सलीम अख्तर सिद्दीकी
भारतीय जनता पार्टी 1984 में मात्र दो सीटें लेकर आई थी। दो साल बीतते-बीतते बिल्ली के भाग से छींका टूटा और एक फरवरी 1986 को विवादित बाबरी मसजिद का ताला खुला। भाजपा ने उसे मुद्दा बनाया और साल-दर-साल सीटें बढ़ाते हुए 1999 में 182 पर जा पहुंची। इससे आगे का रास्ता कठिन था। एक तरह से वह संतृप्त अवस्था में आ गई थी। जब तक भाजपा ने सत्ता का स्वाद नहीं चखा था, तब तक वह सभ्य और अनुशासित पार्टी लगती थी। भाजपा से जुड़ने वालों में एक वर्ग वह भी था, जिसे राममंदिर से कुछ लेना-देना नहीं था, लेकिन कांग्रेस का विकल्प चाहता था। केंद्र में सत्ता मिली, तो अनुशासन तार-तार हो गया। एकमात्र राममंदिर के मुद्दे पर पर वह कब तक जिंदा रहती? आहिस्ता-आहिस्ता लोगों का उससे मोह भंग हुआ और जिस तेजी के साथ उसका उदय हुआ था, उतनी ही तेजी से पराभव हो गया। सत्ता में रहने के बाद उसमें वही दुर्गुण आ गए, जिनकी आलोचना से जनता का विश्वास जीता था। इस बीच राजस्थान, गुजरात, कर्नाटक और मध्यप्रदेश में परचम तो लहराता रहा, लेकिन इन राज्यों के वसुंधरा राजे सिंधिया, नरेंद्र मोदी और येदियुरप्पा जैसे वजीर इतने ताकतवर हो गए कि राजा यानी भाजपा ‘आला कमान’ को ही ललकारने लगे। भाजपा का मातृ संगठन आरएसएस भी हैरान-परेशान होकर सब देख रहा है। जिस पार्टी के बारे में कहा जाता रहा है कि वह आरएसएस की मर्जी के बगैर कुछ भी नहीं कर सकती, उसी के प्रमुख मोहन भागवत अपने प्यारे संजय जोशी की बलि होते देखते रहे और कुछ नहीं कर सके।
साफ संदेश है कि नरेंद्र मोदी जैसे कुछ ‘वजीर’ अब किसी की भी नहीं सुनना चाहते, आरएसएस की भी नहीं। सत्ता के शीर्ष को छूने की महत्वाकांक्षा ऐसी ही होती है। सबसे पहले उन्हीं को रौंदकर आगे बढ़ा जाता है, जो हमराही थे। राजस्थान में वसुंधरा राजे सिंधिया अपने पक्ष में 50 से ज्यादा विधायकों के इस्तीफे लेकर अपनी ताकत का प्रदर्शन करके आलकमान को सकते में डाल देती हैं, तो कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा ‘मैं नहीं तो कोई भी नहीं’ का नारा लगाकर भाजपा की फजीहत कराते हैं। भाजपा से बहुत लोगों के वैचारिक मतभेद हो सकते हैं, हैं भी, लेकिन भारतीय लोकतंत्र के लिए मुख्य विपक्ष दल का कमजोर होना संतुलित राजनीति के लिए सही नहीं है। सत्ता पक्ष को उसको चित करने के लिए कुछ करना ही नहीं पड़ रहा है, वह खुद ही अपना दुश्मन बन बैठा है।
अटल बिहारी वाजपेयी के राजनीतिक पटल से दूर होने और लालकृष्ण आडवाणी को किनारे लगाने के बाद भाजपा में ऐसा कोई नेता नजर नहीं आ रहा है, जिसके पीछे पार्टी एकजुट रह सके। यही वजह है कि नरेंद्र मोदी जैसों की बन आई है। वह पहले ढके-छुपे अपने को पार्टी से बड़ा होने का एहसास कराते थे, लेकिन अब खुल्लमखुल्ला करा रहे हैं। जो भाजपा यह कहते नहीं अघाती थी कि उसके यहां आंतरिक लोकतंत्र है, लेकिन इसके नाम पर जो कुछ हो रहा है, उसे देखते हुए लगता है कि 2014 का उसका मिशन एक बार फिर फेल होने वाला है। यदि यही हाल रहा तो कांग्रेस के कुशासन का जो लाभ उसे मिलता, वह उसे नहीं मिलने वाला। दरअसल, भाजपा की राजनीतिक और आर्थिक नीति के मामले में कांग्रेस की पिछलग्गू ही है। लगभग एक जैसा आर्थिक एजेंडा भी है। राममंदिर, धारा 370 और समान सिविल कोड जैसे भावुक मुद्दों के सहारे ही उसने सत्ता के शिखर छुआ था। इसमें भी राममंदिर मुद्दा उसके लिए संजीवनी था। मुद्दा राख हुआ तो भाजपा भी नीचे आती चली गई। उसकी गलती यही रही कि सत्ता के शिखर पर पहुंचने के बाद ऐसा कोई काम नहीं किया, जिसकी वजह से उसकी प्रासंगिकता बनी रहती।
जब कोई भावुक मुद्दा नहीं रहा, तो भाजपा के कुछ नेताओं का लग रहा है कि अब गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ही भाजपा की नैया पार लगा सकते हैं। लेकिन क्या नरेंद्र मोदी की राह इतनी ही आसान है? नहीं भूलना चाहिए कि भाजपा अपने स्वर्णिम काल में भी 200 सीटों का आंकड़ा पार नहीं कर पाई थी। हालांकि उसने यह बार-बार दोहराया था कि अयोध्या में भव्य राममंदिर तभी बन सकता है, जब उसे पूर्ण बहुमत दिया जाए। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भी एनडीए सरकार इसलिए बन गई थी, क्योंकि उनकी छवि सभी भाजपा नेताओं से अलग थी। लालकृष्ण आडवाणी इसलिए प्रधानमंत्री नहीं बन पाए थे, क्योंकि उन्हें कोई भी राजनीतिक दल समर्थन देने के लिए तैयार नहीं था।
देश का प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे नरेंद्र मोदी यह क्यों भूल रहे हैं कि उनकी छवि तो आडवाणी से भी ज्यादा खराब है। यदि उन्हें प्रधानमंत्री प्रोजेक्ट करके भाजपा चुनाव लड़ती भी है, तो बहुमत में नहीं आने की दशा में वह किसका मुंह देखेंगे। दूसरे दलों की बात जाने दें, खुद भाजपा में उन्होंने जो दुश्मन बनाए हैं, क्या वह उन्हें प्रधानमंत्री पद तक पहुंचने देंगे? मोदी का अंहकार ही उनका दुश्मन बन रहा है। संजय जोशी प्रकरण तो नया है। सवाल उठ रहे हैं कि केशुभाई पटेल, कांशी राम राणा, सुरेश भाई मेहता, प्रवीण भाई तोगड़िया, गोवर्धन झड़फिया जैसे गुजरात के नेता क्यों उनके खिलाफ हैं? नरेंद्र मोदी अब अपने आप को गुजरात में अजेय समझने की भूल करने लगे हैं। वह भूल रहे हैं कि पार्टी और आरएसएस से बैर लेकर वह अजेय नहीं रह सकते। कभी कल्याण सिंह की भी उत्तर प्रदेश में तूती बोलती थी। आज वह कहां हैं? दीगर बात है कि पार्टी भी यहां किनारे पर है, लेकिन उसके कारण अलग है, कल्याण सिंह नहीं। उमा भारती भाजपा से अलग होकर कुछ नहीं कर सकीं। आखिरकार भाजपा में ही उन्हें शरण मिली। नरेंद्र मोदी भले ही भाजपा नहीं छोड़ें, लेकिन उनकी तानाशाही उनके अजेय होने का भ्रम तोड़ सकती है।
तानाशाही के चलते केशुभाई पटेल खुलकर मोदी के विरोध में सामने आ गए हैं। वह गुजरात के कुल वोटों में से 16 से 18 प्रतिशत पटेल वोटों को कहीं भी ले जाने की क्षमता रखते हैं। कुछ दिन पहले हुए मानसा उपचुनाव में पटेल समाज भाजपा उम्मीदवार के खिलाफ वोट डालकर अपनी नाराजगी जाहिर कर चुका है। ब्राह्मण भी अब मोदी के खिलाफ लामबंद होने लगे हैं। गुजरात दंगों को दस साल हो चुके हैं। दंगों की बुनियाद पर उन्होंने जो इमारत खड़ी की थी, वह हमेशा खड़ी नहीं रहेगी। 2007 में उन्हें पूर्ण बहुमत मिला था, लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की सीटें पहले के मुकाबले कम हो गर्इं थीं। 2012 आते-आते बहुत कुछ बदल गया है। अब मोदी दूसरों के साथ ही अपनों के भी निशाने पर हैं। वे अपने, जिन्होंने उन्हें इस लायक बनाया कि वह प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब देख सकें। वह यह भी जानते हैं कि जब अपने दुश्मन बन जाएं, तो उनसे पार पाना बेहद मुश्किल होता है। 2012 के गुजरात विधानसभा चुनाव तय करेंगे कि नरेंद्र भाई मोदी से भाजपा है या मोदी का वजूद भाजपा से है?
भारतीय जनता पार्टी 1984 में मात्र दो सीटें लेकर आई थी। दो साल बीतते-बीतते बिल्ली के भाग से छींका टूटा और एक फरवरी 1986 को विवादित बाबरी मसजिद का ताला खुला। भाजपा ने उसे मुद्दा बनाया और साल-दर-साल सीटें बढ़ाते हुए 1999 में 182 पर जा पहुंची। इससे आगे का रास्ता कठिन था। एक तरह से वह संतृप्त अवस्था में आ गई थी। जब तक भाजपा ने सत्ता का स्वाद नहीं चखा था, तब तक वह सभ्य और अनुशासित पार्टी लगती थी। भाजपा से जुड़ने वालों में एक वर्ग वह भी था, जिसे राममंदिर से कुछ लेना-देना नहीं था, लेकिन कांग्रेस का विकल्प चाहता था। केंद्र में सत्ता मिली, तो अनुशासन तार-तार हो गया। एकमात्र राममंदिर के मुद्दे पर पर वह कब तक जिंदा रहती? आहिस्ता-आहिस्ता लोगों का उससे मोह भंग हुआ और जिस तेजी के साथ उसका उदय हुआ था, उतनी ही तेजी से पराभव हो गया। सत्ता में रहने के बाद उसमें वही दुर्गुण आ गए, जिनकी आलोचना से जनता का विश्वास जीता था। इस बीच राजस्थान, गुजरात, कर्नाटक और मध्यप्रदेश में परचम तो लहराता रहा, लेकिन इन राज्यों के वसुंधरा राजे सिंधिया, नरेंद्र मोदी और येदियुरप्पा जैसे वजीर इतने ताकतवर हो गए कि राजा यानी भाजपा ‘आला कमान’ को ही ललकारने लगे। भाजपा का मातृ संगठन आरएसएस भी हैरान-परेशान होकर सब देख रहा है। जिस पार्टी के बारे में कहा जाता रहा है कि वह आरएसएस की मर्जी के बगैर कुछ भी नहीं कर सकती, उसी के प्रमुख मोहन भागवत अपने प्यारे संजय जोशी की बलि होते देखते रहे और कुछ नहीं कर सके।
साफ संदेश है कि नरेंद्र मोदी जैसे कुछ ‘वजीर’ अब किसी की भी नहीं सुनना चाहते, आरएसएस की भी नहीं। सत्ता के शीर्ष को छूने की महत्वाकांक्षा ऐसी ही होती है। सबसे पहले उन्हीं को रौंदकर आगे बढ़ा जाता है, जो हमराही थे। राजस्थान में वसुंधरा राजे सिंधिया अपने पक्ष में 50 से ज्यादा विधायकों के इस्तीफे लेकर अपनी ताकत का प्रदर्शन करके आलकमान को सकते में डाल देती हैं, तो कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा ‘मैं नहीं तो कोई भी नहीं’ का नारा लगाकर भाजपा की फजीहत कराते हैं। भाजपा से बहुत लोगों के वैचारिक मतभेद हो सकते हैं, हैं भी, लेकिन भारतीय लोकतंत्र के लिए मुख्य विपक्ष दल का कमजोर होना संतुलित राजनीति के लिए सही नहीं है। सत्ता पक्ष को उसको चित करने के लिए कुछ करना ही नहीं पड़ रहा है, वह खुद ही अपना दुश्मन बन बैठा है।
अटल बिहारी वाजपेयी के राजनीतिक पटल से दूर होने और लालकृष्ण आडवाणी को किनारे लगाने के बाद भाजपा में ऐसा कोई नेता नजर नहीं आ रहा है, जिसके पीछे पार्टी एकजुट रह सके। यही वजह है कि नरेंद्र मोदी जैसों की बन आई है। वह पहले ढके-छुपे अपने को पार्टी से बड़ा होने का एहसास कराते थे, लेकिन अब खुल्लमखुल्ला करा रहे हैं। जो भाजपा यह कहते नहीं अघाती थी कि उसके यहां आंतरिक लोकतंत्र है, लेकिन इसके नाम पर जो कुछ हो रहा है, उसे देखते हुए लगता है कि 2014 का उसका मिशन एक बार फिर फेल होने वाला है। यदि यही हाल रहा तो कांग्रेस के कुशासन का जो लाभ उसे मिलता, वह उसे नहीं मिलने वाला। दरअसल, भाजपा की राजनीतिक और आर्थिक नीति के मामले में कांग्रेस की पिछलग्गू ही है। लगभग एक जैसा आर्थिक एजेंडा भी है। राममंदिर, धारा 370 और समान सिविल कोड जैसे भावुक मुद्दों के सहारे ही उसने सत्ता के शिखर छुआ था। इसमें भी राममंदिर मुद्दा उसके लिए संजीवनी था। मुद्दा राख हुआ तो भाजपा भी नीचे आती चली गई। उसकी गलती यही रही कि सत्ता के शिखर पर पहुंचने के बाद ऐसा कोई काम नहीं किया, जिसकी वजह से उसकी प्रासंगिकता बनी रहती।
जब कोई भावुक मुद्दा नहीं रहा, तो भाजपा के कुछ नेताओं का लग रहा है कि अब गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ही भाजपा की नैया पार लगा सकते हैं। लेकिन क्या नरेंद्र मोदी की राह इतनी ही आसान है? नहीं भूलना चाहिए कि भाजपा अपने स्वर्णिम काल में भी 200 सीटों का आंकड़ा पार नहीं कर पाई थी। हालांकि उसने यह बार-बार दोहराया था कि अयोध्या में भव्य राममंदिर तभी बन सकता है, जब उसे पूर्ण बहुमत दिया जाए। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भी एनडीए सरकार इसलिए बन गई थी, क्योंकि उनकी छवि सभी भाजपा नेताओं से अलग थी। लालकृष्ण आडवाणी इसलिए प्रधानमंत्री नहीं बन पाए थे, क्योंकि उन्हें कोई भी राजनीतिक दल समर्थन देने के लिए तैयार नहीं था।
देश का प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे नरेंद्र मोदी यह क्यों भूल रहे हैं कि उनकी छवि तो आडवाणी से भी ज्यादा खराब है। यदि उन्हें प्रधानमंत्री प्रोजेक्ट करके भाजपा चुनाव लड़ती भी है, तो बहुमत में नहीं आने की दशा में वह किसका मुंह देखेंगे। दूसरे दलों की बात जाने दें, खुद भाजपा में उन्होंने जो दुश्मन बनाए हैं, क्या वह उन्हें प्रधानमंत्री पद तक पहुंचने देंगे? मोदी का अंहकार ही उनका दुश्मन बन रहा है। संजय जोशी प्रकरण तो नया है। सवाल उठ रहे हैं कि केशुभाई पटेल, कांशी राम राणा, सुरेश भाई मेहता, प्रवीण भाई तोगड़िया, गोवर्धन झड़फिया जैसे गुजरात के नेता क्यों उनके खिलाफ हैं? नरेंद्र मोदी अब अपने आप को गुजरात में अजेय समझने की भूल करने लगे हैं। वह भूल रहे हैं कि पार्टी और आरएसएस से बैर लेकर वह अजेय नहीं रह सकते। कभी कल्याण सिंह की भी उत्तर प्रदेश में तूती बोलती थी। आज वह कहां हैं? दीगर बात है कि पार्टी भी यहां किनारे पर है, लेकिन उसके कारण अलग है, कल्याण सिंह नहीं। उमा भारती भाजपा से अलग होकर कुछ नहीं कर सकीं। आखिरकार भाजपा में ही उन्हें शरण मिली। नरेंद्र मोदी भले ही भाजपा नहीं छोड़ें, लेकिन उनकी तानाशाही उनके अजेय होने का भ्रम तोड़ सकती है।
तानाशाही के चलते केशुभाई पटेल खुलकर मोदी के विरोध में सामने आ गए हैं। वह गुजरात के कुल वोटों में से 16 से 18 प्रतिशत पटेल वोटों को कहीं भी ले जाने की क्षमता रखते हैं। कुछ दिन पहले हुए मानसा उपचुनाव में पटेल समाज भाजपा उम्मीदवार के खिलाफ वोट डालकर अपनी नाराजगी जाहिर कर चुका है। ब्राह्मण भी अब मोदी के खिलाफ लामबंद होने लगे हैं। गुजरात दंगों को दस साल हो चुके हैं। दंगों की बुनियाद पर उन्होंने जो इमारत खड़ी की थी, वह हमेशा खड़ी नहीं रहेगी। 2007 में उन्हें पूर्ण बहुमत मिला था, लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की सीटें पहले के मुकाबले कम हो गर्इं थीं। 2012 आते-आते बहुत कुछ बदल गया है। अब मोदी दूसरों के साथ ही अपनों के भी निशाने पर हैं। वे अपने, जिन्होंने उन्हें इस लायक बनाया कि वह प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब देख सकें। वह यह भी जानते हैं कि जब अपने दुश्मन बन जाएं, तो उनसे पार पाना बेहद मुश्किल होता है। 2012 के गुजरात विधानसभा चुनाव तय करेंगे कि नरेंद्र भाई मोदी से भाजपा है या मोदी का वजूद भाजपा से है?
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