सलीम अख्तर सिद्दीकी
जरा कल्पना करिए कि कराची स्थित दाऊद इब्राहीम के घर से महाराष्ट्र के एक मंत्री एकनाथ खड़से के बजाय किसी और के, खासतौर से किसी मुसलिम के फोन पर कॉल आती तो क्या होता? क्या उसे भी इसी तरह आनन-फानन में क्लीन चिट दे दी जाती? हर्गिज नहीं। सबसे पहले उसे गिरफ्तार किया जाता। उसके तार न जाने किस-किस आतंकवादी संगठन से जोड़े जाते। फौरन ही मीडिया ट्रायल शुरू हो जाता। जब तक जांच पूरी होती, पूरे देश में वह कुख्यात आतंकवादी घोषित कर दिया जाता। मास्टर माइंड की तलाश शुरू होे जाती। उसके लिंक कहां-कहां पर हैं, उनके खुलासे शुरू हो जाते। उसकी फेसबुक प्रोफाइल खंगाली जाती। जो उसके साथ जुड़े होते, उन पर नजर रखी जाती। लेकिन एकनाथ खड़से चूंकि महाराष्ट्र के मंत्री हैं और भाजपा से हैं, इसलिए मुंबई पुलिस ने उन्हें फौरन ही क्लीन चिट से नवाज दिया। हैरत की बात यह है कि मुंबई पुलिस ने बेसिक पूछताछ की जरूरत भी नहीं समझी। हालंकि मंत्री जी कह रहे हैं कि जिस फोन नंबर का जिक्र किया गया है, उसका पिछले एक साल से इस्तेमाल नहीं हुआ। ठीक है। नहीं हुआ होगा। लेकिन क्या मंत्री के इतना ही कह देने से उन्हें संदेह से परे कर देना सही है? जिन लोगों को आतंकवाद के शक में घरों से उठाकर पुलिस अज्ञात स्थान पर ले जाकर उनसे गहन पूछताछ करती है, वे अपने को बेगुनाह बताएं तो क्या पुलिस उन्हें ऐसे ही छोड़ देती है? खबरें हैं कि खड़से के मोबाइल पर दाउद इब्राहीम की पत्नी महजबीं शेख के नंबर से चार सितंबर 2015 से पांच अप्रैल 2016 के बीच कई कॉल आए। लेकिन पुलिस के लिए यह जांच का मुद्दा नहीं है। पुलिस भेदभाव करती है, ऐसा यूं ही नहीं कहा जाता। वह भेदभाव करती है। खासतौर से अगर संदेह के घेरे में हिंदू संगठनों के नेता हैं, तो पुलिस अपने मुंह पर पट्टी बांध लेती है। दूसरे लोगों की छोटी से छोटी बात का बतंगड़ बताकर पेश किया जाता है। यह मान लिया गया है कि हिंदूवादी संगठन देशभक्त हैं, वे दाऊद इब्राहीम जैसे देशद्रोहियों से कैसे बात कर सकते हैं? लेकिन यह सब भ्रम है। हिंदूवादी संगठनों का एक चेहरा और भी है, जो अक्सर कभी मालेगांव, तो कभी समझौता एक्सप्रेस में बम ब्लॉस्ट करता नजर आता है।
जरा कल्पना करिए कि कराची स्थित दाऊद इब्राहीम के घर से महाराष्ट्र के एक मंत्री एकनाथ खड़से के बजाय किसी और के, खासतौर से किसी मुसलिम के फोन पर कॉल आती तो क्या होता? क्या उसे भी इसी तरह आनन-फानन में क्लीन चिट दे दी जाती? हर्गिज नहीं। सबसे पहले उसे गिरफ्तार किया जाता। उसके तार न जाने किस-किस आतंकवादी संगठन से जोड़े जाते। फौरन ही मीडिया ट्रायल शुरू हो जाता। जब तक जांच पूरी होती, पूरे देश में वह कुख्यात आतंकवादी घोषित कर दिया जाता। मास्टर माइंड की तलाश शुरू होे जाती। उसके लिंक कहां-कहां पर हैं, उनके खुलासे शुरू हो जाते। उसकी फेसबुक प्रोफाइल खंगाली जाती। जो उसके साथ जुड़े होते, उन पर नजर रखी जाती। लेकिन एकनाथ खड़से चूंकि महाराष्ट्र के मंत्री हैं और भाजपा से हैं, इसलिए मुंबई पुलिस ने उन्हें फौरन ही क्लीन चिट से नवाज दिया। हैरत की बात यह है कि मुंबई पुलिस ने बेसिक पूछताछ की जरूरत भी नहीं समझी। हालंकि मंत्री जी कह रहे हैं कि जिस फोन नंबर का जिक्र किया गया है, उसका पिछले एक साल से इस्तेमाल नहीं हुआ। ठीक है। नहीं हुआ होगा। लेकिन क्या मंत्री के इतना ही कह देने से उन्हें संदेह से परे कर देना सही है? जिन लोगों को आतंकवाद के शक में घरों से उठाकर पुलिस अज्ञात स्थान पर ले जाकर उनसे गहन पूछताछ करती है, वे अपने को बेगुनाह बताएं तो क्या पुलिस उन्हें ऐसे ही छोड़ देती है? खबरें हैं कि खड़से के मोबाइल पर दाउद इब्राहीम की पत्नी महजबीं शेख के नंबर से चार सितंबर 2015 से पांच अप्रैल 2016 के बीच कई कॉल आए। लेकिन पुलिस के लिए यह जांच का मुद्दा नहीं है। पुलिस भेदभाव करती है, ऐसा यूं ही नहीं कहा जाता। वह भेदभाव करती है। खासतौर से अगर संदेह के घेरे में हिंदू संगठनों के नेता हैं, तो पुलिस अपने मुंह पर पट्टी बांध लेती है। दूसरे लोगों की छोटी से छोटी बात का बतंगड़ बताकर पेश किया जाता है। यह मान लिया गया है कि हिंदूवादी संगठन देशभक्त हैं, वे दाऊद इब्राहीम जैसे देशद्रोहियों से कैसे बात कर सकते हैं? लेकिन यह सब भ्रम है। हिंदूवादी संगठनों का एक चेहरा और भी है, जो अक्सर कभी मालेगांव, तो कभी समझौता एक्सप्रेस में बम ब्लॉस्ट करता नजर आता है।
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