Wednesday, December 31, 2008

नए साल में हो जेहाद की शुरुआत

हमेशा से ही मेरा यह मानना रहा है कि एक साल का अंत भी उसी तरह से है, जिस तरह से एक सैकिण्ड, एक मिनट, एक घंटा, एक दिन और एक महीना गुजर जाता है। क्योंकि साल वक्त की बड़ी ईकाई है, शायद इसलिए इसकी अहमियत ज्यादा होती है। इसलिए गुजरे साल का लेखा-जोखा देखने के साथ ही आने वाले साल का आगाज इस उम्मीद के साथ किया जाता है कि आने वाला साल सुख-समृद्वि से भरपूर रहे। यह सच्चाई है कि नया साल सभी के लिए एक सा कभी नहीं रहा। किसी के लिए दुख और किसी के लिए सुख लेकर आता रहता है। यही कुदरत का नियम भी है। वक्त न तो किसी का इन्तजार करता है न ही किसी का मोहताज होता है। कहा जाता है कि जो वक्त की कद्र नहीं करता, वक्त उसकी कद्र नहीं करता। वक्त किसी पर मेहरबान होता है तो किसी पर आफत बनकर टूट पड़ता है। किसी ने सही कहा था, वक्त की हर शै गुलाम होती है। वक्त ने जाते-जाते बुश को एक पत्रकार के हाथों दुनिया भर में जलील करा दिया तो पत्रकार मुंतिजर अली को दुनिया का हीरो बना दिया। इसी वक्त ने आसिफ अली जरदारी को जेल से सीधे राष्ट्रपति की कुर्सी तक पहुंचा दिया। वक्त कभी भी कुछ भी करा सकता है। यह मेरी समझ है। कुछ लोग वक्त को नहीं, कर्म को ही सब कुछ मानते हैं। लेकिन कर्म और वक्त को चोली दामन का साथ है।
बहरहाल, 2008 देश-दुनिया पर भारी गुजरा है। मंदी की मार ने अच्छों-अच्छों की जेबें ढीली कर दीं। कुछ की तो जेबें न सिर्फ खाली हो गयीं बल्कि कर्ज का बोझ लद गया। पिछले साल के आगाज के वक्त जो शेयर सूचकांक कुलांचे भरते 21000 हजार तक पहुंच गया था, वह साल खत्म होते-होते यह रसातल में पहुंच गया। इस साल भी शेयर बाजार की हालत मे सुधार होने के आसार कम ही नजर आ रहे हैं। आतंकवाद के खूनी चेहरे ने देश को सकते में डाला तो इसी आतंकवाद ने देश को एक सुर में बोलने के लिए मजबूर कर दिया। यदि वक्त के रहते सभी ने सुर में सुर मिला दिया होता तो मुंबई जैसी त्रासदी देखने को नहीं मिलती। देश में एकता आयी है, लेकिन बहुत बड़ी कीमत देने के बाद। 2009 में भी यही एकता कायम रह सके तो मुंबई जैसी त्रासदी से बचा रहा जा सकता है। सरकारें आती-जाती रहती हैं। दुश्मनों से देश को बचाना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए।
2008 में मंहगाई ने गरीबों का निवाला छीन लिया। मंहगाई आंकड़ों में कम होती रही लेकिन आम आदमी को कोई राहत मिलती दिखायी नहीं दी। इस देश की सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि साल के अंत में फिल्म, क्रिकेट, फैशन और कारों की बिक्री का लेखा-जोखा तो देखा जाता है। लेकिन देश में कितने किसानों ने आत्महत्या की, कितने लोग भूख से मरे, छंटनी के चलते कितने लोग बेरोजगार हुऐ, इसका कहीं कोई लेखा-जोखा नहीं है। यह विडम्बना है कि जिस देश की 70 फीसदी आबादी गरीबी की रेखा के नीचे जीने के लिए अभिशप्त है, उस देश में नए साल की खुशियां मनाकर गरीबों का मजाक उड़ाया जाता है। करोड़ों रुपयों की शराब पानी की तरह बहा दी जाती है। लड़कियों को नंगा नचाया जाता है। ठीक है। मुंबई हमलों के कारण इस बार नए साल का स्वागत करने के लिए बड़े आयोजन नहीं हो रहे हैं, लेकिन हर साल तो गरीबों के जख्मों पर नमक छिड़का जाता रहा ही है। सच यह भी है कि यदि मुंबई में आतंकवादियों के हमलों के शिकार नामचीन लोग न होकर हमेशा की तरह आम आदमी ही होते तो शायद इस बार भी नए साल का स्वागत जोर-शोर से ही किया जाता। क्या कभी इस देश में हजारों किसानों की आत्महत्या करने के गम में नए साल की स्वागत में मनायी जाने वाली धमाचौकड़ी से परहेज करने की कोशिश तक भी की गयी है ? 2009 में सबसे निचले तबकों के लोगों की बात होना जरुरी है। सिर्फ बात ही नहीं गरीबों के लिए बनायी गयीं सरकारी योजनाओं का लाभ उन तक पहुंचाने की ईमानदारी से कवायद होनी चाहिए। 2008 हमें सबक देकर जा रहा है। उस सबक को याद रखकर 2009 को ऐसे साल में तब्दील में करने की कोशिश होनी चाहिए कि कोई ऐरा-गेरा आकर देश का मान मर्दन करने की कोशिश न कर सके। शेयर बाजार उंचाइयों पर पहुंचे, लेकिन यह भी ध्यान रहे कि गरीबों को भी दो वक्त की रोटी समय पर मिलती रहे। भूख से कोई मरे नहीं और किसान आत्महत्या करने को विवश न हों। वैसे तो जैसा मैंने शुरु में कहा वक्त और कर्म सबसे बड़ी चीज है। 2009 में गरीबी, भुखमरी, आतंकवाद और भ्रष्टाचार के खिलाफ जेहाद की शुरुआत होनी चाहिए। आमीन।
170, मलियाना, मेरठ
09837279840
saleem_iect@yahoo.co.in

2 comments:

  1. '2009 में गरीबी, भुखमरी, आतंकवाद और भ्रष्टाचार के खिलाफ जेहाद की शुरुआत होनी चाहिए। आमीन।' - सुंदर विचार. साधुवाद.

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  2. अच्छा व प्रभावशाली लेख है ।

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