सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
एनडीए शासनकाल में अहमदाबाद पुलिस ने इशरतजहां और अन्य तीन लोगों को आतंकवादी बताकर मुठभेड़ में मार गिराया था। उस मुठभेड़ की मजिस्टे्रट जांच में मुठभेड़ को फर्जी और सरकार से तमगे हासिल करने के लिए किया हत्याएं बताया गया है। मजिस्ट्रेट तमांग जांच रिपोर्ट आने के बाद इशरजहां फर्जी मुठभेड़ को लेकर मीडिया की भूमिका पर भी सवाल उठाए गए हैं। मीडिया पर उठे सवालों के बाद टीवी पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी ने'इशरत हमें माफ कर दो' शीर्षक से एक आलेख दैनिक जागरण के लिए लिखा है। उस आलेख को भड़ास4मीडिया डॉट कॉम पर भी प्रकाशित किया गया है। इस आलेख में वाजपेयी ने अपनी और पूरे मीडिया की बेबसी और लाचारी को जिस तरह से जाहिर किया है, उससे लगता है कि आज का मीडिया कहीं न कहीं या तो पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो जाता है या सरकारों के दबाव में सही तथ्यों को नजरअंदाज करके सरकारों द्वारा बताए गए तथ्यों को ही प्रसारित और प्रचाारित करता है।
मुठभेड़ वाले दिन पन्द्रह जून दो हजार चार को अहमदाबाद से चैनल के रिपोर्टर ने पुण्य प्रसून वाजपेयी से कहा था कि यह फर्जी एनकाउंटर है। वाजपेयी ने रिपोर्टर द्वारा कही गई बातों का देते हुए लिखा है - 'पुलिस कमिश्नर खुद कह रहे हैं कि चारों के (मुडभेड़ में मारे बए लोग) ताल्लुकात लश्कर-ए-तोएबा से हैं। घटनास्थल पर पुलिस कमिश्नर कौशिक, ज्वायंट पुलिस कमिश्नर पांधे और डीआईजी बंजारा खुद मौजूद हैं, जो लश्कर का कोई बड़ा गेम बता रहे हैं। ऐसे में एनकाउंटर को लेकर सवाल कौन खड़ा करे?'
वाजपेयी से यहां से कई सवाल किए जा सकते हैं। क्या अहमदाबाद के पुलिस अधिकारी देश के इदी अमीन या हिटलर थे, जिनकी कही गयी बातों पर सवाल करने का मतलब मौत थी ? क्या यह माना जाए कि पूरे मीडिया समेत आपका वह चैनल, जिसमें उस वक्त आप काम कर रहे थे, गुजरात के सीएम नरेन्द्र मोदी से डरता था ? उस समय ऐसे बहुत सारे सवाल थे, जिन्हें मीडिया उठा सकता था। मीडिया ने यह सवाल क्यों नहीं किया कि मुडभेड़ के फौरन बाद ही बिना किसी जांच के कोई पुलिस अधिकारी इतनी जल्दी कैसे यह निर्ष्कष निकाल सकता है कि मुठभेड़ में मारे गए लोग आतंकवादी ही हैं ? यदि यह मान लिया जाए कि इंटेलीजेंस ने पक्के सबूतों के आधार पर यह रिपोर्ट दी थी कि लश्कर-ए-तोएबा के आतंकवादी मुंबई से अहमदाबाद के लिए सीएम नरेन्द्र मोदी की हत्या के लिए चले हैं। यहां यह भी सवाल किया जा सकता था कि कथित आतंकवादियों को मुंबई में ही रोक कर गिरफ्तार करने की कोशिश क्यों नहीं की गयी ? उनका अहमदाबाद तक आने का इंतजार क्यों किया गया ? अहमदाबाद में घुसने के बाद ही मुठभेड़ क्यों हुई ? सबसे बड़ा सवाल यह है कि किसी एक भी कथित आतंकवादी को जिन्दा पकड़ने की कोशिश क्यों नहीं की ? आखिर ऐसा क्यों होता है कि केवल नरेन्द्र मोदी को ही मारने आने वाले सभी कथित आतंकवादी मुठभेड़ में मार दिए जाते है, लेकिन अक्षरधाम मंदिर पर हमला करने वाले आतंकवादियों की भनक भी गुजरात पुलिस को नहीं लगती ?
वाजपेयी साहब आगे लिखते हैं- 'हर न्यूज चैनल पर (इशरतजहां मुठभेड़ के बाद) आतंकवाद की मनमाफिक परिभाषा गढ़नी शुरु हुई, उसमें रिपोर्टर की पहली टिप्पणी एनकाउंटर को फर्जी कहने या इस तथ्य को टटोलने की जहमत कौन करे ? यह सवाल खुद मेरे सामने खड़ा था। क्योंकि लड़की के लश्कर के साथ जुड़े तार को न्यूज चैनलों में जिस तरह से परोसा जा रहा था, उसमें पहली और आखिरी हकीकत यही थी कि एक सनसनाहट देखने वालों में हो और टीआरपी बढ़ती चली जाए।'
पुण्य प्रसून वाजपेयी ने मान ही लिया कि न्यूज चैनलों के लिए पहली प्राथमिकता सनसनी और उससे बढ़ती टीआरपी ही सब कुछ और हकीकत है। इसी टीआरपी के चक्कर में वाजपेयी भी तथ्यों को टटोलने में वक्त खराब करने बजाय अन्य चैनलों की तरह टीआरपी की होड़ में शामिल हो गए। जाहिर है, यहां भी वाजपेयी किसी दबाव में ही यह काम कर होंगे। जहां एक ओर वह इशरतजहां मुठभेड़ में गुजरात पुलिस अधिकारियों द्वारा उपलब्ध तथ्यों से अलग नहीं जा सकते थे, वहीं दूसरी ओर वह अपने उन मालिकों से अलग नहीं जा सकते थे, जिनका एक ही मकसद है, सनसनी से पैसा कमाना। पैसा तभी आएगा, जब टीआरपी बढ़ेगी। अब इसी टीआपी के चक्कर में किसी के चरित्र की हत्या हो या किसी की औरत पर आतंकवादी की मां होने का ठप्प चस्पा हो जाए। इससे चैनलों को कुछ लेना-देना नहीं है। हालांकि इशरतजहां और उसके साथी वापस नहीं आ सकते। लेकिन तमांग की रिपोर्ट ने इतना तो किया ही है कि मुठभेड़ों में मारे गए लोगों के परिवारों को इस बात का सकून तो मिला ही होगा कि उनके बच्चे आतंकवादी नहीं थे। वाजपेयी का यह सवाल बहुत वाजिब है- 'यदि मजिस्ट्रेट जांच सही है तो उस दौर में पत्रकारों और मीडिया की भूमिका को किस तरह देखा जाए ?' वाजपेयी के इस सवाल का जवाब मीडिया को देना ही चाहिए। मीडिया को अपना कलंक धोने के लिए उन सभी मुठभेड़ों की जांच की मांग करनी चाहिए, जो मोदी शासनकाल में अब तक हुई हैं। पुण्य प्रसून वाजपेयी ने इशरतजहां से माफी मांग कर एक शुरुआत की है। उनको दाद दी जानी चाहिए कि देर से ही सही, उन्होंने सच को स्वीकार किया है।
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aise insaaf ki jai ho!!!
ReplyDeletekisi ne sach kaha hai ki logo ko insaaf nahi chahiye hota. unhe sirf apne hak me faisla chahiye hota he. tamang ne kisi ke ishare par chunav ke thik pehle vo report de di jo apke man mutabik thi to vo sach ho gayee aur baki sab galat. wah kya nazariya he.
saath hi aisi insaniyat ki jai ho!!
jo prasoon vajpai ne dikhai he. aap khushi se unhe mahaan logo ki list me shamil kar lijiye. lekin unse puchhiyega jaroor k media me rehte huwe aisi hi mazburiyo me bahut se kaam kiye honge, unke liye vo kab mafi mangege. kya unhone aarushi ke pita se maafi mangi? kya unhone us teacher se maafi mangi jiska farzi sting kiya gaya tha? kyo nahi? mujhe pata hai is sawal me na aapki dilchaspi he aur na hi javab me vajpai ki hogi. kyoki unhe mahaan banna he aur apko sirf apna raag alapna he.
मजिस्ट्रेट तमांग के फैसले की सर्वप्रथम दाद देनी होगी। ऐसे प्रकरण में इलाहाबाद उच्च न्यायालय का एक फैसला गौरतलब है। न्यायमूर्ति रामभूषण मल्होत्रा ने इसमें कहा था कि जब भी पुलिस ’मुठभेड़’ का दावा करे तब (१) मृतक के परिवारजनों को खबर देनी होगी (२) पोस्टमार्टम का विडियो लेना होगा तथा (३)घटना की मजिस्ट्रेट जाँच करनी होगी। बाटला हाउस यदि नोएड़ा में होता तो उस घटना की मजिस्ट्रेट जांच रोकी न जा सकती।
ReplyDeleteहिंदी ब्लोग्स की दुनिया में भी साम्प्रदायिक ब्लोग्गरों ने एक गिरोह बना लिया है जो अपने पक्ष के ब्लोग्स की पसंदगी को बड़ा चदा कर उसकी मार्केटिंग का देते हैं . उदहारण के लिए मेरे ब्लग http://nepathyleela.blogspot.com पर चीनी हमले की झूठी रिपोर्ट से सम्बंधित पोस्ट पर आयी टिप्पणियों के अंदाज़ और उसकी भाषा पर गौर करें .यहाँ सब कुछ सोच समझ कर हो रहा है
ReplyDeleteSalim ji ek aur farzi mutbher ho rahi hai pade niche diya link
ReplyDeletehttp://khabar.josh18.com/news/20149/3
aur vajpayee jaiso se kahe ki mafi magne ke liye tyar rahe