Monday, July 23, 2012

लड़की को दुनिया में आने ही मत दो

- सलीम अख्तर सिद्दीकी
जमाना बदल रहा है, लेकिन समाज का एक वर्ग बदलने को तैयार नहीं है। अक्सर कुछ लोग इकट्ठे होते हैं और ऐसे फरमान जारी कर दिए जाते हैं, जिनका कोई औचित्य नहीं होता। असारा तो उदाहरण भर है, सच तो यह है कि अधिकतर घरों में खाप बैठी हैं, जिन्हें बेटी या बहन की चिंता है, लेकिन बेटा या भाई बाहर क्या कर रहा है, इसकी परवाह नहीं होती। इसकी वजह यह है कि बेटा कुछ भी करता रहे, ‘इज्जत’ खाक में नहीं मिलती, लेकिन बेटी ने अगर यह कह दिया कि वह फलां लड़के से शादी करना चाहती है, तो बस कयामत आ जाती है। अगर लड़की ने घरवालों की मर्जी के बगैर शादी कर ली, तो उसे या तो जान से हाथ धोना पड़ता है या अपने परिवार को हमेशा के लिए छोड़ना पड़ता है। कहा जा रहा है कि खाप पंचायतें अच्छे फैसले भी लेती हैं। कन्या भ्रूण हत्या, दहेज लेन-देन जैसी कुरीतियों पर भी वार करती हैं। सवाल यह है कि पंचायतों की उन बातों को मान कौन रहा है? शादियों में पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है। भव्य शादियां करने की होड़ लगी है। हरियाणा और वेस्टयूपी, जहां खाप पंचायतें सबसे ज्यादा मुखर हैं, आंकड़े गवाह हैं कि वहीं सबसे ज्यादा भ्रूण हत्याएं हो रही हैं। कन्याभ्रूण हत्या के पीछे भी स्त्री विरोधी भावना ही काम करती है। ऐसा करने वालों को भय सताता रहता है कि लड़की जात है, कहीं कुछ कर बैठी, तो समाज में मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे। आसान रास्ता ढंूढ लिया गया है कि लड़की को दुनिया में आने ही मत दो। न लड़की घर में होगी और न ही इज्जत जाने का खतरा रहेगा।
खाप पंचायतें भ्रूण हत्या के खिलाफ कितना बोल लें, कोई मानने को तैयार नहीं होगा। लेकिन जब पंचायत यह कहती है कि लड़कियां बाजार में अकेली न जाएं, जींस न पहनें, मोबाइल का इस्तेमाल न करें, तो सभी उस पर फौरन ही एकमत हो जाते हैं। यह अच्छी बात है कि खाप पंचायतें अन्य मुद्दों पर भी फैसले लेती हैं, लेकिन जितनी शिद्दत और जल्दी महिलाओं के बारे में फैसले लिए जाते हैं और महिलाओं पर उनका मानने का दबाव होता है, इसके विपरीत अन्य फैसलों को हवा में उड़ा दिया जाता है। खाप पंचायतों की यही नाकामी उन्हें कठघरे में खड़ी करती है।
 जमाना बदल रहा है। गांवों-कस्बों की लड़कियां भी नए कीर्तिमान बना रही हैं। उच्च शिक्षा ले रही हैं। आजादी भी मिली है। लेकिन जीवन साथी चुनने की आजादी समाज अभी लड़कियों को देना नहीं चाहता। कुछ लोगों न अपनी बेटियों को यह आजादी दे दी है। जिस दिन समाज का बड़ा बर्ग संकुचित सोच से बाहर आ जाएगा, उस दिन आॅनर किलिंग का भी अस्तित्व नहीं रहेगा।

6 comments:

  1. बजे बाँसुरी बेसुरी, काट फेंकिये बाँस ।

    यही मानसिकता इधर, कन्या भ्रूण विनाश ।

    कन्या भ्रूण विनाश, लाश अपनी ढो लेंगे ।

    नहीं कहीं अफ़सोस, कठिन कांटे बो देंगे ।

    गर इज्जत की फ़िक्र, व्याह करते हो काहे ?

    करेगा ईश्वर न्याय, भरो दुल्हन बिन आहें ।।

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  2. उत्कृष्ट प्रस्तुति बुधवार के चर्चा मंच पर ।।

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  3. सटीक लेख !

    लड़की कब लड़की होती है
    ये भी तो समझ में कहाँ आता है
    माँ का होना मजबूरी है
    वो होती ही है खुद के होने के लिये
    बीबी का होना जरूरी है
    घर के कामों का समय पर होने के लिये
    कोई तो बताये कौन सी लड़की नहीं होती
    जरूरी हो जाती है और कोन सी लड़की
    मजबूरी हो जाती है !!

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  4. लड़के हक को छीनते, बेटी करती प्यार।
    फिर भी बेटे माँगते, कैसा ये संसार।।

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  5. अभी हाल ही में अमर उजाला के एक लेख में खाप पंचायतों की जिस तरह वकालत की गई ,वह एक तरह का खोखला आदर्शवाद ही है । कुछ लोग खाप पंचायतों से उलझना नहीं चाहते । ऐसे माहौल में आप सच्ची पत्रकारिता कर रहे हैं । जो समाज केवल लड़कियों पर प्रतिबन्ध लगाता हो उसे हम सभ्य नहीं कह सकते।-रोहित कौशिक

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  6. bahut hi sahi baat.kuch logo ko dekha hai is baat ka samrthan karte hue ki ladki badi hokar bhag na jae islie bhrun hatya...kitna ajeeb hai mansikta badaklti hi nahi

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