सलीम अख़्तर सिद्दीकी जैसे-जैसे चुनाव बीतता जा रहा है, वैसे-वैसे चुनाव नरेंद्र मोदी बनाम मुसलमान में बदल रहा है। कथित धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दलों की कोशिश है कि मोदी का भय दिखाकर उनके वोटों का ध्रुवीकरण अपने पक्ष में किया जाए। लेकिन जिस तरह से मुसलमानों के वोट बिखरे हैं, उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि उनकी कोशिश कामयाब नजर होती नजर नहीं आ रही है। सवाल उठता है कि क्या मुसलमानों में नरेंद्र मोदी का भय नहीं है, या सुनियोजित तरीके से उनके वोटों का बिखराव कराकर भाजपा की राह आसान की गई है। कयास लगाए जा रहे थे कि मोदी को रोकने के लिए उत्तर प्रदेश के मुसलमान बसपा को ही वोट करेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मुसलिम वोट बिखर गए। 10 अप्रैल को हुए पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सभी 10 सीटों पर कमोबेश यही नजारा देखने को मिला। उत्तर प्रदेश में अगले चरण में यह ट्रेंड बदलेगा या ऐसे ही चलता रहेगा, अभी कुछ कहा नहीं जा सकता।
इतना सब होने के बाद भी मुसलमानों की यह चिंता खत्म नहीं हो रही है कि नरेंद्र मोदी पीएम बन जाएंगे, तो देश में उनका मुस्तकबिल क्या होगा? हालांकि बहुत लोग इसे यह कहकर दरगुजर कर देते हैं कि पहले भी तो छह साल भाजपा सरकार रही, उसने मुसलमानों के साथ ऐसा क्या गलत कर दिया, जो मोदी सरकार कर देगी? लेकिन मुसलमानों का बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है, जो मानता है कि वाजपेयी सरकार और मोदी सरकार में जमीन-आसमान का अंतर होगा। दरअसल, जब नरेंद्र मोदी पूरे देश में ‘गुजरात मॉडल’ लागू करने की बात करते हैं, तो इसका मतलब यह नहीं होता कि भारत के हर शहर में गोधरा दोहराया जाएगा? या मोदी देश के मुसलमानों को हिंद महासागर में डूबो देंगे। इसका मतलब यह भी नहीं होता कि पूरा देश गुजरात की तर्ज पर तरक्की करेगा?
उनके ‘गुजरात मॉडल’ का मतलब होता है कि देशभर के मुसलमानों को उसी तरह दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया जाएगा, जैसा गुजरात में बनाया हुआ है। मुसलमान वहां किस हैसियत में जी रहे हैं, यह इससे पता चलता है कि देश के दो नामी क्रिकेटर भाइयों, इरफान पठान और युसूफ पठान के वालिद बीबीसी से राजनीति पर बात करने से इंकार कर देते हैं। कहा जा सकता है कि वह राजनीति में दिलचस्पी नहीं रखते होंगे, इसलिए मना किया होगा। लेकिन उनके लिए राजनीति पर कोई ‘स्टैंड’ लेना आसान काम नहीं रहा होगा। यदि वह नरेंद्र मोदी की तारीफ करते, तो उन्हें मुसलमानों की नाराजगी मोल लेनी पड़ती। मोदी की आलोचना करते, तो वह गुजरात के उस बडोदरा शहर में रहते हैं, जहां से मोदी चुनाव लड़ रहे हैं। ऐसे में उनकी ‘तटस्थ’ रहने की नीति ही उनके हित में हो सकती है। ऐसा नहीं है कि गुजरात में दो मुसलिम सेलेब्रिटी के पिता की ऐसी हालत है। मीडिया में आई रिपोर्टें बताती हैं कि आम मुसलमान भी राजनीति पर बात करने से न केवल बचते हैं, बल्कि बात करने वाले को भी शक की निगाह से देखते हैं। एक तरह से गुजरात के मुसलमानों को मोदी से ‘असहमत’ होने का अधिकार नहीं है। दरअसल, मोदी का ‘गुजरात मॉडल’ यही है कि जिस तरह गुजरात में मुसलमानों को औकात में रखा जा रहा है, ऐसे ही देश में रखा जाएगा। गुजरात में लगातार तीन बार जीतने के पीछे रहस्य भी यही है। इस समय जो सांप्रदायिक हिंदू नरेंद्र मोदी के पीछे लाबंबद हो रहे हैं, उनके दिमाग में यही है कि मोदी देश के मुसलमानों के दिमाग ठिकाने लगा देंगे।
सवाल उठता है कि नरेंद्र मोदी पीएम बने, तो क्या वह पूरे देश के मुसलमानों को दोयम दर्जे की हैसियत में ले आएंगे? क्या एक लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष देश में ऐसा संभव है? हो सकता है कि ऐसा न हो, लेकिन शक यह है कि मोदी केंद्र की राजनीति में हमेशा के लिए रहने के लिए ऐसा कुछ कर सकते हैं, जिससे देश के हिंदुओं में यह संदेश जाए कि वह ऐसा कर सकते हैं। भले ही वह सांकेतिक रूप से ही क्यों न हो। गुजरात में मोदी सरकार वह छात्रवृत्ति मुसलिम छात्रों में नहीं बांटती, जो केंद्र सरकार राज्य सरकारों को भेजती है। ऐसा करने की वजह मोदी यह बताते हैं कि इससे ‘भेदभाव’ की बू आती है। सच्चर समिति की रिपोर्ट कहती है कि गुजरात में मोदी के शासन काल में सहकारी बैंक या ग्रामीण विकास बैंक से वहां के मुसलमानों को किसी प्रकार का कोई कर्ज नहीं मिला है। सच्चर समिति की रिपोर्ट यह भी कहती है कि गुजरात के मुसलमानों को मजबूरन रोजगार के लिए स्वरोजगार, व्यापर और विनिर्माण जैसे अच्छे रोजगारों को छोड़कर ग्रामीण क्षेत्रों में मजदूरी का काम करने के लिए पलायन करना पड़ रहा है। पीएम बनने के बाद मोदी केंद्र सरकार की उन योजनाओं को रद्द कर सकते हैं, जो अल्पसंख्यकों के लिए चलाई जाती हैं। हालांकि वे योजनाएं चूंकि मुसलिमों के लिए नहीं, अल्पसंख्यकों के लिए चलाई जाती हैं, जिसमें सिख, जैन, बौद्ध और पारसी आते हैं, शायद मोदी के लिए ऐसा करना संभव न हो, लेकिन इस शक को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता। सबसे बड़ा खतरा यह है कि वह पाकिस्तान से पंगा ले सकते हैं, जिससे पूरे दक्षिण एशिया में अशांति फैल सकती है।
मुसलमानों के इतर हिंदुओं का भी एक बड़ा वर्ग नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय फलक पर स्थापित होने से परेशान है। उनकी परेशानी मोदी की तानाशाही प्रवृत्ति को लेकर तो ही है, यह भी है कि उनकी आर्थिक और विदेश नीति स्पष्ट नहीं है। उनका पूरा चुनावी प्रचार महज उनके ही इर्दगिर्द की सिमटा हुआ है। नरेंद्र मोदी भले ही भ्रष्टाचार पर वार कर रहे हों, लेकिन कर्नाटक के भूतपूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा की पार्टी का भाजपा में विलय जैसा कदम उनकी नीयत को साफ कर देता है। गुजरात में लोकायुक्त का पद आठ साल से खाली रहना और अदालती आदेश के बाद वहां एक लूला-लंगड़े लोकपाल की नियुक्ति बताती है कि मोदी नहीं चाहते कि कोई उनके ‘कामकाज’ पर उंगली उठाए। ऐसे में भाजपा के मजबूत जनलोकपाल का क्या होगा, इसे आसानी से समझा जा सकता है। कैग जैसी संस्था का क्या होगा, यह भी कहना मुश्किल है। बहरहाल, यह तब की बातें हैं, जब मोदी पीएम बन जाएंगे, लेकिन उनके प्रति जन्म शंकाओं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। उनका तानाशाही वाला अंदाज इस देश की दशा और दिशा बदल सकता है, जो नकारात्मक ही होगी, सकारात्मक नहीं।
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