाया गया है, जिनके चारों ओर जनता खड़ी है। इसे भी समझने की जरूरत है कि जब दुनियाभर में फांसी की सजा को खत्म करने की मुहिम चल रही है, तो कुछ लोग फांसी सजा की मांग कर रहे हैं। यही लोग अरब देशों में इस तरह की सजा देने को बर्बरता की श्रेणी में रखने से नहीं चूकते। कुछ न्यायविदों की राय है कि फांसी की सजा के बजाय ताउम्र की सजा दी जानी चाहिए, जो सही भी है। याद करिए 80 का दशक, जिसमें दहेज के लिए बहुओं को जला देने की घटनाएं बेतहाशा बढ़ गई थीं। तब भी दहेज हत्याओं पर लगाम लगाने के लिए कानून की मांग की गई थी। कानून बना, लेकिन उसका जमकर दुरुपयोग किया गया। एक वक्त वह भी आया कि दहेज एक्ट की प्रासंगकिता पर ही सवाल खड़े हो गए। इसी तरह हरिजन एक्ट का भी जमकर दुरुपयोग किया गया। इसकी क्या गारंटी है कि बलात्कारी को मौत की सजा देने के प्रावधान किए जाने पर इसका दुरुपयोग नहीं होगा। हमारे समाज में यह भी एक समस्या है कि विरोधियों को सब सिखाने के लिए कानूनों का भी दुरुपयोग किया जाता है। बलात्कारियों को कड़ी सजा का प्रावधान तो होना ही चाहिए, लेकिन उसका दुरुपयोग न हो, इसका भी ध्यान रखना जाना चाहिए।
बलात्कारियों के लिए कड़े कानून की मांग करने के साथ ही समाज की भी जिम्मेदारी बनती है कि इस वक्त गंभीरता से चिंतन करे कि वह बाजार की साजिश का शिकार होकर कहां जा रहा है? हम भारतीयों की एक संस्कृति रही है, जिसका पश्चिमी संस्कृति से कोई मेल नहीं है। दुर्भाग्य से हम पश्चिमी संस्कृति से ही होड़ करके अपना नुकसान कर रहे  हैं। दूसरी बात यह कि कानून देश के सभी नागरिकों के लिए समान हो। गरीब की बेटी बलात्कार की शिकार बने या किसी उच्च वर्ग की, संसद को हिलना ही चाहिए।  लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं होता है।
(लेखक जनवाणी से जुड़े हैं)

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