सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
11 जुलाई को उदयन शर्मा के जन्म दिन पर दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब के डिप्टी स्पीकर हॉल में एक परिचर्चा 'लोकसभा के चुनाव और मीडिया को सबक' विषय पर आयोजित की गयी थी। परिचर्चा का आयोजन करने वाले, वक्ता और श्रोता मीडिया से ही जुड़े लोग थे। परिचर्चा में मीडिया को कसौटी पर कसने की कोशिश की गयी । परिचर्चा में प्रभाष जोशी के उन इल्ज+ामात को विस्तार मिला जिनमें उन्होंने कहा था कि हालिया लोकसभा चुनाव में अखबारों ने पैसे लेकर प्रत्याशियों के फेवर में खबरें छापी हैं। हालांकि परिचर्चा में किसी भी वक्ता ने इतनी हिम्मत नहीं दिखाई कि उन मीडिया हाउस के नाम लें, जिन्होंने पैसे लेकर खबरें छापने जैसा घिनावना काम किया था। बी4एम के यशवंत सिंह ने जरुर दैनिक जागरण और दैनिक भास्कर का नाम लेकर कहा कि इन दोनों अखबारों ने खुले आम ये काम किया।
परिचर्चा के शुरु में मुख्य अतिथि केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री कपित सिब्बल ने अपने सम्बोधन में यह कहा कि मीडिया के कुछ छापने अथवा छापने से कुछ फर्क नहीं पड़ता है। कपिल सिब्बल की इस बात का किसी पत्रकार ने विरोध नहीं किया। उनके जाने के बाद कुरबान अली ने जरुर यह कहकर अपनी भड़ास निकाली कि 'आज कपिल सिब्बल सबके मुंह पर तमांचा मार कर चला गया और हम कुछ नहीं कह सके'
पंकज पचौरी का कहना था कि 'केवल 100रु महीना में न्यूज चैनल और दो रुपए में अखबार खरीदोगे तो वही मिलेगा, जो अब मिल रहा है। स्तरीय खबरों के लिए कम से कम दस से पन्द्रह रुपए और चैनल के लिए 1000 रुपए खर्च करने पड़ेंगे।' क्या पंकज पचौरी को यह नहीं मालूम की देश की सत्तर फीसदी जनता केवल 20 रुपए रोजाना पर गुजर-बसर करती है। ऐसे में कौन् खबरों के लिए इतना पैसा खर्च करेगा। यहां यह कहा जा सकता है कि मोटी सेलरी लेने वाले पत्रकार ही क्यों नहीं अपनी सेलरीकम कर लेते या मीडिया हाउस अपना प्रोफिट कम कर लेते। चलिए मान लिया कि दर्र्शक और पाठक ज्यादा पैसे खर्च भी करे तो इस बात की क्या गारंटी है कि ज्यादा पैसे लेने के बाद भी पैसे लेकर खबरें नहीं छापी जाएंगी।
विनोद अग्निहोत्री ने बताया कि 2004 के चुनाव से ही खबरों के पैकेज बेचे जा रहे हैं। उन्होंने उदाहरण देकर बताया कि 2004 में मेरठ से जद यू के प्रत्याशी केसी त्यागी ने उन्हें बताया था कि मेरठ के अखबारों ने उनसे पैकेज खरीदने की पेशकश की थी। सीमा मुस्तफा ने बहुत साहस के साथ कहा कि हम पत्रकार डरे हुए और सहमे हुए हैं। बड़े से बड़े सम्पादक को भी पता नहीं होता कि कब मालिक की तरफ से आदेश आ जाएगा कि आपकी सेवाएं समाप्त की जा रही हैं। नौकरी सलामत रहे इसीलिए वे सब काम कर रहे हैं, जो नहीं करने चाहिएं। अलका सक्सेना ने कहा कि पैसे को मैनेज करने वाले नाकाबिल पत्रकार वहां हैं, जहां एक पत्रकार की हैसियत से उन्हें नहीं होना चाहिए और अच्छे पत्रकार हाशिए पर हैं।
परिचर्चा 1947-1977 की पत्रकारिता और 2009 की पत्रकारिता की बहस में भी उलझी। कुलदीप नैयर ने 1977 की पत्रकारिता को याद किया। इस पर आशुतोष का कहना था कि 1977 की पत्रकारिता 2009 में नहीं की जा सकती। उन्होंने यह भी कहा कि 1977 में भी यही होता था, जो आज हो रहा है। इस पर कुरबान अली ने उन्हें टोका कि 1977 में ऐसा नहीं होता था। इस पर आशुतोष नाराज हुए और माइक छोड़कर जाने लगे। संचालन कर रहे राहुल देव ने उन्हें रोका। लेकिन आशुतोष पर टीका टिप्पणी जारी रही तो आशुतोष को बीच में ही बात खत्म करके बैठना पड़ा।
आशुतोष शायद नहीं जानते कि 1977 में एम जे अकबर, एसपी सिंह, और उदयन शर्मा ने जिस पत्रकारिता की नींव डाली थी, उसी नींव पर आज की यानि 2009 की हिन्दी पत्रकारिता का महल खड़ा है। मीडिया को बेचने वाले उस नींव को हिलाने की कोशिश कर रहे हैं। कुरबान अली ने सही कहा था कि 1977 में पत्रकारिता करने वाले लोगों के सामने किसी कपिल सिब्बल की यह कहने की हिम्मत नहीं हो सकती थी कि तुम लोगों के छापने या नहीं छापने से कुछ नहीं होता। आज कपिल सिब्बल जैसे लोगों को पता है कि जमीर बेचने वालों का दिल भी कमजोर हो जाता है। यदि किसी को मौत से डर लगता तो उसे कोई हक नहीं है कि वह फौज की नौकरी करे। कुरबान अली ने सलाह दी कि 'पत्रकारिता के नाम पर पैसा बनाने से तो अच्छा दुनिया का सबसे प्राचीन धंधा है।
अपने अध्यक्ष्ीय भाषण में शरद यादव ने क्या कहा, किसी को समझ नहीं आया। परिचर्चा के बाद जलपान के समय प्रसिद्व हास्य कवि सुरेन्द्र शर्मा ने चुटकी ली कि 'सबसे अच्छा शरद यादव बोला, यही नहीं पता की क्या बोला।' उनकी इस चुटकी पर उनके पास खड़े लोग हंसे बिना नहीं रह सके।
इसमें दो राय नहीं कि मीडिया पर कॉरपोरेट जगत का कब्जा है। खबरें सम्पादक के विवेक से नहीं, बाजार की मांग के आधार पर तय होती हैं। यह निष्कर्ष नया नहीं है। यह सब जानते हैं कि कॉरपोरेट जगत समाज सेवा के लिए अखबार, मैंगजीन या न्यूज चैनल नहीं चलाता। मुनाफा उनकी पहली शर्त है। मुनाफा भी कम नहीं भरपूर चाहिए। इसके लिए चाहे मीडिया खबरों को विज्ञापन बनाकर छापे, नंगी तस्वीरें दिखाए, आरुषी जैसी मासूम लड़की का चीरहरण करे या सच्ची कहानियां जैसी पत्रिकाओं की तरह अपराध, सैक्स और अन्धविश्वास को बेचे। कुछ भी करें बस अखबारों का प्रसार बढ़े और न्यूज चैनल की टीआरपी। समाज भाड़ में जाए या पत्रकारिता का बेड़ा गर्क हो या पत्रकार दल्ला बनकर रह जाए। सामाजिक सरोकार आज के मीडिया के एजेण्डे से गायब हो चुके हैं।
परिचर्चा में कुलदीप नैयर, कुरबान अली, संतोष भारतीय, आशुतोष, पंकज पचौरी, राहुल देव, अलका सक्सेना, हिसाम सिद्दीकी, नीलाभ, विनोद अग्निहोत्री, यशवंत सिंह, पुण्यप्रसून वाजपेयी, शेष नारायण सिंह और अविनाश जैसे नाम, जो किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं, सहित मीडिया जगत की महान हस्तियां भी मौजूद थीं। वेब पत्रकारिता और ब्लॉगिंग से जुड़े लोग भी काफी संख्या में मौजूद थे। मैं 2003 से प्रत्येक 11 जुलाई को दिल्ली जाता रहा हूं। इस बार से ज्यादा मीडिया के लोग कभी इस अवसर पर मौजूद नहीं रहे। संचालन कर रहे राहुल देव ने भी इस बात को कहा कि इस बार उपस्थिति बहुत ज्यादा है। बहुत से लोगों को बैठने का स्थान तक नहीं मिला। स्थान नहीं मिलने का किसी को कोई गिला कोई शिकवा नहीं था। निर्धारित समय से एक घंटे से ज्यादा चली परिचर्चा को बहुत सारे लोगों ने खड़े-खड़े ही सुना। समय के अभाव में कई लोग अपने विचार भी नहीं रख सके। ये उपस्थित लोगों का उदयन शर्मा के प्रति प्यार तो दर्शाता ही है, यह भी बताता है कि परिचर्चा का विषय कितना गम्भीर था।
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