चुनाव का मौसम आते ही मुस्लिम राजनीति में हलचल शुरु हो जाती है। लगभग सभी राजनैतिक दलों में मुसलमानों का सच्चा हितैषी और हमदर्द बताने की होड़ शुरु हो जाती है। यह होड़ गलत भी नहीं है। मुसलमान इस देश की लोकसभा की कम से कम सौ सीटों पर निर्णायक सिद्व होते हैं। मुस्लिम वोटों के लिए उत्तर प्रदेश में कुछ ज्यादा ही मारामारी रहती है। उत्तर प्रदेश में मुस्लिमों का वोट प्रतिशत सत्रह है। इन सत्रह प्रतिशत वोटों के लिए राजनैतिक दलों की लार टपकती है। मुस्लिम वोटों की महत्ता को इसी बात से समझा जा सकता है कि भाजपा भी अक्सर मुसलमानों को रिझाने में जुट जाती है। यह अलग बात है कि मुसलमान किसी भी सूरत में भाजपा को अपनाने को तैयार नहीं हैं। इधर कुछ मुस्लिम नेताओं को लगने लगा है कि मुसलमानों की पार्टी बनाकर बसपा की तरह राजनैतिक ताकत हासिल की जा सकती है। इसलिए कुछ ऐसे मुस्लिम नेता, जिन्हें किसी वजह से कोई पार्टी टिकट नहीं देती, अपनी कयादत, अपनी सियासत, अपनी ताकत का नारा लगाकर चुनाव के मैदान में उतर जाते हैं। इन तथाकथित मुस्लिम नेताओं की एकमात्र योग्यता यह है कि ये पैसे वाले हैं। मीट के कारोबार ने इन्हें अरबपति बना दिया है। उत्तर प्रदेश के पिछले चुनाव में याकूब कुरैशी ने असम यूडीएफ की कामयाबी की देखादेखी यूपी यूडीएफ का गठन करके अपने प्रत्याशी उतारे। यूपी यूडीएफ थिंक टैंक का शायद यह मानना रहा था कि पांच-सात विधायक जीत जाएं तो विधानसभा के त्रिशंकु आने की स्थिति में सरकार में शामिल हुआ जा सकता है। यूडीएफ के प्रत्याशी न सिर्फ बुरी तरह हारे बल्कि उनकी जमानतें जब्त हो गयी । खुद याकूब कुरैशी ने मात्र हजार-बारह सौ वोटों से जीतकर लाज बचायी । बसपा पूर्ण बहुमत में आ गयी और याकूब साहब का कौम प्रेम एक झटके में ही काफूर हो गया। दिन भी नहीं निकला था कि पता चला कि याकूब साहब ने अपनी लाज मायावती के चरणों में रख दी है।
अब जब लोकसभा के चुनाव निकट हैं तो दूसरे मीट कारोबारी शाहिद अखलाक के मन में कौम के प्रति प्रेम का जज्बा हिलोरें लेने लगा है। बसपा और सपा से धकियाये गये शाहिद अखलाक को कोई ठिकाना नहीं मिला तो सैक्यूलर एकता पार्टी बना ली है। इस पार्टी के अध्यक्ष पद के लिए उन्हें पूरी मुस्लिम कौम से कोई योग्य आदमी नहीं मिला तो खुद ही अध्यक्ष बनना उनकी मजबूरी हो गया। यह तय है कि महासचिव पद के लिए भी कोई सैक्यूलर हिन्दू उन्हें नहीं मिलेगा इसलिए महासचिव भी उनका कोई भाई या भतीजा ही बनेगा। जाहिर है लोकसभा का चुनाव भी खुद ही लड़ेंगे और विधानसभा या मेयर का चुनाव आयेगा तो इनकी पत्नि या भाई लड़ेगा। कौम की खिदमत करने के लिए ऐसा करना उनकी मजबूरी है।
इन तथाकथित कौम के ठेकेदारों से सवाल ऐसे अनगिनत सवाल किए जा सकते हैं, जिनका जवाब शायद ही इनके पास हो ? याकूब कुरैशी उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री रहे हैं तो शाहिद अखलाक मेयर भी रहे और सांसद भी। क्या ये बतायेंगे कि इन दोनों ने कौम की भलाई के लिए अब तक क्या किया है ? इन नेताओं ने मुस्लिम क्षेत्रों में कितने सरकारी प्राइमरी स्कूल या अस्पताल खुलवायें हैं ? यहां यह बताना जरुरी है कि इस्लामबाद, तारापुरी, रशीद नगर, अहमदनगर, जाकिर कालोनी जैसे मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में एक भी सरकारी प्राइमरी स्कूल और अस्पताल नहीं है। यह हाल तब है, जब मेरठ-हापुड़ लोकसभा के सपा प्रत्याशी शाहिद मंजरू सपा सरकार में शिक्षा मंत्री रहे हैं ? क्या इन नेताओं ने कभी सोचा है कि अखबारों में बड़े-बडे+ विज्ञापनों पर खर्च होने वाले करोड़ों रुपयों से कई स्कूल, कालेज और अस्पताल खोले जा सकते थे ? 1987 के हाशिमपुरा कांड के पीड़ितों ने अपनी लड़ाई खुद लड़ी है। क्या इन कौम के तथाकथित ठेकदारों ने कभी हाशिमपुरा के लोगों की तकलीफों को जानने की कोशिश की ? मलियाना कांड के दंगा पीडितों को केवल बीस-बीस हजार का मुआवजा ही मिल सका है। क्या कभी ऐसी कोशिश इन नेताओं की ओर से की गयी कि मलियाना कांड के पीड़ितों को भी 1984 के दंगा पीड़ितों की तर्ज पर कोई राहत पैकेज मिले ? आज की तारीख में मलियाना केस की सुनवाई फास्टट्रैक कोर्ट में तेजी के साथ चल रही है। क्या उन्होंने कभी पूछा की मलियाना केस किस स्थिति में है और केस को किस तरह से लड़ा जा रहा है ? पिछले दिनों सांसदी खोने के बाद शाहिद अखलाक सच्चर समिति की रिपोर्ट लागू करने के लिए जगह-जगह सभाएं कर रहे थे। लेकिन सांसद रहते उन्होंने संसद में कभी अपना मुंह नहीं खोला। सच और कड़वी बात यह है कि इन नेताओं को कौम की तभी याद आती है, जब चुनाव आता है। जीतने या चुनाव खत्म होने के बाद ये नेता फिर अपनी उस आरामगाह में होते हैं, जहां तक पहुंचने की हिम्मत कौम नहीं कर सकती। हालत यह है कि ये नेता नमाज भी मस्जिद में पढ़ने के बजाय अपने घर में ही पढ़ना ठीक समझते हैं।
170, मलियाना, मेरठ
09837279840
कुछ बातें मैं और बता देता हूं, इनके भाई-बन्धु, गुर्गे, रिश्तेदारों ने आफत मचा रखी हैं। ये जहालत के अलमबरदार कौम के हितेषी कैसे हो सकते है। गालीयां और बदतमीजी इनकी दिनचर्या का अंग है। और इनके लम्बे अपराधिक रेकार्ड पर तो कभी प्रशासन भी कुछ नही कहता। लेकिन अब वक्त आ गया है। जब इन जाहिलों को उनकी औकात पता चल जाएगी।
ReplyDeleteआप मेरठ के एक व्यक्ति की बात कर रहे हैं। लेकिन ये सारी बातें इतनी प्रासंगिक हैं कि हर जगह के लिए फिट बैठती हैं। या यूं कहें कि एक उदाहरण से आपने पूरे देश की राजनीति की बात कह दी। आज राजनीति मंे आने वाले अधिकांश लोग ऐसे ही हैं जिनका वास्तव में समाज से कोई लेना देना नहीं रहता है। यूज एंड थ्रो की पाॅलिसी में विश्वास करने वाले इस तरह के लोग व्यक्ति, समाज, धर्म और ईश्वर को अपने स्वार्थ के लिए उपयोग करते हैं। गलती इनकी नहीं है। समाज में व्याप्त अज्ञानता (हमारा आशय विवेक से है न कि डिग्रियों और किताबी ज्ञान से) से इनकेा बहुत ही फायदा मिल रहा है। जिस दिन पूरा समाज शिक्षित हो जाएगा, राजनीति स्वार्थ सिद्धि नहीं, समाजसेवा का जरिया बन जाएगा।
ReplyDeleteजीतने या चुनाव खत्म होने के बाद ये नेता फिर अपनी उस आरामगाह में होते हैं, जहां तक पहुंचने की हिम्मत कौम नहीं कर सकती। हालत यह है कि ये नेता नमाज भी मस्जिद में पढ़ने के बजाय अपने घर में ही पढ़ना ठीक समझते हैं....ek gahri sacchai...!!
ReplyDeleteइसके लिए जिम्मेदार तो हम और आप हैं जो धर्म और जातियों के आईने में शक्लें देखकर मत का प्रयोग करते हैं।
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