Tuesday, February 26, 2013

कौन कहता है कि भारत में मुसलमानों के लिये आरक्षण नहीं है

अमलेन्दु उपाध्याय
हैदराबाद बम विस्फोट के बाद भारतीय मीडिया भले ही सरकार और जाँच एजेंसियों पर दबाव बनाने में कामयाब हो गया हो लेकिन न केवल उसकी साम्प्रदायिकता और कट्टरपंथी हिन्दुत्ववादी ताकतों से साँठ-गाँठ उजागर हो गयी बल्कि यह भी उजागर हो गया कि आतंकवाद के खेल में मीडिया घरानों की भूमिका भी कम संदिग्ध नहीं है। जहाँ एक ओर सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति अल्तमस कबीर मीडिया ट्रायल पर गम्भीर चिन्ता जता रहे हैं वहीं पाकिस्तान के एक अखबार ने यह पोल खोल दी है कि भारतीय मीडिया हैदराबाद बम विस्फोट में जिस संदिग्ध को दिखा रहा है उसकी तो पहले ही हत्या हो चुकी है।
    हाल ही में जस्टिस अल्तमस कबीर ने पटना में एक कार्यक्रम में इस बात पर चिन्ता जतायी थी कि ट्रायल अदालतों में ही होना चाहिये और फैसला अदालतों में ही होना चाहिये। लेकिन ऐसी बातें चाहे जस्टिस कबीर कहें या जस्टिस मार्कण्डेय काटजू, हमारे मीडिया की समझ में यह बातें आना बन्द हो गयी हैं। तमाशा यह है कि आईबी या पुलिस अपनी चार्जशीट पहले मीडियाकर्मियों को उपलब्ध करा देती है और मीडिया उसे अपनी स्पेशल रिपोर्ट बताकर चिल्लाना और सरकार पर दबाव बनाना शुरू कर देता है। हैदराबाद बम ब्लास्ट के बाद भी ऐसा देखने में आ रहा है। जब विस्फोट के दस मिनट बाद ही मीडिया एक सुर में चिल्लाने लगा कि इसके पीछे इण्डियन मुजाहिदीन का हाथ है और पूरी रटी-रटायी थ्योरी एक्सक्ल्यूसिव स्टोरी बताकर प्रसारित होने लगी।
    पाकिस्तान के अखबार द एक्सप्रेस ट्रिब्यून ने खुलासा किया है कि कुछ भारतीय मीडिया घराने इस ब्लास्ट में जिस संदिग्ध को दिखा रहे हैं वह पाकिस्तान की मुत्तहिदा कौमी मूवमेन्ट (एमक्यूएम) के लीडर मरहूम एपीए मंजर इमाम का चित्र है। इतना ही नहीं गम्भीर बात यह है कि इमाम की हत्या बीती 17 जनवरी को हो चुकी है और तालिबानी संगठन तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान ने इस हत्या की जिम्मेदारी कुबूल की है। मजे की बात यह है कि भारतीय मीडिया इमाम का चित्र दिखा कर उन्हें न सिर्फ इण्डियन मुजाहिदीन का सदस्य बता रहा है बल्कि हैदराबाद के संभावित गुनाहगारों में दिखा रहा है।
यहाँ सवाल उठता है कि खुफिया एजेन्सियों के प्रोपेगण्डा को खबर बनाकर चलाना कहाँ की पत्रकारिता है। क्या किसी खबर को प्रकाशित करने या आॅन एयर करने से पहले उसकी थोड़ी सी भी पड़ताल करना मीडियाकर्मियों के पेशे की नैतिकता में शामिल नहीं है। लोकतन्त्र के कथित चौथे खम्भे की ऐसी काली करतूतें देश विभाजन की भूमिका तैयार करती हैं। 
सोशल मीडिया पर भी भारतीय मीडिया की इस काली करतूत की जमकर भर्त्सना हो रही है। फेसबुक पर एक पत्रकार ने मजाक उड़ाते हुये लिखा है झ्र इट्स नॉट फेयर यार। इण्डियन मीडिया के बारे में ऐसा नहीं कहते..... यार अब वो भी क्या करें? आईबी वालों ने गरीब रिपोर्टर्स को जो दिया वो उन्होंने चला दिया... इसमें उनकी क्या गलती है? भाई मैं तो अपने भाइयों के साथ हूँ।
ऐसा नहीं है कि यह कोई पहला मौका है जब भारतीय मीडिया का काला चेहरा सामने आ रहा है। पहले भी कई मौकों पर इसका साम्प्रदायिक चरित्र उजागर हो चुका है। पत्रकार गिलानी प्रकरण में भी मीडिया ने अपना साम्प्रदायिक चरित्र दिखाया था।
मानवाधिकार कार्यकर्ता महताब आलम सवाल उठा रहे हैं कि हैदराबाद ब्लास्ट में कम से कम 6 लोग हिरासत में लिये गये या उनसे पूछताछ की गयी जबकि 13 के नाम उस सूची में हैं जिनसे पूछताछ की जानी है। सभी मुस्लिम हैं। वह व्यंग्य करते हैं- ह्लकौन कहता है कि भारत में मुसलमानों के लिये आरक्षण नहीं है? आतंक का कोई रंग नहीं होता है लेकिन निश्चित रूप से यह इस्लामिक आतंकवाद है।ह्ल
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक समीक्षक हैं। हस्तक्षेप डॉट कॉम के संपादक)

1 comment:

  1. आप ने सही कहा है..........
    पता नहीं क्यों पर मुझे यह लग रहा है कि भारतीय मिडिया शायद इस तरह के काम जान-बूझ कर हमेश ही करती रहती है.... और अब तो हद में भी नहीं रहती है

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