Thursday, April 23, 2009

पत्रकारिता के स्कूल थे उदयन शर्मा

(पुण्य तिथि 23 अप्रैल पर विशेष)
सलीम अख्तर सिद्दीकी
हिन्दी पत्रकारिता को नये तेवर देने वाले उदयन शर्मा को नई पीढ़ी के पत्रकार शायद ही जानते हों। अपनों में पंडित जी के नाम से प्रसिद्व उदयन शर्मा के लिए पत्रकारिता केवल प्रोफेशन नहीं बल्कि मिशन थी। उनका बौद्विक व्यक्त्तिव समाजवादी मानवीय सरोकारों की बुनियाद पर विकसित हुआ था। शायद इसीलिए वह हमेशा मजलूमों की पैरवी करते रहे। उनकी लेखनी कभी मशाल, कभी तलवार और कभी लगाम का काम करती थी। 1977 में रविवार के प्रकाशन आरम्भ होने से पहले हिन्दी पत्रकारिता दीन-हीन अवस्था में थी। अंग्रेजी के पत्रकारों का बोलबाला था। रविवार के माध्यम से उदयन शर्मा ने हिन्दी पत्रकारिता को दीन-हीन अवस्था से बाहर निकाला और उसको ऐसे तेवर प्रदान किये कि अंग्रेजी के पत्रकार भी उनका लोहा मानने लगे। सम्भवतः वो अकेले ऐसे पत्रकार थे, जिसने गरीबों, वंचितों, दलितों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों पर होने वाली ज्यादती को मौके पर जाकर देखकर उसे महसूस किया और पूरी शिद्दत के साथ उनकी समस्याओं को देश-दुनिया के सामने रखा। 1981 में उत्तर प्रदेश के देहुली में 25 और साढूपुर में 10 दलितों के सामूहिक निर्मम हत्याकांड को उदयन शर्मा ने रविवार में प्रभावशाली ढंग से जगह देकर पूरे देश का ध्यान हत्याकांड की तरफ खींचा। 1980 में जब बागपत पुलिस ने माया त्यागी को नंगा करके सरेआम अपमानित किया तो उदयन शर्मा ने बागपत में जाकर उस घटना की पड़ताल करके बागपत पुलिस के क्रूर चेहरे को बेनकाब किया। 1990-91 के दौरान, जब अयोध्या आन्दोलन के कारण पूरा उत्तर प्रदेश साम्प्रदायिकता की ज्वाला में धधक रहा था तो उदयन शर्मा ने अपनी कलम से साम्प्रदायिक ताकतों पर प्रहार किया। कोई घटना होते ही मौके पर जाकर उसकी रिपोर्टिंग करने के लिए उनका दिल मचलने लगता था। शायद यही वजह थी कि रविवार के सम्पादक बनने के बाद भी एसी दफ्तर में बैठक्र सम्पादकी करने के बजाय वो रिपार्टर की भूमिका में ही रहे।
साम्प्रदायिकता के घोर विरोधी उदयन शर्मा साम्प्रदायिकता को देश की एकता और अखंडता के लिए सबसे ज्यादा घातक मानते थे। साम्प्रदायिक दंगों की रिपोर्टिंग में उन्हें महारत हाासिल थी। उन्होंने ही सबसे पहले दंगों के सच को सबको सामने रखा। उनके पत्रकारिता में कदम रखने के बाद शायद ही कोई ऐसा छोटा-बड़ा साम्प्रदायिक दंगा हो, जिसकी पड़ताल उन्होंने मौके पर जाकर न की हो। उन्होंने ही सबसे पहले यह लिखना शुरू किया कि दंगों में कितने मुसलमान या हिन्दू मारे गये। दंगा पहले किसने शुरू किया। इससे पहले दो सम्प्रदायों के बीच तनाव या एक सम्प्रदाय के इतने लोग मारे गये आदि ही छापा जाता था। दंगाईयों का धर्म और वेहरा सामने नहीं आता था। साम्प्रदायिकता पर उन्होंने न तो कभी संघ परिवार के प्रति नरमी दिखायी और न ही मुस्लिम साम्प्रदायिक ताकतों को बख्शा। एक बार उन्होंने अपने कॉलम प्रथम पुरूष में लिखा था- मैं उस दिन बहुत खुश होता हूं , जिस दिन पांजन्नय मेरी आलोचना करता है। मैंने उदयन शर्मा को 1987 के दंगों के दौरान भीषण गरमी में मेरठ की तंग गलियों में घूमते देखा है। मलियाना के एक-एक दंगा पीड़ित के घर जाकर घटनाओं की जानकारी लेते देखा है।
उदयन शर्मा ने 1971 में बतौर प्रशिक्षु पत्राकार टाइम्स ऑफ इंडिया ज्वायन किया। उसके बाद डा0 धर्मवीर भारती के सम्पादन में निकलने वाले धर्मयुग में काम किया। उसके बाद कोलकाता के आन्नद बाजार पत्रिाका ग्रुप के नये साप्ताहिक रविवार में आ गये। 1985 में रविवार के सम्पादक बने। अपने सम्पादन से उन्होंने रविवार के माध्यम से हिन्दी पत्रकारिता के नए आयाम बनाये। रविवार में उनका प्रथम पुरूष कॉलम बहुत मशहूर था। 1989 में जब उन्होंने रविवार से इस्तीफा दिया तो उनके प्रशसंकों में मायूसी फैल गयी। लेकिन मायूसी ज्यादा दिन तक कायम नहीं रह सकी। दिल्ली के अंग्रेजी संडे ऑब्जार्वर ने इसी नाम से एक हिन्दी साप्ताहिक का प्रकाशन शुरू किया तो उदयन शर्मा को उसका सम्पादक बनाया गया। संडे ऑब्जर्वर में भी उनके रविवार वाले तेवर कायम रहे। संडे आब्जर्वर के बन्द होने के बाद कुछ टी वी चैनलों में काम किया लेकिन उदयन शर्मा को प्रिन्ट मीडिया ही रास आता था। उनका अन्तिम पड़ाव अमर उजाला बना।
उदयन शर्मा ने राजनीति में भी जोर आजमाइश की। शायद उनकी सोच थी कि पत्रकारिता के साथ-साथ राजनीति में रहकर मजलूमों की आवाज और पुरजोर तरीके से उठायी जा सकती है। लेकिन दूसरे राजनीतिज्ञों का आकलन करने वाले उदयन शर्मा अपना राजनैतिक आकलन करने में चूक गये। उन्होंने 1984 में आगरा से चौधरी वरण सिंह की पार्टी दलित मजदूर किसान पार्टी (दमकिपा) से तब चुनाव लड़ा, जब कांगेस की जबरदस्त लहर चल रही थी और 1991 में मध्य प्रदेश के भिंड संसदीय क्षेत्र से तब चुनाव लड़ा, जब कांग्रेस का जहाज डूब रहा था। लिहाजा दोनों क्षेत्रों से असफलता हाथ लगी।
ब्रेन ट्यूमर की घातक बीमारी ने 23 अप्रैल 2001 को उनको हमसे हमेशा के लिए छीन लिया। उन्होंने राजकपूर को श्रद्वांजलि देते समय लिखा था- 64 की उम्र बहुत नहीं होती। यह उम्र राजकपूर की हो तो और भी नहीं। लेकिन उदयन तो खुद 64 के भी नहीं हुऐ थे। मात्र 52 साल की उम्र ही पायी उन्होंने। छोटी सी उम्र में ही उन्होंने अपनी खुश अखलाक़ी और काम से अपने हजारों प्रशंसक बनाये। फिल्मों की तरह पत्राकारिता में भी स्टार सिस्टम है तो मैं उन्हें इस सदी का सुपर स्टार कहूंगा। यदि वह सुपर स्टार नहीं होते तो 11 जुलाई को उनके जन्म दिवस पर दिल्ली में होने वाले कार्यक्रम में हर साल बेहद मसरूफ लोग उनको याद करने के लिए एक जगह इकटठा नहीं होते।
बहुत से लोग पूछते हैं कि उदयन शर्मा में ऐसा क्या था, जो सभी उनको इतनी शिद्दत से याद करते हैं। जो लोग उनको समझना चाहते हैं, उन्हें साम्प्रदायिक दंगों पर की गयी उनकी रिपोर्टों के संकलन दहशत, ग्रामीण भारत को करीब से देखने के लिए फिर पढ़ना इसे जरूर पढ़नी चाहिए। उन लोगों को तो खासतौर से जो पत्रकारिता में आना चाहते हैं अथवा पत्रकारिता में अभी नए आये हैं। दहशत और फिर पढ़ाना इसे के अलावा उनकी अन्य दो पुस्तकें, किस्सा कश्मीर का और जनता पार्टी क्यों टूटी भी उल्लेखनीय हैं। इनके अतिरिक्त उनके शिष्य कुरबान अली द्वारा सम्पादित उदयन नाम की स्मारिका, जो उनके जन्म दिन 11 जौलाई 2007 पर प्रकाशित की गयी थी जरुर पढ़ें। इस स्मारिका में उनके सहयोगियों ने उनके बारे में ऐसे अनछुए पहलूओं के बारे में लिखा है, जिनसे बहुत लोग अनजान रहे हैं। इस स्मारिका में उदयन शर्मा के चुनींदा लेखें को दिया गया है। इसमें दो राय नहीं कि उदयन शर्मा पत्रकारिता के स्कूल थे। उन्होंने अपने पीछे पत्रकारों की एक लम्बी फौज छोड़ी है। उन्हें कोई भी तेज-तर्रार युवक नजर आता था, उसे वो तुरन्त अपनी योग्यता साबित करने का मौका प्रदान करते थे।

4 comments:

  1. udayan sharma ko itni shiddat se yaad karna bahut achcha laga.

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  2. सलीम साहब आपका लेख पढ़कर उदयनजी की याद ताज़ा हो गई... वाक़ई वो दमदार पत्रकार थे... एक बार जब वो सहारा में छे तो कुछ फ़्रीलॉस टीवी प्रोड्यूसरों को सहारा के लिये कार्यक्रम बनाने के लिये आमंत्रित किया गया, उसमें ये ख़ाकसार सभी था... मेरे लिये पंडितजी से वो मुलाक़ातें यादगार हैं... एक ऐसी ही बातचीत में मैंने उनसे पूछ ही लिया कि उदयन जी भारतय राजनीति को इतने क़रीब से देखने समझने के बावजूद आपने चुनाव लड़ने की क्यों ठानी?... मैं समझा था कि पंडित जी कोई सारगर्भित बात कहेंगे लेकिन इससे बिल्कुल उलट वो मेज़ के दूसरी तरफ़ अपनी कुर्सी से उठे और कान पकड़ते हुए बोले... दोस्त गल्ती हो गई... अब नहीं लड़ूंगा... और फिर कमरे मौजूद सबलोग क़हक़हों में गये... वाक़ई वो बड़े दिलदार और दमदार पत्रकार थे... ज़िंदगी जीने का उनका अपना अंदाज़ था...
    नाज़िम नक़वी, दिल्ली

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  3. उदयन जी के बारे में जानकर खुशी हुई।
    आपके ब्लॉग पर पहली बार आया हूं, अच्छा लगा यहां आकर।
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    सम्मोहन के यंत्र
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