सलीम अख्तर सिद्दीकी
महाराष्ट्र में चुनाव नतीजे आने और मनसे को 13 सीटें मिलने के बाद मैंने एक आलेख 'महाराष्ट्र में खून-खराबे की आहट' शीर्षक से लिखा था। ज्यादा वक्त नहीं बीता कि मेरी आशंका सही साबित हो गयी। लेकिन मुझे इस बात का अंदाजा तब भी नहीं था कि मनसे के 'कायर' विधायक हिन्दी में शपथ लेने पर ही इतना बड़ा वितंडा खड़ा करेंगे, जिससे पूरा देश शर्मसार हो जाएगा। हंगामे के बाद जिस बेशर्मी से मनसे विधायकों ने मीडिया के सामने खुद ही अपनी जय-जयकार की है, उससे इस बात का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि महाराष्ट्र में क्या होने जा रहा है। जरा सोचिए, जो लोग विधानसभा के अंदर शपथ लेते एक विधायक के सामने से माइक लेकर तोड़ दें और विधायक की पिटाई कर दें, वे लोग आम उत्तर भारतीयों के साथ क्या कुछ नहीं कर सकते ? मजे की बात यह है कि मराठी भाषा के नाम पर राष्ट्रभाषा का अपमान करने वाले वही लोग हैं, जो वंदेमातरम्-वंदेमातरम् कह कर देशभक्त होने का ढिंढोरा पीटते हैं। इस पूरे हंगामे के बाद महाराष्ट्र सरकार की चुप्पी शर्मनाक ही नहीं है बल्कि उसकी नीयत भी ठीक नहीं लगती। कांगेस महाराष्ट्र में राजठाकरे नाम का एक और 'भिंडरावाला' पैदा कर रही है। ऐसी ही गलती कांगेस ने अस्सी के दशक में अकालियों के मुकाबले जनरैल सिंह भिंडरावाला को खड़ा करके की थी। कांगेस की उस राजनीति ने देश को कितनी बड़ी कीमत चुकाई थी, यह इतिहास में दर्ज है। जून 1984 में ऑप्रेशन ब्लू स्टार के बाद 31 अक्टूबर 1984 को इंदिरा गांधी की हत्या और इंदिरा गांधी की हत्या के फौरन बाद पूरे देश में सिखों का कत्लेआम हुआ। तब भी 'नासूर' को 'कैंसर' में जानबूझकर तब्दील होने दिया गया था। कैंसर की 'सर्जरी' तब की गयी जब मरीज के ऑप्रेशेन टेबिल पर ही मृत्यु होने के सौ फीसदी चांस थे। ऐसा ही हुआ भी था।
अब कांग्रेस महाराष्ट्र में अस्सी के दशक वाली वही गलती कर रही है, जो उसने पंजाब में की थी। शिवसेना के मुकाबिल मनसे को खड़ा किया जा रहा है। बल्कि खड़ा कर दिया गया है। लौंडो-लपाड़ों की पार्टी के 13 विधायक विधानसभा में उत्पात मचाने के लिए भिजवा दिए गए। कांग्रेस को यह नहीं भूलना चाहिए कि आज समाजवादी पार्टी का विधायक मनसे की गुंडागर्दी का निशाना बना है तो कल कांग्रेस के विधायक भी बन सकते हैं। इतिहास गवाह है कि भस्मासुर को पालने वाला ही भस्मासुर का शिकार होता आया है। वह भस्मासुर भिंडरावाला हो या ओसमा-बिन-लादेन। अभी यह कहीं से नहीं लग रहा है कि कांग्रेस मनसे पर लगाम लगाने की नीयत रखती है। कांग्रेस की नीति हमेशा से ही किसी भी समस्या को ठंडे बस्ते में डालकर इंतजार करने की रही है। समस्या जब विकराल रुप धारण कर लेती है और पूरा देश कुछ करने की गुहार लगाता है, तब कांगे्रस 'देश को बचाने' के नाम पर कार्यवाई करती है। लेकिन तब तक इतनी देर हो चुकी होती है कि समस्या खत्म होने के बजाय बढ़ जाती है। पंजाब में भी कांगे्रस ने यही किया था। बाबरी मस्जिद मुद्दे पर भी यही स्टैण्ड था। अब मनसे पर भी कांग्रेस की यही नीति है।
यदि अतीत पर नजर डालें तो पाएंगे कि इस देश में भावनात्मक, धार्मिक, क्षेत्रीय और भाषाई मुद्दों पर ही राजनीति की शुरुआत की जाती है। राष्ट्रीय हित गौण हो जाते हैं। ऐसा हो भी क्यों नहीं, जब जनता ही ऐसे मुद्दों पर राजनैतिक दलों की झोलियां वोटों से भर देती हैं। सभी प्रदेशों में क्षेत्रीय पार्टियां अपने-अपने प्रदेश, जाति और धर्म की अस्मिता के नाम पर राज करती है। आम भारतीयता कहीं नजर नहीं आती है। भावनात्मक मुद्दों की रौ में बहकर आम आदमी यह भी भूल जाता है कि उसका कितना शोषण हो रहा है। उसके बच्चों के लिए अच्छे स्कूल नहीं हैं। अस्पताल नहीं हैं। दो वक्त की रोटी नहीं है। राम मंदिर और बाबरी मस्जिद के मुद्दे पर हजारों बेगुनाह लोगों का खुन बहाया गया। हजारों लोग अपने ही शहर में विस्थापित हुए। देश के दुश्मनों को पेट पर बम बांधकर धमाके करने वाले नौजवान आसानी से उपलब्ध हुए। इतना गंवाने के बाद हिन्दुत्व के नाम पर राजनीति करने वाली भाजपा को 6 साल तक सत्ता सुख भोगने का अवसर मिला। लेकिन राममंदिर नहीं बन सका। यही कमोबेश यही कहानी सपा, बसपा, लोकदल, शिवसेना और अन्य क्षेत्रीय पार्टियों की है।
राज ठाकरे भी मराठी अस्मिता के नाम पर नफरत बांटकर सत्ता का सुख उठाना चाहते हैं। लेकिन उन्हें यह नहीं पता कि ऐसी राजनीति की एक सीमा होती है। चाचा बाल ठाकरे ने भी राजनीति के इसी शॉर्टकट से महाराष्ट्र में सत्ता हासिल की थी, लेकिन महाराष्ट्र के बाहर उन्हें आज भी कोई नहीं पूछता। मनसे की नफरत की राजनीति की भी एक सीमा तय है। वे 13 से ज्यादा से ज्यादा 30 हो सकते हैं। इससे ज्यादा के लिए उन्हें नफरत की नहीं प्यार की राजनीति करनी पड़ेगी, जो उनके खून में नहीं है। मनसे को यह भी याद रखना चाहिए कि तमाम तरह के हथकंडों के बाद भी भाजपा अपने बूते केन्द्र में सरकार नहीं बना सकी थी। सर्वस्वीकार्य होने के लिए उसे भी दिखावे के लिए ही सही राममंदिर जैसे महत्वाकांक्षी मुद्दे को ठंडे बस्ते में डालना पड़ा था। आज भाजपा लगातार गर्त में जा रही है। हालत यह हो गयी है कि भाजपा के लोग ही अब भाजपा के दुश्मन हो गए है। लेकिन भाजपा ने देश का जो नुकसान करना था, वह तो कर ही दिया है। इस नुकसान को पूरा होने में बहुत वक्त लगेगा। दलितों के भरोसे सत्ता हासिल करने का ख्वाब देखने वाली मायावती को भी सभी जातियों को साथ लेकर चलना पड़ा, तभी उन्हें विधानसभा में बहुमत मिला। मुसलमानों और यादवों के सहारे सत्ता का स्वाद चख चुके मुलायम सिंह यादव को उन्हीं के गढ़ में कांग्रेस और बसपा ने पटकनी दी है। मनसे भी एक तयशुदा उंचाई तक जाने के बाद नीचे आएगी ही लेकिन इस बीच वे महाराष्ट्र और देश का कितना बड़ा नुकसान कर देंगे, इसका अंदाजा भी होना भी जरुरी है। क्यों नहीं राज ठाकरे को 'भिंडरावाला' बनने से रोकने के उपाएं अभी से किए जाएं ?
Exectly, Here I fully agreed with you. Kongres & NCP is the main culprit besides Thakre .
ReplyDeleteदरअसल, यह मसला भाषा से कहीं अधिक राजनीतिक उद्दंडता से जुड़ा है।
ReplyDelete1) "...इतिहास गवाह है कि भस्मासुर को पालने वाला ही भस्मासुर का शिकार होता आया है। वह भस्मासुर भिंडरावाला हो या ओसमा-बिन-लादेन..." पूर्णतः सहमत…
ReplyDelete2) राज ठाकरे कांग्रेस का पैदा किया हुआ भिंडरावाला है… पूर्णतः सहमत
3) विधानसभा में जो हुआ, वह दो गुण्डों के बीच की लड़ाई है, इसका हिन्दी-मराठी से कोई लेना-देना नहीं है…
Is sambandh me Punya Prasoon Vajpeyi ka ‘Raftaar’ par lekh padein kafi kuchh clear ho jayega
ReplyDeleteआप का विश्लेषण सही है कि....
ReplyDelete1. कांग्रेस की नीति हमेशा से ही किसी भी समस्या को ठंडे बस्ते में डालकर इंतजार करने की रही है। समस्या जब विकराल रुप धारण कर लेती है और पूरा देश कुछ करने की गुहार लगाता है, तब कांगे्रस 'देश को बचाने' के नाम पर कार्यवाई करती है। लेकिन तब तक इतनी देर हो चुकी होती है कि समस्या खत्म होने के बजाय बढ़ जाती है।
2. भावनात्मक मुद्दों की रौ में बहकर आम आदमी यह भी भूल जाता है कि उसका कितना शोषण हो रहा है। उसके बच्चों के लिए अच्छे स्कूल नहीं हैं। अस्पताल नहीं हैं। दो वक्त की रोटी नहीं है।
लेकिन देश की सब से बड़ी विपक्षी पार्टी भाजपा की स्थिति उस से भी बुरी है वह कभी कांग्रेस की तरह व्यवहार करती है तो कभी शिवसेना और मनसे की तरह।
मेरा मानना है कि मौजूदा चुनाव लड़ने वाले दलों से कोई आशा नहीं की जा सकती। बस एक विकल्प नजर आता है कि पेशागत जन संगठन जनतांत्रिक तरीके से विकसित हों और आपसी समझदारी विकसित करते हुए एक दूसरे का साथ दें तो एक नया जनतांत्रिक विकल्प खड़ा कर सकते हैं।
कांगे्रस 'देश को बचाने' के नाम पर कार्यवाई करती है। लेकिन तब तक इतनी देर हो चुकी होती है कि समस्या खत्म होने के बजाय बढ़ जाती है।
ReplyDeleteलेकिन इन झगडे की जड भी तो यह काग्रेस ही होती है, आप ने बहुत ही अच्छा लिखा, वेसे यह लडाई हिन्दी मराठी के पर्दे मै दो गुंडो की है, क्योकि अब तो गुंडो का ही राज है
लोगों की समझ में कब आएगा कि राजनीति की फसल काटने के लिये राज ठाकरे जैसे अवसरवादी ही देष को खण्डित करने का काम करते है। लेख बहुत जोषीला है और सभी तथ्य सोचने पर मजबूर करते हैं।
ReplyDeleteSAMAJH MAIN NAHI AATA,YEHI LOG "DESHPREM" KI DUKAN BHI CHALATE HAIN .AUR YAHI LOG 'RASHTRABHASHA' KA APMAN BHI KARTE HAIN, YE DOGLI POLICY KYUN? KYA AB BHI KISI AUR BAAT KA INTEZAR HAI? AB TO INKI HIMAYAT BAND KIJIYE.
ReplyDeleteबिल्कुल सही बात है मैं सहमत हूं
ReplyDeleteतुष्टीकरण की राजनीति देश को अखण्डता को बहुत नुकसान पहुंचा रही है
Rastrbhasha ka apman karna vaastav me akshmaya apradh hai usi tarah rashtrageet ka apman karna bhi apradh hona chahiye ya nahi salim ji jabab jarur de.
ReplyDeletebahut accha lekh rahen hain saleem bhi.MASHA ALLAH
ReplyDelete