Sunday, December 23, 2012

हमें क्या मतलब?

सलीम अख्तर सिद्दीकी
देहरादून से दिल्ली के लिए आखिरी बस साढ़े दस बजे चली थी। बस चलने को ही थी कि उसमें 8-10 लड़के, जिनकी उम्र 20 से 25 के बीच रही होगी, बस में चढ़े। लड़कों के चेहरों-मोहरों और बातचीत से अंदाजा लग रहा था कि तालीम के नाम पर वे लगभग जीरो थे और शायद मसूरी घूमकर आ रहे थे। सबके हाथ में मोबाइल थे। कई के कान में इयरफोन लगे हुए थे। एक लड़के के मोबाइल से कर्कश आवाज में बेहूदा गाना बज रहा था। सभी ने बस की सबसे पिछली सीटों पर डेरा जमा लिया था। बस चलते ही वे सभी लगभग अराजक हो गए थे। बेहूदा लतीफों पर जोरदार अट्ठाहस बार-बार गूंजने लगते। मोबाइल से बेहूदा गानों का बजना लगातार जारी रहा। उनसे दो सीटें छोड़कर दो लड़कियां बैठी हुई थीं। थोड़ी देर बाद लड़कों ने लड़कियों पर अप्रत्यक्ष रूप से कमेंट करने शुरू कर दिए। कुछ देर तक दोनों लड़कियों ने बर्दाश्त किया। एक लड़की उठी, लेकिन दूसरी ने उसका हाथ पकड़कर बैठा दिया। इसका मतलब यही था, ‘जाने दो, पंगा लेने से कोई फायदा नहीं।’ थोड़ी देर बाद कुछ अन्य सवारियों के तेवर बदलने लगे। लगभग 30 साल का लड़का, जिसके साथ उसकी पत्नी और एक चार-पांच साल का लड़का भी था, बार-बार बैचेनी से पहलू बदल रहा था। वह बार-बार उन लड़कों को देखता और खून का घंूट पीकर रह जाता। उसकी पत्नी उसकी मंशा समझ रही थी, लेकिन वह पति को ऐसी नजरों से देख रही थी, जैसे  कह रही हो, ‘तुम्हें क्या पड़ी है दखल देने की, बस में और सवारियां    भी तो हैं।’ हालांकि सभी सवारियों की बैचेनी से लग रहा था कि सभी उनकी अराजकता से परेशान हैं। बस की रफ्तार के साथ रात भी अपना सफर पूरा करने में लगी थी। कुछ लोग सोना चाहते थे, लेकिन  आंखें बंद किए शायद लड़कों को कोस रहे थे। लड़कों का हौसला बढ़ने लगा। वह ज्यादा अराजक होने लगे। बात हद से गुजरी तो लगभग 17-18 साल का लड़का, जो अपनी मां के साथ सफर कर रहा था, ने पीछे मुड़कर देखा और वह अभी आधा ही खड़ा हुआ था कि उसकी मां ने उसका हाथ पकड़कर जबरदस्ती उसे बैठा दिया और धीमी आवाज में नसीहतें देने लगी। लड़के का चेहरा तमतमा रहा था, लेकिन         मजबूर था। रात और ढलने लगी। लड़के भी शायद थक गए थे। उनकी आवाजें धीमी होती चली गर्इं। जिनकी मंजिल आती गई, वे बस से उतरते चले गए। बस एक रेस्टोरेंट पर रुकी। कंडक्टर ने वहां 20 मिनट बस रुकने का ऐलान किया। कुछ सवारियां ताजादम होने के लिए बस से बाहर निकलीं। मैंने उन लड़कों पर एक उचटती से नजर डाली। सभी एक-दूसरे पर बेसुध पड़े खर्राटे ले रहे थे। इयरफोन अब भी उनके कान में लगे हुए थे। मुझे उस दिन पता चला कि अराजक तत्वों के हौंसले क्यों बढ़ते हैं।

2 comments:

  1. आपकी यह बेहतरीन रचना शुकरवार यानी 28/12/2012 को

    http://nayi-purani-halchal.blogspot.com पर लिंक की जाएगी…
    इस संदर्भ में आप के सुझाव का स्वागत है।

    सूचनार्थ,

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  2. salim je sahi kaha hai aapne sub chahte hai samaj mai sudhar ho per pehl khud na ker ntusre se chahte hai

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