Thursday, October 15, 2009

सिस्टम से लड़ें, नक्सलवाद से नहीं


सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
आजकल नक्सलवाद की बहुत चर्चा है। सरकार नक्सलवाद से आर-पार की लड़ाई के मूड में नजर आ रही है। नक्सलवाद एक विचार है, शोषण और असामनता के खिलाफ। लेकिन क्या इस देश में केवल विचार से ही इंकलाब आ सकता है ? इस बात को बहुत बार दोहराया जा चुका है कि इस देश की बड़ी जनसंख्या मात्र पन्द्रह से बीस रुपए रोज की कमाई से अपना पेट भरने के लिए मजबूर है। अब कोई भी इस बात को आसानी से समझ सकता है कि कितनी बड़ी विषमता इस देश में आजादी के साठ साल भी मौजूद है। शोषण, अत्याचार और असमानता में जकड़े हुए लोग केवल विचार के बल पर अपना हक हासिल करें ? कैसे इंकलाब लाएं ? कभी दौर रहा होगा, जब केवल विचार से इंकलाब हो जाया करते होंगे। अब जब तक बमों के धमाके न किए जाएं तब तक सरकार तो क्या एक जिले का डीएम भी नहीं जागता। यहां हिंसा का समर्थन करना नहीं है। लेकिन सवाल यह है कि देश की सत्तर फीसदी से भी ज्यादा जनता करे तो क्या करे ? याद करिए वो पुराना जमाना, जब कोई नौजवान गांव के जमींदार के जुल्मों से तंग आकर बागी बनकर बीहड़ों में उतर जाया करता था। उस बागी को उन सभी लोगों का समर्थन हासिल होता था, जो खुद शोषित तो होते थे, लेकिन उनमें बागी बनने की हिम्मत नहीं होती थी। इसी समर्थन के कारण बागी जल्दी से पुलिस की पकड़ में नहीं आता था। याद करिए सत्तर और अस्सी के दशक की फिल्मों का नायक, जो शोषण के खिलाफ विद्रोह करता था। अमिताभ बच्चन ने उसी दौर में लगभग एक नक्सली की बहुत से भूमिकाओं को अदा करके बुलंदियों को छुआ था। लेंकिन आज क्या है। आज अमिताभ बच्चन खुद एक दब्बू और डरपोक आदमी नजर आता है, जो राज ठाकरे और बाल ठाकरे की ड्योढी पर जाकर सिर नवाता है और बार-बार माफी मांगता है।
दरअसल, नक्सलवाद से उन लोगों को डर लगता है, जो केवल पूंजीवाद के गुलाम होकर रह गए हैं और मौजूदा सिस्टम का हिस्सा बनकर ऐश कर रहे हैं। यह वही वर्ग है, जो कहता है कि नक्सली बंदूके छोड़कर लोकतान्त्रिक तरीक से संसद में चुनकर आएं और अपनी बात कहें। ये लोग किस लोकतन्त्र की बात करते हैं ? वो लोकतन्त्र जिसमें एक मुख्यमंत्री हजारों बेगुनाह लोगों को मरवाने के बाद भी एक प्रदेश का तीन बार मुख्यमंत्री बना रह सकता है ? दूसरे मुख्यमंत्री चारा घोटाला में दोषी ठहराए जाने के बाद सत्ता को अपने परिवार को देकर जेल काटता है। तीसरी मुख्यमंत्री मूर्तियां तराशने के लिए अरबों रुपए स्वाहा कर देती हैं। ठीक है जनता ने उन्हें चुनकर भेजती है। लेकिन यदि कल किसी आतंकवादी सरगना को जनता चुनती है तो क्या देश उसे भी बर्दाश्त करेगा ? यहां कातिलों और भ्रष्टाचारियों पर चुनाव लड़ने की रोक क्यों नहीं लग सकती ? सवाल यह भी है कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से भी तो विभिन्न राजनैतिक पार्टियों के लोग संसद और विधानसभा में जाते हैं, उन्होंने आदिवासी क्षेत्रों के लिए क्या किया है आज तक ? नक्सली मौजूदा सिस्टम के खिलाफ ही तो लड़ाई लड़ रहे हैं। वे कैसे इस सिस्टम का हिस्सा बन सकते हैं ?
नक्सलवाद तो बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश, आन्ध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के पिछड़े और आदिवासी इलाकों में है, लेकिन क्या हालात ऐसे नहीं बनते जा रहे हैं कि अब नक्सलवाद का विचार उन राज्यों और शहरों के लोगों को भी अच्छा लगने लगा है, जो साधन सम्पन्न कहलाते हैं। मैं वेस्ट यूपी के मेरठ से ताल्लुक रखता हूं। वेस्ट यूपी साधन सम्पन्न क्षेत्र माना जाता है। शोषण, अत्याचार और असमानता देखने के लिए नक्सलवाद प्रभावित क्षेत्रों में जाने की जरुरत नहीं है। मेरठ में ही बहुत से इलाके हैं, जहां सरकार, नेता और पुलिस अपनी मनमानी करती है। उदहारण के लिए सरकारी सस्ते गल्ले की दुकानों का सारा राशन ब्लैक में बिक जाता है, उस राशन को लेने का हकदार बस देखता रहता है। यदि किसी ने हिम्मत करके दुकानदार की शिकायत अधिकाारियों से कर दी तो राशन की दुकान वाले का तो कुछ नहीं बिगड़ता लेकिन शिकायतकर्ता की मुसीबत आ जाती है। उससे साफ कहा जाता है, हमसे पंगा लेना मंहगा पड़ेगा। प्राइवेट नर्सिंग होम लूट के अड्डों में तो सरकारी अस्पताल बूचड़खानों में तब्दील हो गए हैं। आजकल मेरठ में डेंगू, मलेरिया और वायरल का इतना जबरदस्त प्रकोप है कि कोई कालोनी कोई घर ऐसा नहीं है, जिसमें इन रोगों से ग्रस्त रोगी न हो। लोग चिल्ला रहे हैं। बुखार से रोज दो-तीन मौतें हो रही हैं। मीडिया भी लोगों की आवाज को सरकार तक पहुंचा रहा है। लेकिन मेरठ प्रशासन कानों में तेल डाले पड़ा है। अब ऐसे में जनता के सब्र का बांध टूट जाए तो क्या हो ? वेस्ट यूपी में ही आए दिन आर्थिक तंगी, कर्ज और बीमार होने पर इलाज न होने पर आत्महत्या करने की खबरें छपती हैं। इन आत्महत्या करने वालों में कितने ही लोग ऐसे होंगे, जो मौजूदा सिस्टम से नाखुश होते होंगे। लेकिन उनमे इतनी ताकत नहीं होती कि वे कुछ कर सकें। इसलिए उन्हें मौत ही एकमात्र आसान रास्ता लगता है। लेकिन भविष्य में कुछ लोग ऐसे भी तो सामने आ सकते हैं, जो सिस्टम के खिलाफ उठ खड़े होने का हौसला रख सकते हैं। कल उनके बीच भी कोई कोबाड़ गांधी आ सकता है।
नक्सलवाद को बलपूर्वक कुचलने की बात करने वाले यह क्यों नहीं सोच रहे कि नक्सलवाद को पनपाने में सरकार की भ्रष्ट नौकरशाही भी बराबर की जिम्मेदार है। जब झारखंड जैसे प्रदेश का मुख्यमंत्री केवल दो साल में चार हजार करोड़ रुपए की काली कमाई करेगा तो नक्सलवाद नहीं तो क्या रामराज्य पनपेगा ? सरकार की बंदूकें भ्रष्ट नौकरशाहों और नेताओं की तरफ क्यों नहीं उठतीं ? क्यों उनके गुनाहों को जांच दर जांच में उलझाकर भूला दिया जाता है ? दो जून की रोटी की मांग करने वालों के सीने में गोलियां उतारने की बात क्यों की जाती है ? ठीक है हिंसा नहीं होनी चाहिए। लेकिन सवाल फिर वही है कि इस देश में केवल आराम से मांगने वालों को क्या कभी कुछ मिला है ? याद रखिए अंग्रेजों ने भी इस देश को ऐसे ही अलविदा नहीं कह दिया था। नक्सलवाद से डरने वालों को पहले भ्रष्टाचार, अन्याय, शोषण और आर्थिक विषमता के खिलाफ भी तो मुहिम चलानी चाहिए।

10 comments:

  1. आप से सौ फीसदी सहमत हूँ। यदि यह सब ठीक न हुआ तो नक्सलवाद किसी और नाम से पैदा हो जाएगा।

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  2. हम भी आपके कथन से पूर्णत: सहमत हैं !

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  3. आपने सही विचार व्यक्त किये है
    लेकिन क्या क्रांति के बाद ये नक्सली नेता भी वर्तमान नेताओं जैसा व्यवहार नहीं करेंगे ?
    क्या बंगाल के माकपा नेता आज भी सही मायने में साम्यवादी आचरण का निर्वाह कर रहे ?
    क्या समजवादी नेता समाज के बारे में सोच रहे है ?
    मेरी नजर में तो कैसी भी कोई क्रांति करले सबका मकसद गरीब के सहारे सत्ता हथियाना है जिस दिन नक्सलियों को भी सत्ता मिल जायेगी . माकपा काडर की तरह उनका काडर भी मजे लुटने में लग जायेगा | और क्रांति करने वाले एक और शोषणकर्ता का जन्म हो जायेगा | गरीब पहले भी शोषित हुआ है अब भी हो रहा और आगे भी होगा चाहे कांग्रेस राज करे ,भाजपा राज करे , माया मुलायम हो या रामविलास या मजदूरों के स्वघोषित हितेषी कोमरेड का शासन हो | सभी एक थाली के चट्टे-बट्टे है |
    गरीब और मजदुर को तो सिर्फ लोलीपॉप ही मिलने वाली है |

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  4. बेहतर बंधु।
    आपसे सहमत।

    किसी मानवश्रेष्ठ ने कहा था कि जब तक राज्य है, उसकी कीमत मानवजाति इसी तरह की अराजकता और आतंकवाद से चुकाती रहेगी।

    जब आम बहुजन, विचार और जमीनी हकीकतों के आधार पर उसका क्रियान्वयन करने के लिए कमर कसता है, तभी क्रांति, यानि आमूलचूल परिवर्तन की संभावनाएं साकार होती हैं।

    अकेला विचार और अकेला अराजक प्रतिरोध राज्य के लिए कोई मुश्किल खड़ी नहीं करता।

    शुक्रिया। आपके सरोकारों के लिए।

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  5. चम्बल में बन्दूक उठाकर कूदने वाले बागी और आतंकवादी नक्सलवादियों में कोई भी फर्क नहीं है. आपके नजरिया एकदम सही है

    दोनों के साथ एक जैसा व्यवहार होना चाहिये

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  6. आज दुसरी बार आप के ब्लांग पर आया लेख लम्बा तो था लेकिन एक एक शव्द ध्यान से पढा ओर हर बात से सहमत हुं, रोहतक मे मेरा दोस्त मेडिकल मे ड्रा है एक दिन बेठे बेठे उस ने मुझे कहा कि भारत मै हालात बहुत खराब होते जा रहे है, देखना एक दिन लोग हाथो से रोटी भी छिनेगे... लोग हिटलर को बहुत बुरा कहते है, लेकिन भारत को आज एक हिटलर की जरुरत है, क्योकि जिसे भी देखो गले तक गंदगी मै डुबा है ओर शरीफ़ आदमी भुखा बेठा है. ओर जनता को भी जागाना चाहिये, ओर इस सिस्टम से लडना चाहिये
    धन्यवाद इस सुंदर लेख के लिये
    आप को ओर आप के परिवार को दिपावली की शुभकामनाये

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  7. SHUKRIYA SALEEM SAHAB , NAXAL KE KHATME KE LIYE ABHI TAK KISI SARKAAR NE SANJEEDGI SE SOCHA HI NAHI,HO SAKTA HAI KI UNKA KOI MATLAB CHUPA HO,WAISE YE MASLA PURE MULK KE LIYE KHATRA HAI MAGAR KYA KARE 'UNHE' TO "ATANKWAAD' SE NIPATNA HAIN,KAASH KOI IS MULK KA BHALA SOCHNE WALA HO.....

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  8. आपके लेख का मंतव्य देश की कमजोरियों को उजागर करना है या नक्सलियों का समर्थन करना? आपके लेख से ऐसा प्रतीत होता है कि नक्सली तो सारे इंसाफ की प्रतिमूर्ती हैं और वह जो भी कर रहे हैं सही है.

    देश की परेशानियों के बहाने नक्सलवाद को सही ठहराना निपट कांइयांपन हैं.

    हमारा देश लोकतांत्रिक है. जितनी मेहनत नक्सली लोगों को मारने में कर रहे हैं उतनी मेहनत और खर्चा जन-जन तक भ्रष्टाचार के खिलाफ चुनाव लड़ने में करें तो जीत जायें.

    माओवादियों को बस एक बात पता है 'क्रांति बंदूक की नली से निकलती है'

    आपको यह इसलिये सुहानी लग रही है क्योंकि नली का रुख आपकी ओर नहीं है, जिस दिन हो जायेगा आपका रोना छूट जायेगा.

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  9. anam saheb filhaal to satta ke dalaon se neptna zaruree hai. naxleeyeon kee bandook se kam aur sarkari ghundon se zyada dar lagta hai.

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