सलीम अख्तर सिद्दीकी
आरक्षण हमेशा विवादों के घेरे में रहा है। इसमें शक नहीं कि दलित जातियां किसी न किसी रूप में प्रताड़ित रहीं। यह भी सच है कि एक समय वह भी था कि कुछ जातियों के लिए अलिखित रूप से सब कुछ ‘आरक्षित’ था और कमोबेश आज भी है। सामाजिक रूप से दबी-कुचली और हाशिए पर पड़ी जातियों के उत्थान के लिए संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की गई थी। उन जातियों का कितना उत्थान हुआ, यह तो पता नहीं, लेकिन आरक्षण राजनीति का आधार बना, तो इसकी वजह से सामाजिक विघटन भी बढ़ा। 1990 में जब जनता दल के प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने पिछड़ी जातियों को मंडल आयोग की सिफारिशों के तहत 27 प्रतिशत आरक्षण को लागू किया था, तो देश में भूचाल आ गया था। उनके इस कदम से देश की राजनीति की दिशा बदली और अगड़ी जातियों की प्रतिनिधि माने जाने वाली भारतीय जनता पार्टी ने मंडल का तोड़ कमंडल में निकाला था। लालकृष्ण आडवाणी रामरथ पर सवार हो गए थे। उसके बाद देश में क्या हुआ, यह सब जानते हैं।
किसी की सहायता करने की हद मुकर्रर होनी चाहिए। आखिर जिस आरक्षण का प्रावधान महज 10 साल के लिए किया गया था, वह 60 साल तक भी जारी क्यों है? चलिए यह भी मान किया कि अभी दलित जातियां समाज की मुख्यधारा में नहीं आई हैं, इसलिए इसे जारी रखा जाना जरूरी है। लेकिन प्रमोशन में आरक्षण का क्या औचित्य है? ऐसा नहीं है कि दलित जातियों से राजनीतिक दलों से हमदर्दी है। वजह उनका वोट बैंक है, जिसे हर दल हथियाना चाहता है। बसपा इसके समर्थन में इसलिए है, क्योंकि उसकी राजनीति का आधार ही दलित हैं। समाजवादी पार्टी इसलिए इसका मुखर विरोध कर सकती है, क्योंकि उसे पता है कि दलित वोट उसे नहीं मिलने वाले। प्रमोशन में आरक्षण का विरोध करके वह अगड़ी जातियों की खैरख्वाह बनने की फिराक में है, जिससे वह आने वाले लोकसभा चुनाव में 60-70 सांसद जीतने का ख्वाब पूरा कर सके। यदि पिछड़ी जातियों, खासकर यादवों को प्रमोशन में आरक्षण देने का मामला होता, तो क्या सपा इसी तरह विरोध करती?
ऐसा नहीं है कि आरक्षण का विरोध केवल विरोध के लिए किया जाए। सही है कि संविधान में आरक्षण हो, लेकिन योग्यता से समझौता क्यों किया जाए? किसी नौकरी के लिए जिस योग्यता की जरूरत है, उसके लिए योग्य व्यक्ति का ही चुनाव किया जाना चाहिए। सामान्य वर्ग का व्यक्ति योग्य होते हुए भी, इसलिए नौकरी से वंचित रह जाता है, क्योंकि आरक्षित कोटा पूरा करना है। इस चक्कर में योग्य व्यक्ति बाहर बैठा रहता है, लेकिन कम योग्य को नौकरी मिल जाती है। कम योग्य व्यक्ति किस तरह अपने काम से न्याय कर पाएगा, यह क्यों नहीं सोचा जाता? प्रमोशन में आरक्षण बिल पास होने के बाद यही होगा कि कर्मठ, ईमानदार और योग्य कर्मचारी को तो प्रमोशन नहीं मिलेगा, लेकिन कम योग्य और कनिष्ठ कर्मचारी को प्रमोशन मिल सकता है। इससे कई चीजें प्रभावित होंगी। योग्य व्यक्ति का मनोबल टूटेगा, जिससे उसका काम प्रभावित होगा। वह क्यों कर्मठता से काम करेगा, जब उसे काम के हिसाब से प्रमोशन ही नहीं मिलेगा। दूसरी ओर आरक्षण के तहत ऊपर जाने वाला क्यों काम करेगा, जब उसे काम किए बगैर ही प्रमोशन मिल जाएगा। देश में वैसे ही अच्छे कर्मचारियों की जरूरत है। प्रमोशन में आरक्षण का मतलब होगा सरकारी मशीनरी में सुस्ती आ जाना।
हालांकि प्रमोशन में आरक्षण बिल में सरकार इस संशोधन के साथ पेश करने वाली है कि सरकारी विभागों में प्रमोशन में आरक्षण सिर्फ राज्य सेवाओं में ही लागू होगा। इसके बावजूद सपा बिल का विरोध करने में जी जान से जुटी है। बिल के विरोध में उत्तर प्रदेश के आरक्षण विरोधी कर्मचारी और अधिकारी तीन दिन से सड़कों पर हैं। खतरनाक बात यह है कि प्रदेश के कर्मचारी और अधिकारी आरक्षण विरोधी और समर्थक के रूप में विभाजित हो गए हैं। समर्थकों ने भी सड़क पर उतरने का ऐलान किया है, तो प्रदेश में कानून व्यवस्था की समस्या पैदा हो सकती है। याद करें, जब मंडल आयोग की सिफारिशें लागू की गर्इं थीं, तो देश में कितनी आग लगी थी। डर यही है कि कहीं इतिहास एक बार फिर न दोहाराया जाए। मजेदार बात यह है कि सपा आज जिस प्रमोशन में आरक्षण के विरोध में खड़ी है, उसने खुद 1994 में बहुजन समाज पार्टी की साझा सरकार में रहते हुए दलितों को सरकारी नौकरियों में प्रमोशन देने का कानून बनाया था। जब 2002 में बसपा और भाजपा की संयुक्त सरकार बनी, तो उसने दलितों को तेजी से प्रमोशन देने के लिए परिणामी ज्येष्ठता भी प्रदान की थी। इसका असर यह हुआ था कि कनिष्ठ अधिकारी तेजी के साथ अगड़ी जातियों के वरिष्ठ अधिकारियों को पीछे छोड़ते हुए प्रमोशन पाकर उच्च पदों पर पहुंच गए थे। 2005 में सपा सरकार ने परिणामी ज्येष्ठता नियम रद्द कर दिया था, लेकिन 2007 में मायावती सरकार ने फिर इस नियम को लागू कर दिया था।
इस नियम से आहत अगड़ी जातियों के अधिकारी हाईकोर्ट गए थे, जिसने इस नियम को स्थगित कर दिया था। इसी 27 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने भी उत्तर प्रदेश में दलितों को प्रमोशन में आरक्षण और परिणामी ज्येष्ठता के नियम को अवैधानिक बताया था। फैसला देते समय सुप्रीमकोर्ट की यह टिप्पणी महत्वपूर्ण थी कि संविधान में आरक्षण की व्यवस्था नौकरी के लिए है न कि नौकरी करते समय प्रमोशन देने की। यानी सुप्रीमकोर्ट का साफतौर पर कहना था कि आरक्षण के तहत नौकरी तो दी जा सकती है, लेकिन प्रमोशन योग्यता के आधार पर ही दिया जाना चाहिए। अब संसद में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पलटने के लिए प्रमोशन में संशोधन आरक्षण बिल लाया जा रहा है। सपा ने 2012 के चुनाव के समय प्रमोशन में आरक्षण खत्म करने का वादा किया था। वह कहने को अपना चुनावी वादा पूरा कर रही है, लेकिन जनता इतनी नासमझ नहीं है कि वह यह न समझे कि इसमें भी राजननीति छिपी हुई है।
राज्यसभा में सोमवार को आरक्षण बिल पर बहस होनी है। जाहिर है, इस ठंड में राज्यसभा का तापमान गर्म रहेगा। बिल पास न हो, इसके लिए समाजवादी पार्टी पूरी कोशिश करेगी। वैसी भी सच्चाई यह है कि कांग्रेस और भाजपा के अधिकतर सांसद भी दिल से नहीं चाहते होंगे कि बिल पास हो। खासतौर से भाजपा तो बिल्कुल भी नहीं चाहेगी। उसका नेतृत्व अच्छी तरह समझता है कि उत्तर प्रदेश में दलित वोट बसपा से आगे कुछ सोचना नहीं चाहता। यदि वह बिल पास कराती है, तो उसका परंपरागत अगड़ी जातियों का वोट भी छिटक सकता है। इसलिए संभव है कि भाजपा सोमवार को बिल के समर्थन में होने का दिखावा भर करे और यह कोशिश करते हुए दिखे कि ऐसा कुछ किया जाए, जिससे सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। बड़ा सवाल यह भी है कि यदि बिल पास भी हो जाता है, तो इसका अदालती इतिहास देखते हुए यह कितनी दिन लागू रह पाएगा।
(लेखक जनवाणी से जुड़े हैं)
आरक्षण हमेशा विवादों के घेरे में रहा है। इसमें शक नहीं कि दलित जातियां किसी न किसी रूप में प्रताड़ित रहीं। यह भी सच है कि एक समय वह भी था कि कुछ जातियों के लिए अलिखित रूप से सब कुछ ‘आरक्षित’ था और कमोबेश आज भी है। सामाजिक रूप से दबी-कुचली और हाशिए पर पड़ी जातियों के उत्थान के लिए संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की गई थी। उन जातियों का कितना उत्थान हुआ, यह तो पता नहीं, लेकिन आरक्षण राजनीति का आधार बना, तो इसकी वजह से सामाजिक विघटन भी बढ़ा। 1990 में जब जनता दल के प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने पिछड़ी जातियों को मंडल आयोग की सिफारिशों के तहत 27 प्रतिशत आरक्षण को लागू किया था, तो देश में भूचाल आ गया था। उनके इस कदम से देश की राजनीति की दिशा बदली और अगड़ी जातियों की प्रतिनिधि माने जाने वाली भारतीय जनता पार्टी ने मंडल का तोड़ कमंडल में निकाला था। लालकृष्ण आडवाणी रामरथ पर सवार हो गए थे। उसके बाद देश में क्या हुआ, यह सब जानते हैं।
किसी की सहायता करने की हद मुकर्रर होनी चाहिए। आखिर जिस आरक्षण का प्रावधान महज 10 साल के लिए किया गया था, वह 60 साल तक भी जारी क्यों है? चलिए यह भी मान किया कि अभी दलित जातियां समाज की मुख्यधारा में नहीं आई हैं, इसलिए इसे जारी रखा जाना जरूरी है। लेकिन प्रमोशन में आरक्षण का क्या औचित्य है? ऐसा नहीं है कि दलित जातियों से राजनीतिक दलों से हमदर्दी है। वजह उनका वोट बैंक है, जिसे हर दल हथियाना चाहता है। बसपा इसके समर्थन में इसलिए है, क्योंकि उसकी राजनीति का आधार ही दलित हैं। समाजवादी पार्टी इसलिए इसका मुखर विरोध कर सकती है, क्योंकि उसे पता है कि दलित वोट उसे नहीं मिलने वाले। प्रमोशन में आरक्षण का विरोध करके वह अगड़ी जातियों की खैरख्वाह बनने की फिराक में है, जिससे वह आने वाले लोकसभा चुनाव में 60-70 सांसद जीतने का ख्वाब पूरा कर सके। यदि पिछड़ी जातियों, खासकर यादवों को प्रमोशन में आरक्षण देने का मामला होता, तो क्या सपा इसी तरह विरोध करती?
ऐसा नहीं है कि आरक्षण का विरोध केवल विरोध के लिए किया जाए। सही है कि संविधान में आरक्षण हो, लेकिन योग्यता से समझौता क्यों किया जाए? किसी नौकरी के लिए जिस योग्यता की जरूरत है, उसके लिए योग्य व्यक्ति का ही चुनाव किया जाना चाहिए। सामान्य वर्ग का व्यक्ति योग्य होते हुए भी, इसलिए नौकरी से वंचित रह जाता है, क्योंकि आरक्षित कोटा पूरा करना है। इस चक्कर में योग्य व्यक्ति बाहर बैठा रहता है, लेकिन कम योग्य को नौकरी मिल जाती है। कम योग्य व्यक्ति किस तरह अपने काम से न्याय कर पाएगा, यह क्यों नहीं सोचा जाता? प्रमोशन में आरक्षण बिल पास होने के बाद यही होगा कि कर्मठ, ईमानदार और योग्य कर्मचारी को तो प्रमोशन नहीं मिलेगा, लेकिन कम योग्य और कनिष्ठ कर्मचारी को प्रमोशन मिल सकता है। इससे कई चीजें प्रभावित होंगी। योग्य व्यक्ति का मनोबल टूटेगा, जिससे उसका काम प्रभावित होगा। वह क्यों कर्मठता से काम करेगा, जब उसे काम के हिसाब से प्रमोशन ही नहीं मिलेगा। दूसरी ओर आरक्षण के तहत ऊपर जाने वाला क्यों काम करेगा, जब उसे काम किए बगैर ही प्रमोशन मिल जाएगा। देश में वैसे ही अच्छे कर्मचारियों की जरूरत है। प्रमोशन में आरक्षण का मतलब होगा सरकारी मशीनरी में सुस्ती आ जाना।
हालांकि प्रमोशन में आरक्षण बिल में सरकार इस संशोधन के साथ पेश करने वाली है कि सरकारी विभागों में प्रमोशन में आरक्षण सिर्फ राज्य सेवाओं में ही लागू होगा। इसके बावजूद सपा बिल का विरोध करने में जी जान से जुटी है। बिल के विरोध में उत्तर प्रदेश के आरक्षण विरोधी कर्मचारी और अधिकारी तीन दिन से सड़कों पर हैं। खतरनाक बात यह है कि प्रदेश के कर्मचारी और अधिकारी आरक्षण विरोधी और समर्थक के रूप में विभाजित हो गए हैं। समर्थकों ने भी सड़क पर उतरने का ऐलान किया है, तो प्रदेश में कानून व्यवस्था की समस्या पैदा हो सकती है। याद करें, जब मंडल आयोग की सिफारिशें लागू की गर्इं थीं, तो देश में कितनी आग लगी थी। डर यही है कि कहीं इतिहास एक बार फिर न दोहाराया जाए। मजेदार बात यह है कि सपा आज जिस प्रमोशन में आरक्षण के विरोध में खड़ी है, उसने खुद 1994 में बहुजन समाज पार्टी की साझा सरकार में रहते हुए दलितों को सरकारी नौकरियों में प्रमोशन देने का कानून बनाया था। जब 2002 में बसपा और भाजपा की संयुक्त सरकार बनी, तो उसने दलितों को तेजी से प्रमोशन देने के लिए परिणामी ज्येष्ठता भी प्रदान की थी। इसका असर यह हुआ था कि कनिष्ठ अधिकारी तेजी के साथ अगड़ी जातियों के वरिष्ठ अधिकारियों को पीछे छोड़ते हुए प्रमोशन पाकर उच्च पदों पर पहुंच गए थे। 2005 में सपा सरकार ने परिणामी ज्येष्ठता नियम रद्द कर दिया था, लेकिन 2007 में मायावती सरकार ने फिर इस नियम को लागू कर दिया था।
इस नियम से आहत अगड़ी जातियों के अधिकारी हाईकोर्ट गए थे, जिसने इस नियम को स्थगित कर दिया था। इसी 27 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने भी उत्तर प्रदेश में दलितों को प्रमोशन में आरक्षण और परिणामी ज्येष्ठता के नियम को अवैधानिक बताया था। फैसला देते समय सुप्रीमकोर्ट की यह टिप्पणी महत्वपूर्ण थी कि संविधान में आरक्षण की व्यवस्था नौकरी के लिए है न कि नौकरी करते समय प्रमोशन देने की। यानी सुप्रीमकोर्ट का साफतौर पर कहना था कि आरक्षण के तहत नौकरी तो दी जा सकती है, लेकिन प्रमोशन योग्यता के आधार पर ही दिया जाना चाहिए। अब संसद में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पलटने के लिए प्रमोशन में संशोधन आरक्षण बिल लाया जा रहा है। सपा ने 2012 के चुनाव के समय प्रमोशन में आरक्षण खत्म करने का वादा किया था। वह कहने को अपना चुनावी वादा पूरा कर रही है, लेकिन जनता इतनी नासमझ नहीं है कि वह यह न समझे कि इसमें भी राजननीति छिपी हुई है।
राज्यसभा में सोमवार को आरक्षण बिल पर बहस होनी है। जाहिर है, इस ठंड में राज्यसभा का तापमान गर्म रहेगा। बिल पास न हो, इसके लिए समाजवादी पार्टी पूरी कोशिश करेगी। वैसी भी सच्चाई यह है कि कांग्रेस और भाजपा के अधिकतर सांसद भी दिल से नहीं चाहते होंगे कि बिल पास हो। खासतौर से भाजपा तो बिल्कुल भी नहीं चाहेगी। उसका नेतृत्व अच्छी तरह समझता है कि उत्तर प्रदेश में दलित वोट बसपा से आगे कुछ सोचना नहीं चाहता। यदि वह बिल पास कराती है, तो उसका परंपरागत अगड़ी जातियों का वोट भी छिटक सकता है। इसलिए संभव है कि भाजपा सोमवार को बिल के समर्थन में होने का दिखावा भर करे और यह कोशिश करते हुए दिखे कि ऐसा कुछ किया जाए, जिससे सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। बड़ा सवाल यह भी है कि यदि बिल पास भी हो जाता है, तो इसका अदालती इतिहास देखते हुए यह कितनी दिन लागू रह पाएगा।
(लेखक जनवाणी से जुड़े हैं)
सुन्दर लेखन !!
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