सलीम अख्तर सिद्दीकी
मोदी सरकार बच्चों को भी नहीं बख्श रही है। आधे टिकट पर सीट न देने का क्रूर फरमान दरअसल आधा टिकट को खत्म करने की कवायद भर है, जो वह पीछे के दरवाजे से लागू कर रही है। सामने आकर आधा टिकट खत्म करने की उसमें हिम्मत नहीं है। जनरल डिब्बों में तो वैसे ही क्या पूरा क्या आधा टिकट, वैसे भी सीट नहीं मिलती है। स्लीपर क्लास में लंबी दूरी की यात्रा करने वाला बच्चा कैसे आधे टिकट पर बिना सीट के सफर करेगा, इसका ध्यान सरकार ने नहीं रखा है। इसलिए अब अपने बच्चे की ‘मुश्किल’(भक्तों का यही कहना है कि बच्चों को ‘थोड़ी मुश्किल’ होगी) आसान करने के लिए मां-बाप पूरा टिकट लेना ही सही समझेंगे। कौन चाहेगा कि चंद रुपयों की खातिर लंबी दूरी उनका बच्चा तकलीफ में पूरी करे? संभवत: सरकार की भी यही सोच है कि अभिभावक ‘मरता क्या न करता’ की तर्ज पर अपने बच्चे पर पूरा पैसा खर्च करेंगे ही। वैसे भी स्लीपर क्लॉस में मिडिल क्लास सफर करता है, जिसके बारे में वित्त मंत्री अरुण जेटली पहले ही कह चुके हैं कि वह अपना ख्याल खुद रखे। इस नई व्यवस्था से रेलवे को 525 करोड़ रुपये सालाना की आय होगी। इस तरह सरकार की झोली लबालब भर जाएगी। जो मां-बाप अपने बच्चे का पूरा टिकट लेने में असमर्थ होंगे, उन्हें आधा टिकट लेकर भी बेसीट होना पड़ेगा। उसके हिस्से की सीट पूरे पैसे लेकर किसी और को दे दी जाएगी। बच्चों के हक पर डाका डालकर देश में हर साल 2 करोड़ अतिरिक्त सीटें उपलब्ध होने का दावा करने के साथ ही इस व्यवस्था को रोजाना 54 नई ट्रेन चलाने जैसा बताया जा रहा है।
सरकार ने रेलवे को दूध देने वाली गया समझ लिया है। इससे पहले रेलवे जनरल टिकट की वैधता मात्र तीन घंटे कर चुकी है। यानी अगर जनरल टिकट लेकर तीन घंटे के अंदर यात्रा नहीं करते हैं, तो वह अवैध हो जाएगा। दो साल होने को आए रेलवे ने यात्रियों पर तो भारी वित्तीय बोझ डाल दिया है, लेकिन रेलवे में कोई बड़ा सुधार हुआ हो, ऐसा अभी नजर नहीं आ रहा है। जो सरकार बच्चों के हक पर डाका डालने से भी नहीं कतरा रही है, वह कब कफन पर भी टैक्स थोप देगी, कुछ नहीं का जा सकता। हर रोज थोड़ा-थोड़ा मारने के बजाय सरकार एक बार ही जनता को क्यों नहीं मार देती।
मोदी सरकार बच्चों को भी नहीं बख्श रही है। आधे टिकट पर सीट न देने का क्रूर फरमान दरअसल आधा टिकट को खत्म करने की कवायद भर है, जो वह पीछे के दरवाजे से लागू कर रही है। सामने आकर आधा टिकट खत्म करने की उसमें हिम्मत नहीं है। जनरल डिब्बों में तो वैसे ही क्या पूरा क्या आधा टिकट, वैसे भी सीट नहीं मिलती है। स्लीपर क्लास में लंबी दूरी की यात्रा करने वाला बच्चा कैसे आधे टिकट पर बिना सीट के सफर करेगा, इसका ध्यान सरकार ने नहीं रखा है। इसलिए अब अपने बच्चे की ‘मुश्किल’(भक्तों का यही कहना है कि बच्चों को ‘थोड़ी मुश्किल’ होगी) आसान करने के लिए मां-बाप पूरा टिकट लेना ही सही समझेंगे। कौन चाहेगा कि चंद रुपयों की खातिर लंबी दूरी उनका बच्चा तकलीफ में पूरी करे? संभवत: सरकार की भी यही सोच है कि अभिभावक ‘मरता क्या न करता’ की तर्ज पर अपने बच्चे पर पूरा पैसा खर्च करेंगे ही। वैसे भी स्लीपर क्लॉस में मिडिल क्लास सफर करता है, जिसके बारे में वित्त मंत्री अरुण जेटली पहले ही कह चुके हैं कि वह अपना ख्याल खुद रखे। इस नई व्यवस्था से रेलवे को 525 करोड़ रुपये सालाना की आय होगी। इस तरह सरकार की झोली लबालब भर जाएगी। जो मां-बाप अपने बच्चे का पूरा टिकट लेने में असमर्थ होंगे, उन्हें आधा टिकट लेकर भी बेसीट होना पड़ेगा। उसके हिस्से की सीट पूरे पैसे लेकर किसी और को दे दी जाएगी। बच्चों के हक पर डाका डालकर देश में हर साल 2 करोड़ अतिरिक्त सीटें उपलब्ध होने का दावा करने के साथ ही इस व्यवस्था को रोजाना 54 नई ट्रेन चलाने जैसा बताया जा रहा है।
सरकार ने रेलवे को दूध देने वाली गया समझ लिया है। इससे पहले रेलवे जनरल टिकट की वैधता मात्र तीन घंटे कर चुकी है। यानी अगर जनरल टिकट लेकर तीन घंटे के अंदर यात्रा नहीं करते हैं, तो वह अवैध हो जाएगा। दो साल होने को आए रेलवे ने यात्रियों पर तो भारी वित्तीय बोझ डाल दिया है, लेकिन रेलवे में कोई बड़ा सुधार हुआ हो, ऐसा अभी नजर नहीं आ रहा है। जो सरकार बच्चों के हक पर डाका डालने से भी नहीं कतरा रही है, वह कब कफन पर भी टैक्स थोप देगी, कुछ नहीं का जा सकता। हर रोज थोड़ा-थोड़ा मारने के बजाय सरकार एक बार ही जनता को क्यों नहीं मार देती।
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