वह एक शहर के एक नामचीन शिक्षण संस्थान की कैंटीन थी। ‘विद्या का ज्ञान’ देने का दावा करने वाले उस संस्थान में ‘मेरिट’ पर नहीं ‘डोनेशन’ पर दाखिला दिया जाता था। वहां आम आदमी के बच्चों के लिए कोई जगह नहीं थी। यही वजह थी कि कैंटीन में ऐसे छात्रों का जमावाड़ा था, जिनके चेहरे-मोहरे से ही रईसी टपकती थी। छह-सात लड़कों का एक ग्रुप चर्चा में मशगूल था। बहस इस पर हो रही थी कि जॉब सरकारी बेहतर है या प्राइवेट? कोई प्राइवेट सेक्टर की अच्छाई बता रहा था, तो कोई सरकारी नौकरी की। लेकिन अधिकतर का मत यही था कि प्राइवेट सेक्टर में सिक्योरिटी नहीं है, जबकि सरकारी नौकरी में सिक्योरिटी के साथ ही ‘ऊपर की आमदनी’ भी बहुत है। चर्चा की बीच एक छात्र बोल उठा, ‘मेरे पापा की यूं तो 35 हजार सेलरी है, लेकिन ऊपर की आमदनी इससे कई गुना है। सेलरी न भी मिले तो परवाह नहीं।’ दूसरे ने हांक लगाई, ‘अबे ऐसा न होता, तो यहां पांच लाख देकर एडमिशन ले सकता था तू?’ एक छात्र उनकी बातें सुनकर कुछ उदास हो गया था। उसकी सूरत देखकर एक लड़के ने कहा, ‘अरे, तेरे चेहरे पर क्यों 12 बज गए?’ उसने कहा, सोच रहा हूं, ‘अगर मेरे पापा पर ईमानदारी का भूत सवार न हुआ होता, तो मैं भी तुम्हारी तरह ही ऐश कर रहा होता।’ उसकी बात सुनकार थोड़ी देर के लिए खामोशी छा गई। एक छात्र ने खामोशी तोड़ते हुआ कहा, ‘अच्छा यह सब छोड़ो, यह बताओ शाम को कहां मिल रहे हो?’ इस सवाल के जवाब में एक आवाज उभरी, ‘लेकिन ‘बार’ का खर्च कौन उठाएगा?’ एक ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा, ‘वही उठाएगा, जिसका बाप सेलरी से कई गुना ऊपर की आमदनी करता है।’ वह छात्र, जिसके बारे में यह कहा गया था, बोल उठा, ‘नहीं यार आज मंगलवार है, मुझे मंदिर जाना है। हमारे ‘गुरुजी’ ने सख्ती से मंगलवार को कुछ ऐसा-वैसा करने के लिए मना किया हुआ है।’ उसने उठते हुए अपनी बात पूरी की, ‘दरअसल, मेरे डैडी को आमदनी वाली पोस्ट तभी मिली थी, जब उन्होंने ‘गुरुजी’ के सत्संग में जाना शुरू किया था। उस ग्रुप से इतर दूसरे ग्रुप से किसी ने ऊंची आवाज में कहा, ‘गुरुजी ने सख्ती से रिश्वत लेने को मना नहीं किया, तेरे बाप को?’ कैंटीन में सन्नाटा पसर गया।
Sunday, December 1, 2013
ऊपर की आमदनी
वह एक शहर के एक नामचीन शिक्षण संस्थान की कैंटीन थी। ‘विद्या का ज्ञान’ देने का दावा करने वाले उस संस्थान में ‘मेरिट’ पर नहीं ‘डोनेशन’ पर दाखिला दिया जाता था। वहां आम आदमी के बच्चों के लिए कोई जगह नहीं थी। यही वजह थी कि कैंटीन में ऐसे छात्रों का जमावाड़ा था, जिनके चेहरे-मोहरे से ही रईसी टपकती थी। छह-सात लड़कों का एक ग्रुप चर्चा में मशगूल था। बहस इस पर हो रही थी कि जॉब सरकारी बेहतर है या प्राइवेट? कोई प्राइवेट सेक्टर की अच्छाई बता रहा था, तो कोई सरकारी नौकरी की। लेकिन अधिकतर का मत यही था कि प्राइवेट सेक्टर में सिक्योरिटी नहीं है, जबकि सरकारी नौकरी में सिक्योरिटी के साथ ही ‘ऊपर की आमदनी’ भी बहुत है। चर्चा की बीच एक छात्र बोल उठा, ‘मेरे पापा की यूं तो 35 हजार सेलरी है, लेकिन ऊपर की आमदनी इससे कई गुना है। सेलरी न भी मिले तो परवाह नहीं।’ दूसरे ने हांक लगाई, ‘अबे ऐसा न होता, तो यहां पांच लाख देकर एडमिशन ले सकता था तू?’ एक छात्र उनकी बातें सुनकर कुछ उदास हो गया था। उसकी सूरत देखकर एक लड़के ने कहा, ‘अरे, तेरे चेहरे पर क्यों 12 बज गए?’ उसने कहा, सोच रहा हूं, ‘अगर मेरे पापा पर ईमानदारी का भूत सवार न हुआ होता, तो मैं भी तुम्हारी तरह ही ऐश कर रहा होता।’ उसकी बात सुनकार थोड़ी देर के लिए खामोशी छा गई। एक छात्र ने खामोशी तोड़ते हुआ कहा, ‘अच्छा यह सब छोड़ो, यह बताओ शाम को कहां मिल रहे हो?’ इस सवाल के जवाब में एक आवाज उभरी, ‘लेकिन ‘बार’ का खर्च कौन उठाएगा?’ एक ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा, ‘वही उठाएगा, जिसका बाप सेलरी से कई गुना ऊपर की आमदनी करता है।’ वह छात्र, जिसके बारे में यह कहा गया था, बोल उठा, ‘नहीं यार आज मंगलवार है, मुझे मंदिर जाना है। हमारे ‘गुरुजी’ ने सख्ती से मंगलवार को कुछ ऐसा-वैसा करने के लिए मना किया हुआ है।’ उसने उठते हुए अपनी बात पूरी की, ‘दरअसल, मेरे डैडी को आमदनी वाली पोस्ट तभी मिली थी, जब उन्होंने ‘गुरुजी’ के सत्संग में जाना शुरू किया था। उस ग्रुप से इतर दूसरे ग्रुप से किसी ने ऊंची आवाज में कहा, ‘गुरुजी ने सख्ती से रिश्वत लेने को मना नहीं किया, तेरे बाप को?’ कैंटीन में सन्नाटा पसर गया।
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this is reality of our society .well written .
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