सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
आखिरकार मेरठ हिंसा से बच नहीं सका। 17 साल बाद एक बार फिर मेरठ कर्फ्यू का दंश झेलने के लिए मजबूर हो गया। लेकिन यह तय है कि यह हिंसा साम्प्रदायिक बिल्कुल नहीं है। हां, साम्प्रदायिक रुप देने की कोशिश गयी और आगे भी की जा सकती है। घटनाक्रम कुछ यूं है कि मेरठ के पास सिंघावली गांव से तबलीगी जमात का एक दल जमात में गया था। वह दल वापस लौट रहा था तो रोहटा रेलवे क्रासिंग पर जमात दल का टै्रक्टर रेलवे क्रासिंग पर अवैध रुप से बने खोखे के सामने खड़ा हो गया। जमात दल के लोग कुछ फल आदि लेने के लिए रुके थे। खोखे मालिक ने ट्रेक्टर को खोखे सामने खड़ा करने पर ऐतराज जताया। खोखे मालिक और जमात दल के लोगों में तू-तू में-में हो गयी,, जो बढ़ते-बढ़ते मारपीट में बदल गयी। जमात दल के लोग गम्भीर रुप से घायल हो गए। खबर सिंघावली गांव पहुंची,, जो घटनास्थल से मात्र चार-पांच किलोमीटर दूरी पर है। गांव वालों ने रोहटा रोड पर जाम लगाकर नारेबाजी शुरु कर दी। थोड़ी ही देर में यह खबर मेरठ में फैल गयी। यहीं से मेरठ को साम्प्रदायिक हिंसा में धकेलने साजिश भी बुनी गयी।
लोकसभा चुनाव में बुरी तरह हारे पूर्व सांसद के समर्थकों ने अस्पताल के बाहर जमकर नारेबाजी और पथराव किया। देखते ही देखते नारेबाजी और पथराव शहर के घंटाघर, जली कोठी और ईदगाह चौराहे पर होने लगा, यहां यह बताना जरुरी है कि इन सब इलाकों में पूर्व सांसद के समर्थकों की बहुतयात है। पुलिस फोर्स की तमाम कोशिशों के बाद भी दंगाई दंगा करने से बाज नहीं आए। पुलिस ने लाठीचार्ज करके दंगाईयों को खदेड़ दिया। एक बार ऐसा लगा कि मामला शांत हो गया है। लेकिन शायद कुछ लोग शहर में आग लगाने का प्रण लिए हुए थे। रात दस बजे के करीब शहर के संवेदनशील क्षेत्र भूमिया के पुल पर हंगामा शुरु हो गया। कई मोटर साइकिल जला दी गयीं। एक टेलर की दुकान को आग के हवाले कर दिया गया। पुलिस पर पथराव किया गया। पुलिस ने आंसू गैस के गोले दागे। हवाई फायरिंग भी की। मामला शांत नहीं हुआ तो देर रात शहर के चार थाना क्षेत्रों, लिसाड़ी गेट, देहली गेट, कोतवाली और ब्रहपुरी में शुक्रवार तक के लिए कर्फ्यू नाफिज कर दिया गया। गनीमत यह रही कि कोई जान नहीं गयी।
क्या कारण हैं इस हिंसा के पीछे
1993 से मेरठ की राजनीति पर कुरैशी बिरादरी का वर्चस्व था। 1993 में हाजी अखलाक जनता दल के टिकट पर विधायक बने। बाद में अखलाक के पुत्र शाहिद अखलाक बसपा से मेयर बने। मेयर रहते ही शाहिद अखलाक ने बसपा से ही सांसद का चुनाव जीता। 2007 के विधानसभा चुनाव में याकूब कुरैशी अपनी पार्टी यूडीएफ से विधायक चुने गए। लेकिन पिछले मेयर में हाजी शाहिद अखलाक ने अपनी चाची को उतारा लेकिन उनकी जमानत जब्त हो गयी। हालिया चुनाव में खुद शाहिद अखलाक लोकसभा का चुनाव लडे+ लेकिन जमानत भी नहीं बचा सके। यानि मेरठ की राजनीति से कुरैशी बिरादरी का वर्चस्व लगभग खत्म हो गया। यहां यह बताना उल्लेखनीय है कि शाहिद अखलाक अपने चुनाव प्रचार में यह दावा करते थे कि मैं कभी शहर में दंगा नहीं होने दूंगा। हुआ भी ऐसा ही था। मेरठ में जब-जब हालात खराब हुए, तब-तब शाहिद अखलाक ने जनता और प्रशासन के सहयोग से शहर को बचाया। इस लोकसभा के चुनाव प्रचार के दौरान भी उन्होंने बार-बार यह कहा कि मेरे सांसद रहते शहर में दंगा नहीं हो सकता। सिर्फ में ही शहर को दंगे से बचा सकता हूं। यानि उनके कहने का मतलब था कि यदि मुझे हरा दिया तो शहर में दंगा होगा।
इधर, पिछले एक महीने से कमेला प्रकरण जोर-शोर से चल रहा था। भाजपा कमेले का साम्प्रदायिकरण करने पर उतारु थी। उसकी मांग थी कि कमेला बंद किया जाए। जबकि कुैरशी बिरादरी का कहना था कि कमेला उनकी रोजी-रोटी है। यह बन्द नहीं हो सकता। मानवाधिकार आयोग ने मेरठ प्रशासन को कमेला हर हालत में बंद करने के निर्देश दे रखे थे। इसी परिप्रेक्ष्य में प्रशासन ने कमेले की उन भट्टियों को तोड़ दिया था, जिनमें हड्डियों को पकाया जाता था और जिससे कमेले का आसपास का इलाका दुर्गन्ध और धुएं से बेहाल रहता है। मुसलमान भी कमेले के खिलाफ लामबंद होने लगे थे। हालांकि मीट व्यापारियों ने कमेले को मुसलमानों से जोड़ने के लिए शहर काजी का इस्तेमाल किया। शहर काजी ने कमेले को मुसलमानों की इज्जत बताकर प्रशासन के खिलाफ मोर्चा खोला। लेंकिन शहर के मुसलमानों ने शहर काजी की बात से नाइत्तेफाकी जाहिर करके कहा कि कमेला मुसलमानों के लिए अजाब से कम नहीं है।
एक तरफ मेरठ की राजनीति बेदखल होने की बौखलाहट और दूसरी तरफ व्यापार पर चोट होते देख मीट व्यापारियों को मेरठ की एक छोटी से घटना ने शहर की फिजा बिगाड़ने का मौका दे दिया। मीट व्यापारियों ने शहर में बवाल करके मेरठ के मुसलमानों को एक संदेश तो ये देना चाहा कि हम राजनीति से बेदखल होंगे तो उनकी सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है। दूसरी और बवाल से मुसलमानों को अपनी ओर करने की कोशिश की, जिससे कमेला मुद्दा केवल मीट व्यापारियों का न रहकर सभी मुसलमानों का बन जाए। लेकिन शहर के मुसलमानों ने बवाल को खुद से अलग रखा। वे समझ रहे थे कि मीट व्यापारी क्या चाहते हैं। लोगों ने देखा कि बवाल में केवल वे लोग शामिल थे, जो किसी न किसी रुप से मीट व्यापार से जुड़े हैं। पूर्व सांसद शाहिद अखलाक का जनता के बीच से गायब रहना भी इस बात की पुष्टि करता है कि वे शहर में दंगा होते देखना चाहते थे।
तारीफ करनी होगी मेरठ के हिन्दु और मुसलमानों की कि उन्होंने संकट की इस घड़ी में अपना संयम नहीं खोया। कर्फ्यू लगा हुआ है, स्थिति काबू में है। तनाव नहीं है। शहर के दूसरे हिस्सों में जिन्दगी सामान्य रुप से चल रही है।
Wednesday, June 17, 2009
मीट व्यापारियों ने किया मेरठ में बवाल
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हिंसा न हो यही कामना है.
ReplyDeleteहिन्दु और मुसलमान दोनों यदि इन नेताओ की चालबाजीयों को समझ जाएं तो बेगुनाहों का खून कभी नही बहेगा।
ReplyDeleteहिन्दु और मुसलमान दोनों यदि इन नेताओ की चालबाजीयों को समझ जाएं तो बेगुनाहों का खून कभी नही बहेगा।
ReplyDeleteफासीवाद पूंजीवाद का संकटमोचक है, यह बात इस घटना से साफ हो जाती है। जब अपने आथिंक और आर्थिक से जुड़े राजनीतिक हितों को नुकसान पहुंचने लगता है तो साम्प्रदायिकता से धर्म की आड़ लेकर उन हितों को पूरा करने की घिनौनी साजिश रची जाती है। साम्प्रदायिकता चाहे वह हिन्दू कट्टरपंथियों की पैदा की हुई हो या मुस्लिम कट्टरपन्थियों की, उसकी जमीन यही है। मुनाफे पर टिके समाज में पूंजी की होड़ में लगे धर्म के ऐसे ठेकेदारों की असलियत हमें समझनी होगी। यह बात गौर करने वाली है कि भगतसिंह ने साम्प्रदायिकता का मुकाबला मेहनतकशों की वर्गएकता से करने का संदेश दिया था।
ReplyDeleteमेरठ पर आपकी रिपोर्ट बेहद महत्वपूर्ण हैं। क्योंकि धर्म की राजनीति करने वाले अपनी खोई हुई जमीन उप्र में वापस पाने को बैचेन हैं।