सलीम अख्तर सिद्दीक़ी
मेरठ की प्रियंका चौधरी, जो 2005 में मिस मेरठ का खिताब ले चुकी है, पर अपनी दोस्त अंजु के साथ मिलकर अपने मां-बाप की हत्या का आरोप ल्रगा है। मीडिया में तरह-तरह की बातें हो रही हैं। सबसे दुखद पहलू यह है कि दोनों लड़कियों को लेस्बियन होने के आरोप का दंश भी झेलना पड़ रहा है। उनका गुनाह अपनी जगह, लेकिन बगैर किसी सबूत के दोनों को लेस्बियन घोषित करके मीडिया कौनसी परम्परा का निर्वाह कर रहा है। माना कि दोनों लेसिबयन हैं तो भी क्या मीडिया को उन्हें इस तरह से जलील करना चाहिए। आज समाज किस राह पर जा रहा है, प्रियंका चौधरी और अंजु इस बात का सबूत हैं। आजादी और समानता के नाम पर अश्लीलता का नंगा नाच हो रहा है। लगभग सभी समाजों, धर्मों तथा संस्कृतियों में लड़कियों से मर्यादा में रहने की अपेक्षा की जाती रही है। कुछ समाज और धर्म इज्जत के नाम पर लड़कियों पर बहुत कठोर अंकुश रखते हैं। पर्दा प्रथा इसी अंकुश के चलते प्रचलन में आया था। लड़कियों को पढ़ाने को भी कुछ लोग सही नहीं मानते। उनका तर्क यह होता है कि लड़कियों के बाहर निकलने से उनके भटकने का खतरा रहता है। जमाना बदला। सोच बदली। लड़कियों को शिक्षित करना जरूरी माने जाने लगा। लड़कियां बाहर की दुनिया से रूबरू हुईं। लेकिन उच्च शिक्षित और समाज का एक वर्ग, जो प्रगतिशील होने का दावा करता है, वह भी लड़कियों से आज भी यही अपेक्षा रखता है कि लड़कियां धार्मिक और सामाजिक मर्यादाओं का उल्लंघन न करें। जवान होती लड़की के मां-बाप दहेज की चिंता से ज्यादा इस चिंता से ग्रस्त हो जाते हैं कि लड़की के कदम न बहक जायें। जब अखबार किसी साइबर कैफे या किसी घर में कुछ लड़कों और लड़कियों के आपत्तिजनक अवस्था में पकड़े जाने की खबर छापता है तो जवान लड़कियों के अभिभावकों का दिल कांप उठता है। अवैध सम्बन्धों के चलते होने वाली वाली हत्याओं का ग्रॉफ बढ़ रहा है। दोस्ती के झांसे में आकर कुछ लड़कियां अपनी अश्लील सीडी बनवाकर खुद तो शर्मसार होती हैं, अपने अभिभवाकों को भी शर्मसार कर देती हैं। मीडिया में हर दिन आता है। कोई लड़की किसी के साथ फरार हो गयी। फरार हुई कोई लड़की बरामद हो गयी। बरामद हुई लड़की अदालत में अपने बालिग होने का प्रमाण देकर अभिभावकों को ठेंगा दिखाकर उन्हें शर्मसार करके प्रेमी को ही सब कुछ मान लेती है। क्योंकि कानून कहता है कि लड़की बालिग होते ही अपने जीवन की राह खुद चुन सकती है। एक बात जो बहुत चौंकाती है। मुस्लिम लड़कियां गैरमुस्लिमों के साथ फरार होने में गुरेज नहीं कर रही हैं तो हिन्दु लड़कियां मुस्लिम लड़कों के साथ। यानि धर्म और जाति का बंधन नहीं। यह महामारी उच्च शिक्षित और अशिक्षित लड़कियों में समान रूप से गांव देहात तक पैर पसार चुकी है। एक उच्च शिक्षित लड़की को निरे अनपढ़ लड़के के साथ प्यार की पींगें बढ़ाने में भी गुरेज नहीं है। यह सब देख और सुनकर अभिभावकों की नींदें उड़ी हुईं हैं। बड़े शहरों के कुछ अभिभावक तो अपनी लड़की की गतिविधियों पर नजर रखने के लिए प्राइवेट डिटेक्टिव तक का सहारा ले रहे हैं।
आखिर क्या हो गया है लड़कियों को ? क्या लड़कियों के लिए अभिभावकों की इज्जत से बढ़कर प्यार है ? दरअसल, मीडिया, खासकर टीवी चैनलों ने बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के साथ मिलकर एक ऐसा मायावी संसार रच दिया है, जो हमारी संस्कति और हकीकत से कोसों दूर है। फिल्मों और टीवी सीरियलों में दिखाया जा रहा है कि प्यार करना जरूरी है और जिसका कोई ब्वायफेंड या गर्लफेंड नहीं है वह 'भाई साहब' या 'बहनजी' है। वेलेंटाइन डे को राष्ट्रीय पर्व में तब्दील कर दिया गया है। इन्टरनेट पर पोर्न साइटें हजारों की संख्या में हैं, जिन पर किसी का कन्ट्रोल नहीं है। कई साइटें तो डेटिंग करने के तरीके तक बताती हैं। टीवी सीरियल के लिए कोई सेंसर नहीं है। कंडोम के विज्ञापन लघु सॉफ्ट पोर्न फिल्में लगती हैं। एक जमाना था, जब टीवी पर कंडोम का विज्ञापन आता था तो टीवी को किसी न्यूज चैनल पर कर दिया जाता था। आज न्यूज चैनल पर भी कोई मिक्का सिंह किसी राखी सावंत को जबरदस्ती किस करता नजर आता है तो शिल्पा शेट्टी किसी विदेशी अदाकार को सहमति से किस देती दिखायी देती है। किसी न्यूज चैनल पर सैक्स समस्याओं पर चर्चा होती नजर आती है। समाचार-पत्र और पत्रिकाओं में भी अश्लील सामाग्री को छापा जा रहा है। कभी कोई पत्रिका इसलिए घर ले जाने से बचा जाता है, क्योंकि उसे बच्चों के सामने नहीं पढ़ सकते। महिलाओं के लिए निकाली जा रही पत्रिकाएं तो कई कदम आगे दिखायी देती हैं, उनमें समस्या-समाधान के नाम पर खुलकर सैक्स परोसा जा रहा है। महिलाओं की कोई भी पत्रिका सैक्स स्टोरी के बगैर पूरी नहीं होती। जब कभी किसी सेमिनार आदि में कुछ लोग मीडिया में बढ़ती अश्लीलता की बात उठाते हैं तो मीडिया के लोग बहुत सहजता से इसे बाजार की मांग बताकर बात खत्म कर देते हैं।
हम भारतीय समाज हैं। हमारी कुछ धार्मिक और सामाजिक मान्यताएं हैं, जिन्हें निश्चित ही किसी के लिए छोड़ना आसान नहीं है। जिस समाज की लड़की परम्पराओं और मान्यताओं से बाहर जाती है, वह समाज अपने आप को अपमानित महसूस करता है। इसी अपमान के चलते अक्सर कई लड़कियों को अपनी जान गंवानी पड़ती है। ऐसी हत्याएं करने वालों को मीडिया प्यार का दुश्मन कहता है। ऐसी हत्याओं को किसी भी सूरत में जायज नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन युवाओं को उकसाने के अपराध से मीडिया भी बरी नहीं हो सकता। हमारी सरकार को फिल्मों में सिगरेट पीते दिखाये जाने पर तो आपत्ति है, लेकिन फिल्मों में बढ़ती अश्लीलता सरकार को दिखायी नहीं देती। इससे पहले कि हालात बद से बदतर हों, सरकार को टीवी चैनलों पर सेंसरशिप लागू करनी ही चाहिए। मीडिया को खुद भी अपने बारे में कोई आचार संहिता बनानी चाहिए। मीडिया को सोचना होगा कि बाजार अपनी जगह, लेकिन उसका कुछ सामाजिक दायित्व भी हैं, जिसे उसने बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हाथों गिरवी रख दिया है।
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