सलीम अख्तर सिद्दीकी
महेंद्र सिंह टिकैत का किसान नेता के रूप उभार अस्सी के दशक के अंत की अभूतपूर्व घटना थी। मेरठ के लिए वे सांप्रदायिक सद्भाव की मिसाल के तौर पर भी याद किए जाएंगे। मेरठ में 1987 में भयंकर सांप्रदायिक दंगा हो चुका था। सूबे में कांगे्रस की सरकार थी। मुख्यमंत्री वीरबहादुर सिंह थे। हिंदुओं और मुसलमानों के बीच अविश्वास की काली छाया हटने का नाम नहीं ले रही थी। मुसलमान वीरबहादुर सिंह से सख्त खफा थे। फरवरी 1988 में महेंद्र सिंह टिकैत किसानों की मांगों को लेकर मेरठ कमिश्नरी पर अनिश्चितकालीन धरने पर बैठ गए थे। धरने को सभी वर्गों का भरपूर समर्थन मिला था। मुसलमानों ने इस धरने में बढ़चढ़कर हिस्सा लिया था। टिकैत साहब को ‘महात्मा’ की उपाधि से नवाजा जा चुका था। हम कुछ दोस्तों का प्रोग्राम टिकैत साहब से मिलने का बना। हम वहां पहुंचे तो किसानों का हुजूम था। उस हुजूम के बीच में टिकैत बैठे हुए थे। हम जैसे ही उनकी तरफ जाने के लिए चले, तो उनके सुरक्षा गार्डों ने हमें रोककर पूछा, ‘कहां जा रहे हो?’ हमने सीधे जवाब दिया, टिकैत साहब से मिलना है। सुरक्षा गार्ड ने कहा, ‘वे ऐसे ही हर किसी से नहीं मिलते, जाओ यहां से।’ मेरे दोस्तों ने मजाक उड़ाया, ‘आया था टिकैत साहब से मिलने?’ मैं खिसिया गया था। मैंने उनसे कहा, ‘अच्छा दूसरे गेट से चलते हैं।’ हम दूसरे गेट पर पहुंचे। जैसे ही अंदर जाने लगे, सुरक्षा गार्ड ने फिर वही सवाल दोहराया। इस बार मैं तैयार था। मैंने कहा, ‘हम लोग महाराष्ट्र से आए हैं, टिकैत जी से मिलना है।’ ‘महाराष्ट्र’ शब्द ने जादू जैसा कम किया। सुरक्षा गार्ड हमें खुद टिकैत साहब के पास तक छोड़कर आया। सुरक्षा गार्ड वहां मौजूद अपने लोगों को खास हिदायत देकर आया कि ये लोग महाराष्ट्र से आए हैं, इन्हें महात्मा जी से मिलवा देना। उस समय वह किसी विदेशी महिला पत्रकार से दुभाषिया के माध्यम से बात कर रहे थे। वे बातचीत से फारिग हुए तो हमारा परिचय ‘महाराष्ट्रवासी’ के तौर पर कराया जाने लगा तो मैंने कहा, ‘नहीं, टिकैत साहब हम तो मेरठ से ही हैं। ये सब तो आप तक पहुंचने के लिए करना पड़ा।’ इस पर उनके सुरक्षा गार्डों के तेवर तीखे हुए, तो टिकैत साहब ने अपनी ‘भाषा’ में उनसे कहा, ‘अरे, ये भी तो देखो इन्होंने सच बोल दिया है। ये मुझसे महाराष्ट्र का बनकर ही मिलकर चले जाते, तो हमें क्या बता चलता।’ उन्होंने बड़े प्यार से एक-एक का नाम पूछा। जब उन्हें पता चला कि हम मुसलिम हैं, तो उन्हें और ज्यादा खुशी हुई। बस इतना ही कहा, ‘एक बुरा दौर था, गुजर गया। आगे की सोचो। सांप्रदायिक सद्भाव बना रहना चाहिए।’ विदा लेते समय टिकैत साहब ये कहना नहीं भूले थे, ‘रोटी खाए मत जाना।’ दंगों के बाद हिंदुओं और मुसलमानों की बीच, जो खाई बनी थी, उस धरने ने उसे बहुत हद तक पाट दिया था।
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