पाकिस्तान के एक सरकारी अधिकारी मुहम्मद खुरशीद खान 2010 में अफगानिस्तान के पेशावर में तालिबानियों द्वारा तीन सिखों के अपहरण किए जाने और उनमें से एक को मार दिए जाने से इतने व्यथित हुए कि उन्होंने धार्मिक स्थलों में सेवाएं देनी शुरू कर दीं। इसी कड़ी में वह जब एक सम्मेलन में शिरकत करने दिल्ली आए, तो उन्होंने रकाबगंज गुरुद्वारे में ‘कारसेवा’ करके तालिबानियों ने जो गुनाह किया था, उसका प्रायश्चित किया। उनकी तमन्ना है कि भारत-पाकिस्तान दुश्मनी को दफन करके दोस्ती के तराने गाएं। खुरशीद की सोच और संवेदनशीलता को सराहा जाना चाहिए, लेकिन सवाल यह है कि क्या इस तरह के ‘सांकेतिक सद्भाव’ से दोनों देशों के बीच दोस्ती का तराना गाना संभव है? खुर्शीद पहले आदमी नहीं हैं, जिन्होंने ऐसा प्रयास किया हो। पत्रकार कुलदीप नैयर अपने ‘गिनेचुने’ साथियों के साथ वाघा बॉर्डर पर अरसे से ‘सद्भावना’ की मोमबत्तियां रोशन करते आ रहे हैं, तो पाकिस्तान के मेहदी हसन और गुलाम अली जैसे कलाकार भारत आकर दोस्ती को परवान चढ़ाने के लिए अपनी गजलों से माहौल को रुमानी बनाते रहे हैं। मेहदी हसन दोस्ती की चाह में जिंदगी की आखिरी दिन गिन रहे हैं, लेकिन कोई धुन ऐसी नहीं बन सकी, तो दूरियों को वास्तव में कम सकती। इतना जरूर हुआ कि गजलों की महक के बीच बारूद की गंध दूरियों को लगातार बढ़ाती रही, तो बमों की दहल से मोमबत्तियां बुझती रही हैं। ऐसे में खुर्शीद, कुलदीप नैयर, मेहदी हसन या गुलाम अली का प्रयास बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं जगा सका।
इन सांकेतिक प्रयासों के कुछ मायने तब तक नहीं हैं, जब तक पाकिस्तान नेतृत्व और खासकर वहां की फौज ईमानदाराना तरीके से वाकई दोस्ती चाहे। लेकिन पाकिस्तानी की कुंडली में ऐसा है ही नहीं। भारत विरोध की घुट्टी, जो उसे उसके जन्म से पिलाई गई थी, वह उसे कभी चैन से बैठने नहीं देती। कभी वह हमारी संसद पर हमला करके भारत की संप्रभुता को चुनौती देता है, कभी मुंबई में हमला करके उसकी अस्मिता पर चोट करता है। उस पर भी तुर्रा यह कि ‘हमने कुछ नहीं किया’। हालांकि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उसकी कारगुजारियों की निंदा समय-समय पर होती रही है, लेकिन इसका क्या किया जाए कि आज की तारीख में उससे बहुत ज्यादा दुखी अमेरिका के लिए पाकिस्तान कुछ सामरिक कारणों से ऐसा छछूंदर बन चुका है, जो उससे न तो निगला जाए और न निगला जाए। यही वजह है कि न चाहते हुए भी अमेरिका उसकी ढाल बन ही जाता है। दरअसल, पाकिस्तान खुद कोई ताकत नहीं है, ताकत हैं वह देश, जिनको पाकिस्तान की हर हाल में जरूरत है।
मुहम्मद खुरशीद खान जब गुरुद्वारे में अपनी ‘सेवाएं’ दे रहे थे, तो नहीं चाहते थे कि उनकी पहचान उजागर हो। पहचाने न जाने की कोशिश के पसमंजर में उनके दिल में भी वही डर छुपा होगा, जो एक मुसलमान के दिल में इसलाम से खारिज होने का होता है। उनका डर बताता है कि कट्टरपंथियों का खौफ उदारवादियों पर कितना हावी होता है। पाकिस्तान में उदारवादियों की कमी नहीं है, लेकिन कुछ ‘डर’ ऐसे हैं, जो उन्हें सामने आने से रोकते हैं। सलमान तासीर जैसा हश्र होने से बचना चाहते हैं। यदि खुरशीद खान जैसे लोग वास्तव में चाहते हैं कि दोनों देश दोस्त बनें, तो उन्हें पाकिस्तान के कट्टरवादियों के सामने झुकना बंद करना पड़ेगा। नेतृत्व पर दबाव बनाना होगा कि छद्म दोस्ती के बजाय वास्तविक दोस्ती की शुरुआत करे। यदि उदारवादी ऐसा न कर सके, तो लाख धार्मिक स्थलों में सेवा करते रहिए, सरहद पर मोमबत्तियां जलाते रहिए, क्रिकेट खेलते रहिए या संगीत की धुनों पर दोस्ती का गीत गाते रहिए, कुछ नहीं होने वाला है।
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