Saturday, January 11, 2014

सोनी की सीढ़ी और दादी


रात के किसी पहर एक दोस्त का एसएमएस आया था कि दादी जी का स्वर्गवास हो गया है। मैं सोचने लगा कि मैंने तो कभी उस घर में दादी का अस्तित्व नहीं देखा, अचानक दादी कहां से आ गई। फिर सोचा कि हो सकता है, वह अपने किसी दूसरे बेटे के पास रहती हों। यही सोचते-सोचते दोस्त को फोन किया। पता चला कि दोपहर बारह बजे उनकी अंत्येष्टिी गंगा पर होगी। तैयार होकर सुबह नौ बजे ही दोस्त के घर पहुंच गया था।
अर्थी तैयार की जा रही थी, जिसे फूलमालाओं से सजाया जा रहा था। उस पर गुब्बारे भी लगाए जा रहे थे, जिन्हें बच्चे बड़े उत्साह से फुला रहे थे। मैंने अपने दोस्त की तलाश में इधर-उधर नजर डाली तो वह मुझे अन्य दोस्तों के साथ बात करता हुआ दिखाई दिया। उनके पास पहुंचते-पहुंचते मेरे कानों में एक आवाज आई, मेरे दोस्त का एक दूसरा दोस्त कह रहा था, अब तो तेरे मजे आ गए, दादी ने तेरा कमरा घेरा हुआ था। अब तो वह तुझे मिल जाएगा। मैं उनके करीब पहुंच चुका था, मेरा दोस्त कह रहा था, हां, यार दादी ने बहुत इंतजार कराया। वे शायद समय का ध्यान रखते हुए ठहाका नहीं मार सकते थे, इसलिए सभी मंद-मंद मुस्कुरा उठे। मेरे दोस्त के चेहरे पर आशा की चमक आ गई थी। वैसे भी वहां ऐसा माहौल नहीं था कि ऐसा लगे कि इस घर में किसी की मौत हुई है। मेरे जेहन में यही चल रहा था कि दोस्त की दादी कौन-सी थी। मैंने दोस्त से पूछा, तेरी दादी को कभी इस घर में तो नहीं देखा, क्या तेरे किसी चाचा के पास रहती थी? इससे पहले की वह मेरे सवाल का जवाब देता, उसे किसी ने पुकारा, वह अभी आया, कहकर चला गया। मैं दूसरे दोस्तों के साथ बातों में मशगूल हो गया।
बातों के बीच एक दोस्त ने दादी का हुलिया बयान करके बताया कि दादी कौन थी? हुलिए के आधार पर मैंने दादी को पहचाना तो मेरे जेहन को झटका लगा। तभी मेरा दोस्त प्रकट हुआ और आते ही बोला, दादी ने लंबी उम्र पाई है, इसलिए वह सोने की सीढ़ी पर चढ़कर जाएंगी। पिताजी ने किसी को सीढ़ी लेने भेजा था, वह अभी तक आया ही नहीं है। पिताजी तो बैंड वाले को भी कह आए थे, लेकिन मैंने ही फालतू खर्च के लिए मना कर दिया था। वह फिर बोला, अभी वह नहीं आया, जिसे सोने की सीढ़ी लेने भेजा था? फिर मोबाइल में टाइम देखकर बोला, अभी तो दस ही बजे हैं, शायद अभी दुकानें नहीं खुली होंगी। वह बोल रहा था और मेरे सामने एक कृशकाय वृद्ध महिला का चेहरा घूम रहा था। मैली धोती पहने, झाड़ू लगाती हुई, फर्श पर पौंछा लगाती हुई, बाल्टी में कपड़े भरकर छत पर सुखाने के लिए हांफती हुई सीढ़ियां चढ़ती हुई, बहु यानी मेरे दोस्त की मां की झिड़की सुनती हुई। आज मुझे पता चला कि वह नौकरानी नहीं, दादी थी। अर्थी तैयार हो चुकी थी। अर्थी को चार लोग उठाकर अंतिम यात्रा वाहन की ओर चलने लगे। मेरे बराबर में चल रहे दो लोगों में एक फुसफुसाया जिंदगी भर नौकरानी बनकर रही, अब सोने की सीढ़ी पर चढ़कर जा रही है।

1 comment:

  1. सलीम जी.आपने हिन्दू समज में व्याप्त कुरीतियों और सम्वेदनहीनता का वास्तविक उल्लेख किया है.इसके लिए आप साधुवाद के पात्र हैं
    सत्य शील अग्रवाल

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