Wednesday, April 14, 2010

क्या अपने ही देश के लोगों के खिलाफ सेना का इस

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में नक्सलवादियों द्वारा 76 सीआरपीएफ जवानों की घात लगाकर की गयी हत्याओं के बाद बहस इस बात पर तो हो रही हैं कि सीआरपीएफ जवानों की हत्याएं किस की गलती से हुईं। इस बात पर बहस नहीं हो रही कि आखिर नक्सलवाद ने अपनी जड़ें इतने गहरे कैसे जमा लीं कि अब उनसे निपटना कठिन हो गया है। नक्सलवाद को इस स्थिति तक लाने का जिम्मेदार कौन ? हमारे देश की बहुत बड़ी त्रासदी है कि यहां समस्याओं को पहले इत्मीनान से फलने-फूलने दिया जाता है, और जब समस्या विकट हो जाती है तो समस्या को 'तोप' दाग कर हल करने की कोशिश की जाती है। इसलिए समस्या सुलझने के बजाय और ज्यादा उलझ जाती है। समस्या चाहे किसी शहर की सड़कों पर अतिक्रमण की स्थानीय हो या आतंकवाद या नक्सलवाद जैसे गम्भीर राष्ट्रीय हो। 1980 के दशक में जब स्वर्ण मंदिर को आतंकवादियों ने अपना अड्डा बना लिया तो महज राजनैतिक फायदे के लिए उसको बढ़ने दिया गया। जब समस्या हद से ज्यादा बढ़ गयी तो समाधान सेना को करना पड़ा। उस समाधान की देश को कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी थी, इसे पूरा देश जानता है। कुछ लोग नक्सल समस्या को भी पंजाब समस्या की तर्ज पर हल करने की वकालत कर हैं। ऐसे सुझाव देने वालों पर केवल हंसा जा सकता है। ऐसे लोग यह क्यों भूल जाते हैं कि पंजाब में आतंकवाद केवल एक प्रदेश तक सिमटा हुआ था। नक्सलवाद कई प्रदेशों के बड़े हिस्सों को चपेट में ले चुका है। नक्सलवाद प्रभावित क्षेत्रों में सेना का इस्तेमाल अपने ही देश के लोगों से युद्ध करना सरीखा होगा। अभी भी नक्सलवादियों के विरुद्ध चलाया जा रहा कथित 'ऑप्रेशन ग्रीन हंट' नक्सलवादियों के खिलाफ युद्ध सरीखा ही तो है। सेना के इस्तेमाल से केवल इतना होगा कि युद्ध का विस्तार थोड़ा और ज्यादा हो जाएगा। जब युद्ध होगा तो लोग तो मारे ही जाएंगे। मरने वालों में दोनों ही तरफ के ही लोग होंगे। सवाल यह है कि क्या अपने ही देश के लोगों के खिलाफ सेना का इस्तेमाल करना नैतिक रुप से सही होगा ?
देश का अभिजात्य वर्ग इस बात की बहुत वकालत करता है कि नक्सली बंदूकें छोड़कर लोकतान्त्रिक तरीक से संसद और विधानसभाओं में चुनकर आएं और अपनी बात कहें। ये लोग किस लोकतन्त्र की बात करते हैं ? उस लोकतन्त्र की जिसमें एक मुख्यमंत्री हजारों बेगुनाह लोगों को मरवाने के बाद भी एक प्रदेश का तीन बार मुख्यमंत्री बना रह सकता है ? दूसरे मुख्यमंत्री चारा घोटाला में दोषी ठहराए जाने के बाद सत्ता अपने परिवार को सौंपकर जेल काटता है। तीसरी मुख्यमंत्री मूर्तियां तराशने और भव्य पार्क बनाने के नाम पर अरबों रुपए स्वाहा कर देती हैं। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से भी तो विभिन्न राजनैतिक पार्टियों के लोग संसद और विधानसभा में जाते हैं, उन्होंने आदिवासी क्षेत्रों के विकास के लिए आज तक क्या किया है, इसका लेखा-जोखा भी देश की जनता के सामने आना चाहिए। यह भी देश को पता चलना चाहिए कि कैसे बड़े पूंजीपतियों ने आदिवासियों को उनके जल-जंगल-जमीन से बेदखल करके अपना कब्जा कर लिया है। नक्सलवाद को बलपूर्वक कुचलने की बात करने वाले यह क्यों नहीं सोच रहे कि नक्सलवाद को पनपाने में सरकार की भ्रष्ट नौकरशाही भी बराबर की जिम्मेदार है। जब झारखंड जैसे प्रदेश का मुख्यमंत्री मधुकोड़ा केवल दो साल में चार हजार करोड़ रुपए की काली कमाई करेगा तो नक्सलवाद नहीं तो क्या रामराज्य पनपेगा ? सरकार की बंदूकें भ्रष्ट नौकरशाहों और नेताओं की तरफ क्यों नहीं उठतीं ? क्यों उनके गुनाहों को जांच दर जांच में उलझाकर भुला दिया जाता है ? दो जून की रोटी की मांग करने वालों के ही सीने में गोलियां उतारने की बात क्यों की जाती है ? नक्सलवाद को कुचलने की बात करने वालों को पहले भ्रष्टाचार, अन्याय, शोषण और आर्थिक विषमता के खिलाफ भी तो मुहिम चलानी चाहिए।
नक्सलवाद तो बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश, आन्ध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के पिछड़े और आदिवासी इलाकों में है, लेकिन क्या हालात ऐसे नहीं बनते जा रहे हैं कि अब नक्सलवाद का विचार उन राज्यों और शहरों के लोगों को भी अच्छा लगने लगा है, जो साधन सम्पन्न कहलाते हैं। शोषण, अत्याचार और असमानता देखने के लिए नक्सलवाद प्रभावित क्षेत्रों में जाने की जरुरत नहीं है। साधन सम्पन्न समझे जाने वाले प्रदेशों में भी सरकार, नेता और पुलिस अपनी मनमानी करती है। उदहारण के लिए सरकारी सस्ते गल्ले की दुकानों का सारा राशन ब्लैक में बिक जाता है। उस राशन को लेने का हकदार बस देखता रहता है। यदि किसी ने हिम्मत करके दुकानदार की शिकायत अधिकाारियों से कर दी तो राशन की दुकान वाले का तो कुछ नहीं बिगड़ता लेकिन शिकायतकर्ता की मुसीबत आ जाती है। नोएडा की खबर है कि गरीबी की रेखा के नीचे जीने वाले लोगों के लिए बनने वाले बीपीएल राशन कार्ड करोड़पतियों ने बनवा रखे हैं, वास्तविक हकदार तहसील और खाद्य आपूर्ति विभाग के चक्कर काट रहे हैं, जहां उन्हें दुत्कार के अलावा कुछ नहीं मिलता। प्राइवेट नर्सिंग होम लूट के अड्डों में तो सरकारी अस्पताल बूचड़खानों में तब्दील हो गए हैं। वेस्ट यूपी में ही आए दिन आर्थिक तंगी, कर्ज और बीमार होने पर इलाज न होने पर आत्महत्या करने की खबरें छपती हैं। मेरठ में पिछले सप्ताह एक महिला ने अपने तीन बच्चों के साथ इसलिए आत्महत्या कर ली क्योंकि उसका पति एक फैक्टरी में मात्र 2500 रुपयों की नौकरी करता था। इतने पैसों में दो वक्त की रोटी खाना भी दुश्वार था। इन आत्महत्या करने वालों में कितने ही लोग ऐसे होंगे, जो मौजूदा सिस्टम से नाखुश होते होंगे। लेकिन उनमे इतनी ताकत नहीं होती कि वे कुछ कर सकें। इसलिए उन्हें मौत ही एकमात्र आसान रास्ता लगता है। लेकिन भविष्य में कुछ लोग ऐसे भी तो सामने आ सकते हैं, जो सिस्टम के खिलाफ उठ खड़े होने का हौसला रख सकते हैं। कल उनके बीच भी तो कोई कोबाड गांधी आ सकता है।
दंतेवाड़ा में मारे गए जवानों को श्रंद्धाजलि देने के लिए मोमबत्तियों जलाना ही काफी नहीं है। झारखंड के मुख्यमंत्री मधुकोड़ा जैसे लोगों की काली कमाई को उनसे छीनकर उसे नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के विकास में लगाया जाए। यह भी शहीद हुए जवानों को एक श्रंद्धाजलि होगी। एक सच्ची श्रद्धांजलि।

3 comments:

  1. सलीम भाई, आपने कहा - "…उस लोकतन्त्र की जिसमें एक मुख्यमंत्री हजारों बेगुनाह लोगों को मरवाने के बाद भी एक प्रदेश का तीन बार मुख्यमंत्री बना रह सकता है ? दूसरे मुख्यमंत्री चारा घोटाला में दोषी ठहराए जाने के बाद सत्ता अपने परिवार को सौंपकर जेल काटता है। तीसरी मुख्यमंत्री मूर्तियां तराशने और भव्य पार्क बनाने के नाम पर अरबों रुपए स्वाहा कर देती हैं। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से भी तो विभिन्न राजनैतिक पार्टियों के लोग संसद और विधानसभा में जाते हैं, उन्होंने आदिवासी क्षेत्रों के विकास के लिए आज तक क्या किया है…"

    इस विधान से पूर्णतः सहमत,

    इसीलिये तो लोग कह रहे हैं कि लोकतन्त्र को बदलने का रास्ता लोकतन्त्र से ही सम्भव है… नक्सली नेता (यदि) ईमानदार हैं और उन्हें (वाकई) जनसमर्थन हासिल है तो चुनाव लड़ें और आयें सत्ता में, कौन रोक सकता है? अब मधु कौड़ा से सम्पत्ति कौन छीने और कैसे छीने, इसके लिये कोई तो व्यवस्था हो, इस नई व्यवस्था को बनाने के लिये नक्सली आगे आयें ना? उड़ीसा, झारखण्ड और छत्तीसगढ़ में सरकार बनायें, नीतियाँ बदलें, आदिवासियों का भला करें… इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है।

    लेकिन खूनखराबे, स्कूल उड़ाने, बिजली टावर गिराने से केन्द्र सरकार को कोई नुकसान नहीं है, वह हमारी जेब से दोबारा वसूल कर लेगी… और बन्दूक की लड़ाई भी लम्बे समय चलने वाली है, और सरकारों के पास काफ़ी संसाधन हैं… कश्मीर, मिजोरम, नागालैण्ड में 60 साल हो गये लड़ते-लड़ते… किसी को कुछ हासिल नहीं हुआ, कोई व्यवस्था नहीं बदली।

    मायावती ने तो कभी नहीं कहा कि दलितों पर अत्याचार होते हैं तो उन्हें बन्दूक उठा लेना चाहिये? फ़िर आदिवासियों के भले के नाम पर विदेशों से हथियार जुगाड़ना तो देशद्रोह है ही।

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  2. कृपया चिपलूनकर की बात को अन्यथा ना लें, वे अभी अंगूठा ही चूस रहे है। उन्हें पता ही नहीं है कि इस देश में चुनाव कैसे लड़ा जाता है। दरअसल चिपलूनकर के राज्य में इस कदर अमन चैन है कि उन्हें चुनाव और पूँजी के इस लोकतंत्र पर जबरदस्त भरोसा है।

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