Thursday, July 23, 2009

मीडिया को पैसे की खनक पर नाचने वाली तवायफ होने से बचाएं

सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
प्रसिद्व पत्रकार स्वर्गीय उदयन षर्मा के जन्म दिन 11 जौलाई को दिल्ली के कांस्टीट्यूषन कल्ब के डिप्टी स्पीकर हॉल में हुई एक परिचर्चा 'लोकसभा के चुनाव और मीडिया को सबक' में खबर में मिलावट करने वालों के खिलाफ कानून बनाने का शिगूफा 'आउटलुक' के सम्पादक नीलाभ ने छोड़ा है। इस पर न्यूज पोर्टलों पर बहस हो रही है। इस पर बहस करना बेमानी और बेमतलब है। हैरत तो यह है कि खबरों में मिलावट करने वाले और टीआरपी और प्रसार संख्या बढ़ाने के लिए कुछ भी छापने के लिए मजबूर लोग खबरों में मिलावट के खिलाफ कानून बनाने की बात कर रहे हैं। इस देश में किसी भी चीज में मिलावट के लिए कानून हैं। क्या मिलावट रुकी ? खबर में मिलावट करने वाले ही तो अन्य चीजों में मिलावट के खिलाफ दिन रात चीख्ते रहते हैं। लेकिन उनकी सुनता कौन है ? सुनें भी क्यों जब वह ख्ुद मिलावटखोर हैं। कपिल सिब्बल ने शायद गलत नहीं कहा था कि मीडिया के छापने या नहीं छापने से कोई फर्क नहीं पड़ता। वाकई अब खबरों के छपने से आसमान नहीं टूट पड़ता। अक्सर अखबार और न्यूज चैनल छापते और दिखते रहते हैं कि किस चीज में क्या और कितनी मात्रा में मिलाया जा रहा है। छापते रहिए, दिखाते रहिए। मिलावट करने वालों के खिलाफ कभी कार्यवाई नहीं होती। यदि होती भी है तो महज दिखावा होता है। बड़े मिलावटखोरों और झूठ बोलकर अपने प्रोडक्ट को बेचने वालों तो को मीडिया भी छेड़ना नहीं चाहता। उदाहरण के लिए, किसी अखबार ने फेयर एंड लवली क्रीम के निर्माताओं से यह पूछने की हिम्मत नहीं दिखायी कि भैया क्रीम में ऐसा क्या डालते हों, जिससे आदमी काले से गोरा होता जाता है। बता देते तो माइकल जैक्सन को क्यों करोड़ों डालर खर्च करके अपनी चमड़ी गोरी करानी पड़ती। बराक ओबामा भी काले से गोरा हो जाता। जिस अखबार ने क्रीम निर्माताओं से यह पूछ लिया, उसी दिन फेयर एंड लवली के विज्ञापन बन्द हो जाएंगे। मैं अपना एक वाकया बताता हूं। मेरे पास पेप्सी की एक बोतल आयी,, जिसमें गंदगी भरी हुई थी। मैंने उस बोतल के बारे में अपने मीडिया के दोस्तों को बताया तो उनका जवाब था कि इसे हम नहीं छाप सकते। मैंने कारण पूछा तो जवाब मिला कि पेप्सी से हमें सालाना बहुत बड़ा रेवन्यू विज्ञापन के रुप में मिलता है। इसका मतलब यह हुआ कि खबर पर विज्ञापन भारी है। अब यदि चुनाव में एक हारते हुए दिख रहे प्रत्याशी का दिल रखने के लिए कुछ लाख रुपए लेकर किसी अखबार ने उसको जीतता हुआ दिखा दिया तो प्रभाश जोशी क्यों हंगामा बरपा कर रहे हैं।
अब सवाल यह है कि यदि खबर में मिलावट के खिलाफ कानून बन भी जाए तो उसका पालन कैसे होगा ? ये तय कैसे होगा की खबर में क्या मिलाया गया है ? यदि विज्ञापन में खबर और खबर में विज्ञापन को मिलाने की बात है तो इसके लिए जिम्मेदार तो मीडिया हाउस हैं। पत्रकार तो महज नौकर है। खबरें कैसी होंगी, इसका फैसला अब सम्पादक नहीं करता। सम्पादक को निर्देषित किया जाता है, कि क्या छापना है और क्या नहीं। यदि कानून बनाने की बात भी आती है तो यही नीलाभ ही मालिकों के कहने पर अपने कॉलम में लिखने के लिए मजबूर हो जाएंगे कि प्रेस की आजादी को खत्म करने की साजिश की जा रही है। सेंसरशिप लगायी जा रही है। लोकतन्त्र के चौथे स्तम्भ को धराशायी करने की कोशिश की जा रही है। नीलाभ ये सब इसलिए लिखेंगे, क्योंकि वे खुद आजाद नहीं हैं। बगावत कर नहीं सकते, क्योंकि बच्चे पालने हैं।
बहस खबरों में मिलावट पर ही नहीं होनी चाहिए। बहस इस बात पर भी होनी चाहिए कि मीडिया प्रसार संख्या और टीआरपी बढ़ाने के लिए 'बेच' क्या रहा है ? बात 'आउटलुक' से ही शुरु करें। अभी चार-छह महीने पहले ही 'आउटलुक' ने सैक्स पर कवर स्टोरी छापी थी। सैक्स स्टोरी के नाम पर 'आउटलुक' को पोर्न मैग्जीन में बदल गया था। जैसे इतना ही काफी नहीं था। स्टोरी सैक्स पर थी तो विज्ञापन कंडोम के थे। विज्ञापन भी इतने अश्लील कि यूरोप भी शरमा जाए। बात 'आउटलुक' की ही नहीं है। लगभग हर पत्रिका समय-समय पर प्रसार बढ़ाने के लिए सैक्स पर कवर स्टोरी छापती हैं। इनसे कहा जाएगा तो जवाब यही मिलेगा कि आजकल बाजार में सैक्स ही बिकता है। दरअसल 'आउटलुक' जैसी पत्रिकाओं का टारगेट ही वो मध्यम वर्ग है, जो उदारीकरण के बाद वजूद में आया है, जिसे सैक्स, खाना और सैर सपाटा ही भाता है। इसलिए इन पत्रिकाओं में मध्यम वर्ग को लुभाने वाली सामाग्री ही परोसी जाती है। आम आदमी की समस्याओं से इन पत्रिकओं से कुछ लेना-देना नहीं है। इसलिए ये पत्रिकाएं दिल्ली और चंडीगढ़ में ही बहुत बिकती हैं।
पत्रिका तो खैर बहुत घरों में नहीं पहुंचती लेकिन दैनिक अखबारों तो बहुत घरों में पहुंचता है। दैनिक अखबार भी लिंगवर्धक यंत्र, कंडोम और सैक्स बढ़ाने की दवाएं बेचते नजर आते हैं। विज्ञापनों के साथ कामुक मुद्रा में लड़की की तस्वीर जरुर चस्पा होती है। यही नहीं अन्डरवियर के विज्ञापनों को अश्लील बना दिया गया है। दरअसल देष की जनता को सिर्फ और सिर्फ सैक्स के बारे में ही सोचने के लिए मजबूर किया जा रहा है। 1991 में जब से निजी चैनलों का प्रसार बढ़ा है, तब से देष की जनता को सैक्स रुपी धीमा जहर दिया जा रहा है। यह जहर पीते-पीते एक पीढ़ी जवान हो गयी है। इस पीढ़ी में यह जहर इतना भर चुका है कि एक तरह से अराजकता की स्थिति हो गयी है। मां-बाप षर्मिंदा हो रहे है।ं यह जहर 'सच का सामना' जैसे रियलिटी षो के आते-आते इतना अधिक हो चूुका है कि अब करोड़ों लोगों के सामने आदमी की बहुत ही निजि समझी जाने वाली चीज सैक्स के बारे में ऐसे-ऐसे सवाल किए जा रहे हैं कि आंखें षर्म से पानी-पानी हो जाती है। यह तो पूछा ही जाने लगा है कि क्या आपने अपनी साली के साथ सम्बन्ध बनाए हैं या सम्बन्ध बनाने की सोची है ? हो सकता है कल यह भी पूछा जाए कि क्या आपने कभी अपनी बेटी भतीजी या भांजी के साथ भी जिस्मानी सम्बन्ध बनाए है ?
सेमिनारों में बड़ी-बड़ी बातें करना आसान है, उन पर अमल करना बहुत मुश्किल है। सच्चाई यह है कि अब अखबार, पत्रिका और न्यूज चैनल भी किसी साबुन, क्रीम और टूथपेस्ट की तरह एक प्रोडक्ट भर हैं। उन्हें बेचना है। रेवेन्यू लाना है, भले ही मिलावट करके आए या सैक्स परोसकर। मीडिया में तो इस वक्त दो तरह के लोग हैं। एक वो, जो मीडिया मुगलों की चाकरी करके पैसा कमा रहे हैं। दूसरे वे मीडिया मुगल हैं, जो किसी भी तरह पैसा कमाना चाहते हैं। दोनों से ही उम्मीद करना बेकार है। ऐसे में देष के जागरुक नागरिकों, राजनितिज्ञों और सामाजिक संगठनों का दायित्व बनता है कि वे समय रहते मीडिया को पैसे की खनक पर नाचने वाली तवायफ होने से बचाएं।

1 comment:

  1. पूरी तरह सहमत. मीडिया आज सड़क पर सांडे का तेल बेचने वालों से भी गई गुजरी हो चुकी है.............. पैसे के लिए यह सामाजिक मूल्यों, संस्कृति और यहाँ तक की देश की सुरक्षा (कारगिल और मुंबई २६/११ का कवरेज सभी को याद है) को भी ताक पर रख देने को तैयार हैं. आप नोट उड़ाते रहिये और इन्हें मन मुताबिक नचाते रहिये.......... इन्हें कोई उज्र नहीं.

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