सलीम अख्तर सिद्दीकी
उत्तर प्रदेश सरकार ने पिछले दिनों अपने चार साल मुकम्मल कर लिए हैं। इधर नगर निकायों का कार्यकाल भी समाप्त होने को है, इसलिए नगर निकाय और विधानसभा चुनाव की सरगर्मियां तेज हो गर्इं हैं। राजनैतिक दलों ने कुछ उम्मीदवारों की घोषणा भी कर दी है। जब चुनाव आते हैं, तो मुसलिम वोट बैंक को हर राजनैतिक दल ललचाई नजरों से देखता है। देखे भी क्यों नहीं? उत्तर प्रदेश में मुसलिम आबादी लगभाग 20 प्रतिशत है। भले ही भाजपा का आधार मुसलिम विरोध पर टिका हो, लेकिन वह भी मुसलिम वोटों की चाहत रखती है। ये अलग बात है कि मुसलिमों की और कदम बढ़ाते ही उसका अपना वोट बैंक उसे ‘कांग्रेस की कार्बन कापी’ बताने लगता है, लेकिन उसकी ये चाहत कभी भी उभर ही आती है। जब से बसपा के साथ आंखें बंद करके दलित वोट बैंक जुड़ा है, तब से मुसलमानों में भी सवाल कौंधता रहता है कि मुसलिमों की पार्टी क्यों नहीं हो सकती? ऐसा नहीं है, यह कोई नया विचार हो। अतीत में कई प्रयोग हुए, लेकिन सफल नहीं हुए। आजादी के बाद से ही मुसलमानों ने अपना रहनुमा हिंदुओं को ही माना है। नेहरु से लेकर विश्वप्रताप सिंह तक, उन्होंने अपना समर्थन हिंदु नेताओं को ही दिया। यदि मुसलमान धर्म के नाम पर बनने वाले राजनैतिक दल की हिमायती होते तो, उनके लिए मुसलिम लीग सबसे बेहतर पार्टी हो सकती थी, लेकिन मुसलमानों ने उसे हमेशा ही नकारा। आजादी के बाद वह धीरे-धीरे हाशिए पर चली गई। थोड़ा बहुत वजूद सिर्फ केरल में बचा हुआ है।
अस्सी और नब्बे के दशक में जब राममंदिर और बाबरी मसजिद विवाद के चलते हिंदुओं और मुसलमानों के बीच एक दीवार सी खिंच गई थी, तब सैयद शहाबुद्दीन ने इंसाफ पार्टी बनाकर मुसलमानों की रिझाने की कोशिश की थी, लेकिन मुसलमानों ने उसे कोई भाव नहीं दिया। बसपा से अलग होकर डॉ मसूद अहमद ने नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी बनाई। पूरे पन्द्रह साल तक वह उसे सींचते रहे, पौधा कभी पेड़ नहीं बन पाया। आखिरकार मसूद साहब को पार्टी का विलय सपा में करना पड़ा। मेरठ के मौजूदा बसपा विधायक याकूब कुरैशी और उनके भाई युसूफ कुरैशी ने उत्तर प्रदेश यूडीएफ का गठन किया था। पिछला चुनाव इसी बैनर पर लड़कर मात्र याकूब कुरैशी ही जैसे-तैसे जीत पाए थे। बाकी जगहों पर बस ठीक-ठाक वोट मिले थे। पता नहीं किन्हीं मजबूरियों के चलते याकूब कुरैशी ने चुनाव जीतते ही ‘बहनजी का दामन’ थाम लिया था। इसके साथ ही यूडीएफ की ‘नवजात मौत’ गई थी। इतिहास से सबक नहीं लेते हुए पिछले एक दो सालों में मुसलमानों के नाम पर कई पार्टियां खड़ी हो गर्इं हैं। उत्तर प्रदेश में आज की तारीख में नेशनल लोकहिंद, उलेमा काउंसिल, पीस पार्टी, कौमी एकता दल, मोमिन कांफ्रेंस, परचम पार्टी और भारतीय एकता पार्टी जैसी पार्टियां मुसलिमों के नाम पर मैदान में हैं। जाहिर है, ये तमाम दल उन दलों को निशाने पर रखते हैं, जिनके बारे में यह समझा जाता है कि मुसलमान उनसे हमदर्दी रखते हैं।
ये कारण भी खोजने होंगे कि आखिर मुसलमानों के नाम पर इतनी पार्टियां कैसे वजूद में आ गयी हैं। दरअसल, सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों ने मुसलमानों को भाजपा का डर और सब्जबाग दिखाकर छला है। मुसलमानों की आर्थिक व शैक्षिक तरक्की के लिए किसी राजनैतिक दल ने कुछ नहीं किया। 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद कांग्रेस से छिटके मुस्लिम वोटर ने अपना भविष्य क्षेत्रीय दलों में देखना शुरू किया। भाजपा को हराने के लिए उसने उप्र में समाजवादी पार्टी, लोकदल और बसपा का साथ दिया, तो बिहार में राजद और लोजपा के साथ रहा। आंध्र प्रदेश में वह तेदेपा से जुड़ा, तो पश्चिम बंगाल में वामपंथी पार्टियों को वोट देता रहा। मुसलमानों को धक्का तब लगा, जब तेदेपा, जनता दल (यू), तृणमूल कांगेस, बसपा, लोजपा और नेशनल कांफे्रंस जैसे क्षेत्रीय दलों ने 1999 में भाजपा के साथ सत्ता में भागीदारी की। 2002 में गुजरात दंगों के दौरान ये दल मूकदर्शक बने रहे। उत्तर प्रदेश में तो मायावती ने तीन-तीन बार भाजपा के साथ सरकार बनाई। मुसलमान केवल भाजपा को हराने के लिए वोट करते रहे और उनके वोटों के बल पर क्षेत्रीय दल भाजपा के साथ ही मिलकर सत्ता का सुख भोगते रहे।
अब मुसलमानों के नाम पर खडे हुए दल मुसलमानों से कह रहे हैं कि सबको आजमा लिया है, इसलिए अपना झंडा अलग होना जरूरी है। यही वजह है कि ‘नाना प्रकार के दल’ मुसलमानों का भावनात्मक शोषण करने के लिए मैदान में आ गए हैं। आजमगढ़ के मदरसे के एक मौलाना आमिर रशादी ने ‘उलेमा काउंसिल’ नाम की पार्टी ही बना डाली। बाहुबली मुख्तार अंसारी ने ‘कौमी एकता दल’ बना डाला। डॉक्टरी के पेशे को ठोकर मारकर डॉ अयूब को मुसलमानों का रहनुमा बनने का शौक चर्राया, तो उन्होंने ‘पीस पार्टी’ का गठन कर लिया। सवाल यह है कि क्या इन पार्टियों के आने से मुसलमानों को कोई फायदा मिलेगा? सवाल यह भी है कि क्या ये पार्टियां वास्तव में मुसलमानों का भला चाहती हैं? जवाब नहीं में ही दिया जा सकता है। इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि इनमें से कुछ पार्टियां किसी ऐसी पार्टी के इशारे पर मैदान में हों, जिनको मुसलिम वोट बंटने से फायदा होता है। एक ऐसी ही मुसलिम पार्टी के नेता सपा, बसपा और कांग्रेस को मुसलमानों का सबसे बड़ा दुश्मन बताते रहे हैं, जबकि भाजपा के बारे में वह हमेशा मौन रहते हैं।
यह सही है कि कुछ हजार वोट पाकर ये पार्टियां अपनी उपस्थिति तो दर्ज करा रही हैं, लेकिन इनको सिर्फ मुसलमानों के वोटों से ही संतोष करना पड़ रहा है। हालांकि ये पार्टियां महज दिखावे के लिए दलितों, पिछड़ों और शोषित तबकों को जोड़ने की बात करती हैं, लेकिन इनके नेताओं के भाषणों के केंद्र में सिर्फ मुसलमान ही रहते हैं। यही वजह है कि इनके साथ दूसरे समुदाय के लोग नहीं जुड़ पाते। इस तरह से देखें तो इन पार्टियों की हैसियत सिर्फ ‘वोट कटवा’ से ज्यादा नहीं है। ये सभी पार्टियां पूर्वांचल में वजूद में आयी हैं, पश्चिम में इनका कोई नाम भी सही तरीके से नहीं जानता, इसलिए ये सबसे ज्यादा नुकसान सपा का करेंगी। फायदा भाजपा का होगा। मसला अलग पार्टी बनाने से नहीं, संसद और विधानसभाओं में पढ़े-लिखे और सही मायनों में धर्मनिरपेक्ष लोगों को भेजने से हल होगा। ऐसे लोगों से बचने से होगा, जो कभी स्कूल नहीं गए और सिर्फ अपने कारोबार को बचाने या बढ़ाने की नीयत से मुसलमानों के वोटों का इस्तेमाल करते हैं।
(यह लेख जनवाणी, मेरठ के 26 मई के अंक में प्रकाशित हो चुका है)
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