सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
पन्द्रहवीं लोकसभा का बिगुल बजते ही मुस्लिम वोटों के व्यापारी अलग-अलग भेष में अवरित हो गये हैं। अचानक ही कुछ ऐसे मुस्लिम संगठन मैदान में आ गए हैं, जिनकी कोशिश यह है कि मुस्लिम वोटों का बिखराव हो और कम से कम मुस्लिम सांसद आने वाली लोकसभा में पहुंचे। आबादी का 20-22 प्रतिशत होने के बावजूद संसद में मुसलमानों का प्रतिनिधत्व कभी भी साढ़े आठ प्रतिशत से अधिक नहीं रहा। केवल 1980 में 46 मुस्लिम सांसद जीतकर संसद पहुंचे थे। आबादी के ऐतबार से कम से कम 125 मुस्लिम सांसद लोकसभा में होने चाहिएं। इस कम प्रतिशत का एक महज कारण राजनैतिक दलों की बेईमानी है। ये दल मुसलमानों को वहां से चुनाव लड़वाते हैं, जहां मुसलमानों की आबादी कम है। उदाहरण के लिए 1998 के चुनाव में डा0 मैराजुद्दीन को सपा ने बागपत से लोकसभा का प्रत्याशी बनाया था। सब जानते हैं कि बागपत से चौधरी चरणसिंह के वंशज के अलावा कोई नहीं जीत सकता। दूसरी बात यह कि मुसलमान भाजपा विरोध के नाम पर मुस्लिम बाहुल्य निर्वाचन क्षेत्र से किसी भी गैर मुस्लिम प्रत्याशी को तो अपना वोट तो देता है। लेकिन किसी हिन्दू बाहुल्य क्षेत्र से किसी भी कथित सैक्यूलर पार्टी का मुस्लिम प्रत्याशी मुश्किल से ही जीत पाता है।
आजादी के बाद से मुसलमान कांग्रेस का परम्परागत वोटर रहा था। 1977 में इमरजैंसी में नसबंदी के सवाल पर मुसलमान कांग्रेस से विमुख हो गया और उसने जनता पार्टी का साथ दिया। 1980 के मध्यावधि में मुसलमान फिर से कांग्रेस के पाले में आ गए। लेकिन 1986 में बाबरी मस्जिद का ताला खुलने के बाद देश में, खासतौर से उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के द्वारा चलाया गये राम मंदिर आन्दोलन के कारण उत्तर प्रदेश साम्प्रदायिक दंगों का का प्रदेश बन गया। केन्द्र और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सरकार के दौरान मुसलमानों पर अत्याचार हुए। इसी नाराजगी के चलते 1989 के चुनाव में मुसलमानों ने जनता दल का समर्थन किया। उत्तर प्रदेश में जनता दल के मुलायम सिंह मुख्यमंत्री बने। अक्टूबर 1990 में कार सेवकों ने बाबरी मस्जिद को गिराने की कोशिश की तो मुलायम सिंह ने कार सेवकों पर गोली चलवाकर कारसेवकों का मंसूबा विफल कर दिया। बस यहीं से मुलायम सिंह यादव मुसलमानों के मसीहा के रुप में उभरे। मुसलमानों ने लगातार समाजवादी पार्टी का समर्थन किया। 1991 के मध्यावधि चुनाव के दूसरे चरण के दौरान राजीव गांधी की हत्या के बाद उमड़ी सहानुभूति के चलते कांग्रेस दोबारा सत्ता में आ गयी। 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद मुसलमान कांग्रेस से बिल्कुल अलग हो गये।
कांग्रेस से छिटके मुस्लिम वोटर ने अपना भविष्य क्षेत्रीय दलों में देखना शुरु कर दिया। उप्र में वह समाजवादी पार्टी, लोकदल और बसपा के साथ रहा तो बिहार में राजद और लोजपा को अपना हमदर्द बनाया। आंध्र प्रदेश में वह तेदेपा से जुड़ा तो पश्चिम बंगाल में वामपंथी पार्टियों को वोट देता रहा। लेकिन कुछ क्षेत्रीय दलों ने भी सत्ता की खातिर मुसलमानों को ठगा। तेदेपा, जनता दल (यू), डीएमके, तृणमूल कांगेस, बसपा, लोजपा और नेशनल कांन्फरेन्स जैसे क्षेत्रीय दलों ने 1999 में भाजपा के साथ सत्ता में भागीदारी की। 2002 में गुजरात दंगों के दौरान ये दल मूकदर्शक बने रहे। पश्चिम बंगाल में वामपंथियों ने भी नन्दीग्राम और सिंगूर में मुस्लिम विरोधी चेहरा दिखाया। उत्तर प्रदेश में तो मायावती ने तीन-तीन बार भाजपा के साथ सरकार बनायी। मायावती ने तो तब हद कर दी, जब उन्होंने गुजरात में मोदी के पक्ष में प्रचार किया। मुसलमान केवल भाजपा को हराने के लिए वोट करते रहे और उनके वोटों के बल पर क्षेत्रीय दल सत्ता का सुख भोगते रहे। अब, जब लोकसभा चुनाव की घोषणा हो चुकी है तो मुस्लिम वोटों की चाहत में ये क्षेत्रीय दल एक बार फिर भाजपा का भय दिखाकर मुसलमानों को बरगलाने में लगे हैं। सवाल यह है कि मुसलमान केवल भाजपा को हराने के लिए ही कब तक वोट करता रहेगा ? अपने हक के लिए वह कब जागेगा ? इधर कुछ ऐसे मुस्लिम संगठन, जो किसी न किसी राजनैतिक दल से जुड़े हैं, जगह-जगह मुस्लिम कन्वेंशन करके मुसलमानों को गुमराह कर हैं। ये मुस्लिम संगठन पूरे पांच साल तक गुम रहते हैं। अब वक्त आ गया है कि मुसलमान अपने वोटों का बिखराव न करके संसद में ऐसे प्रत्याशियों को चुनकर भेजें, जो वास्तव में दिल और दिमाग से धर्मनिरपेक्ष हों और संसद में मुसलमानों के हक की लड़ाई लड़ सकें। केवल भाजपा को हराने के लिए वोट करने का सिलसिला अब बंद होना चाहिए।
170, मलियाना, मेरठ
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मैं आप से सहमत हूँ. भाजपा का डर दिखाकर तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दल मुसलमानों को केवल एक वोटबैंक की तरह इस्तेमाल करते हैं. साथ ही वह यह भी चाहतें हैं कि मुस्लिम वर्ग पिछड़ा रहे और उनका पिछलग्गू बना रहे. वे उसे कभी भी समाज की मुख्यधारा में शामिल नहीं होने देना चाहते. गलत मुद्दों पर उनका समर्थन कर बहुसंख्यक वर्ग में मुसलिम तुष्टीकरण का असंतोष जागृत करते हैं. इस प्रकार दोनों वर्गों को एक दूसरे के खिलाफ भड़काकर अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं. मुस्लमान स्वयं राष्ट्रवादी और प्रगतिशील नजरिया अपनाए तो इन दलों की मंशा कभी पूरी नहीं हो पायेगी.
ReplyDeleteसिद्दकी साहब !
ReplyDeleteमुद्दा तो आपने बहुत ही बढ़िया उठाया है, मगर एक बात कहूँ, आपको सुनने में शायद अच्छा नहीं लगेगा,मगर यह एक कड़वा सच है कि भारतीय राजनीति में मुस्लिम वोटरों की धूरी पर आज जो कुछ भी हो रहा है उसमे, आप मानो या ना मानो, सारा का सारा दोष मुसलमानों का ही है !
अब आपने मेरी बात को परखना है तो आपसे निवेदन करूँगा कि आप सभी मुस्लिम बुद्द्धिजिवियो को अगर इकठ्ठा कर सकते हो तो तुंरत ऐसा कीजिये और देश भर के इमामो, मुस्लिम वोटरों तक यह सन्देश पहुचायिये कि एक बार, सिर्फ एक बार पूर्ण रूप से सारे मुस्लिम वोटर, वोटिंग का वहिष्कार करे, और फिर देखिये ,आपको अपने वोट की कीमत मालुम पड़ जायेगी ! अगली बार जो भी नेता आपके हमारे पास वोट मांगने आएगा, विस्वास कीजिये, वह बड़े सलीखे से वोट मांगेगा !
जब भी आपका लेख पढता हूँ ऐसा लगता ही नहीं की हमारे समाज में ऐसे लोगों की कमी है जो जागरूकता नहीं ला सकते यकीन करें सलीम भाई मुसलमानों के जो हालत अपने बयां किये वही सरे हिंदुस्तान के मुस्लिम आज महसूस करते हैं लेकिन कोई रहनुमा न होने की वजह से कोई भी आगे आने की कोशिश नहीं करता और जिसको कॉम वालों ने भरोसा करके आगे किया वो इतनी आगे निकल जाता है की किसी न किसी राजनीतिक दल की गोद में बैठ कर आराम की ज़िन्दगी का मज़ा लेता है ऐसे बहोत से लोग हैं ..............,
ReplyDeleteलेकिन सच ये भी है की अब वक़्त आ गया है जब मुसलमानों को ये सोच लेना चाहिए की वो भी देश की राजनीती अपनी दावेदारी दमदारी से पेश करें क्योंकि अगर हमें आगे बढ़ना है तो परिस्थितियां अपने अनुकूल बनानी होगी जैसे दलितों ने किया और देश की इस दूसरी सबसे बड़ी आबादी को ये भी सोचना होगा की जब तक हम वक़्त के साथ कंधे से कन्धा मिला कर नहीं चलेंगे तब तक हम हिंदुस्तान को तरक्की की राह में आगे नहीं बड़ा सकते............,
आपका हमवतन भाई .......गुफरान.......अवध पीपुल्स फोरम फैजाबाद,(www.awadhvasi.blogspot.com)
मैंने बहुत कम लिखने वाले पाये है जो इतना विचारोत्तेजक लेखन कर रहे है सलीम भाई आप क्वाटिटीं का नही क्वालिटी का ध्यान रखते है। मैं इसको अब तक का सबसे बढ़िया लेख कहूंगा। और सच बात तो ये है कि आपका लेखन सिर्फ एक लेख भर नही बल्कि जिम्मेदारीयों का निर्वाह भी है। इसे कहते है ओवर की लास्ट बाॅल पर सिक्स
ReplyDeleteइधर कुछ ऐसे मुस्लिम संगठन, जो किसी न किसी राजनैतिक दल से जुड़े हैं, जगह-जगह मुस्लिम कन्वेंशन करके मुसलमानों को गुमराह कर हैं। ये मुस्लिम संगठन पूरे पांच साल तक गुम रहते हैं। अब वक्त आ गया है कि मुसलमान अपने वोटों का बिखराव न करके संसद में ऐसे प्रत्याशियों को चुनकर भेजें, जो वास्तव में दिल और दिमाग से धर्मनिरपेक्ष हों और संसद में मुसलमानों के हक की लड़ाई लड़ सकें। केवल भाजपा को हराने के लिए वोट करने का सिलसिला अब बंद होना चाहिए....
ReplyDeleteसिद्दकी जी,
मैं आप से सहमत हूँ किसी को भी हराने के लिए वोट डालना गलत है आपने बहुत उम्दा लेख लिखा है ...!!
Loktantra ki is apadhapi men ek sarthak mudda...sabhi ko is par sochne ki jarurat hai !!
ReplyDelete_________________________________
गणेश शंकर ‘विद्यार्थी‘ की पुण्य तिथि पर मेरा आलेख ''शब्द सृजन की ओर'' पर पढें - गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ का अद्भुत ‘प्रताप’ , और अपनी राय से अवगत कराएँ !!
मैंने बहुत कम लिखने वाले पाये है जो इतना विचारोत्तेजक लेखन कर रहे है सलीम भाई आप क्वाटिटीं का नही क्वालिटी का ध्यान रखते है। मैं इसको अब तक का सबसे बढ़िया लेख कहूंगा
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