वेद प्रकाश शर्मा। एक ऐसा नाम, जिसने जासूसी उपन्यासों में एक इतिहास रचा। वो भी उस दौर में, जब कई नामचीन उपन्यासकारों का डंका बजता था। उन सबके बीच अपनी पहचान बनाना बहुत दुष्कर काम था। लेकिन निम्न मध्यम वर्ग से ताल्लुक रखने वाले वेद नाम के उस लड़के में ऐसा कुछ था, जिसने जिद ठानी थी कि उसे कुछ करके दिखाना है। कहां कहां नहीं भटका वेद नाम कर वह लड़का। लेकिन जो बच्चा कोर्स की किताबों से ज्यादा उपन्यास और पत्रिकाएं पढ़ता है, उससे कोई भी अंदाजा लगा सकता था कि ये लड़का कुछ नहीं कर सकेगा। उस वक्त तो घर में कोहराम ही मच गया था, जब वेद अपनी गलत संगत के कारण नवीं क्लास में फेल हो गया। उपन्यास पढ़ने पर घर में वेद को रोज डांट पड़ती थी, लेकिन उपन्यास पढ़ने और स्कूल बंक करके फिल्म देखने की लत थी कि छूटती नहीं थी। कोर्स की किताबों से इतर भी एक पढ़ाई होती है, जो वेद ने पढ़ी। पढ़ते-पढ़ते लिखने का शऊर आ गया। खैर, जैसे तैसे दसवीं क्लास में पहुंचा। कालेज की हिंदी की हेड ने वेद में ऐसा कुछ देखा कि उन्होंने वेद को कालेज की वार्षिक पत्रिका संपादक बना दिया। पत्रिका शानदार निकाली।
पहला उपन्यास
साल 1970, 15 साल की उम्र। दसवीं के इम्तहान के बाद वेद गर्मियों की छुट्टियां मनाने अपने गांव गया। अपने साथ ले गया ढेर सारे उपन्यास। एक एक करके सब पढ़ डाले। खाली हुआ तो कुछ लिखने का ताना बाना बुनने लगा। दिमाग में एक कहानी बनाई और पेन कागज पर उतारने बैठ गया। देखते ही देखते पूरा उपन्यास लिख डाला। टाइटिल दिया ‘विजय मौत के जाल में’। लेकिन अब समस्या यह थी कि घर वालों को कैसे दिखाए? उपन्यास पढ़ने पर ही रात दिन डांट पड़ती थी, लिखने पर क्या हाल करेंगे, यही सोचकर रूह कांप गई। डर की वजह से घर वालों को तो नहीं, लेकिन दोस्तों को उपन्यास पढ़वाया। दोस्तों ने उसमें जो कमियां बतार्इं, उन्हें दूर किया। इस बीच हाईस्कूल का रिजल्ट आ गया और वेद सेकिंड डिवीजन से पास हो गया। एक दूसरे से होते हुए बात उनके पिता मिश्रीलाल जी के कानों तक पहुंची कि वेद ने उपन्यास लिखा है। पिता ने उनसे वह उपन्यास मांगा। डरते डरते उन्हें दिया। पिता ने रात में उपन्यास पढ़ा और सुबह वेद को बुलाकर कहा, तुमने बहुत अच्छा तो नहीं, लेकिन ठीक लिखा है। आगे लिखने की कोशिश कर। बस जैसे वेद को मुंहमांगी मुराद मिल गई। पिता का आशीर्वाद मिल गया।
प्रकाशकों से निराशा
पिता से आशीर्वाद मिलने के बाद वेद अपना उपन्यास प्रकाशकों के पास लेकर भटकता रहा, लेकिन कोई भी उपन्यास उसके नाम से नहीं, बल्कि उस समय के मशहूर लेखक के नाम से छापना चाहता था। लेकिन वेद की जिद यह कि छपेगा तो मेरे ही नाम से, वरना नहीं छपेगा। वेद जिद पर अड़ा रहा। उपन्यास पर उपन्यास लिखकर एक संदूक में रखता रहा। जिस भी प्रकाशक के पास जाता, टरका दिया जाता। एक प्रकाशक ने बेइज्जत करके आॅफिस से ही निकाल दिया। आखिरकार वेद को पता चला कि अपने नाम से उपन्यास छपवाना आसान नहीं है। वेद ने एक प्रकाशक को उपन्यास सौंप दिया, जो उस समय के हिट लेखक के नाम से आया। बाजार में उपन्यास हाथोहाथ लिया गया। इसके बाद एक के बाद एक उपन्यास वेद ने लिखे। हिट लेखक का नाम होता रहा। लंबे वक्त तक यह सिलसिला चलता रहा। प्रकाशकों में यह बात आम हो गई कि ‘हिट लेखक’ के नाम से कौन उपन्यास लिख रहा है। लेकिन दूसरे प्रकाशक अभी भी उसके नाम से उपन्यास छापने के लिए तैयार नहीं थे।
नाम के साथ पहला उपन्यास ‘दहकता शहर’
आखिरकार ‘कंचन पाकेट बुक्स’ के मालिक सुरेश जैन ‘रितुराज’ ने, जो खुद भी सामाजिक उपन्यास लिखते थे, वेदप्रकाश शर्मा के नाम से उपन्यास प्रकाशित करने का वादा किया तो एक बारगी वेद को यकीन ही नहीं आया। ‘रितुराज’ ने उनसे नए उपन्यास की स्क्रिप्ट मंगवाई। वेद प्रकाश शर्मा नाम से ‘दहकते शहर’ 1973 में आया। लेकिन यहां भी नाम कवर पर नहीं, अंदर के पेज पर छोटे फॉन्ट साइज में छापा गया था। इस उपन्यास ने धूम मचा दी। नए उपन्यास में वेद ने एक नया किरदार गढ़ा था, ‘विकास’। विकास नाम का वह किरदार इतना मशहूर हुआ कि पाठक ‘विकास’ के नाम से उपन्यास मांगने लगे। ‘दहकते शहर’ की बिक्री ने प्रकाशकों की आंखें खोलकर रख दीं। अगले उपन्यास ‘आग का बेटा’ के कवर वेद का नाम तो आ गया, लेकिन तस्वीर अभी भी नहीं आई थी। चार उपन्यास छपने के बाद कवर पर तस्वीर भी आ गई। वेद की जिद पूरी हुई।
‘वर्दी वाला गुंडा’ ने पहुंचाया बुलंदी पर
वेदप्रकाश शर्मा का जिक्र हो और वेद के अपने प्रकाशन तुलसी पॉकेट बुक्स से प्रकाशित ‘वर्दी वाला गुंडा’ की चर्चा न हो, यह संभव नहीं है। यह ऐसा उपन्यास था, जो ब्लैक में भी बिका। इस उपन्यास की बिक्री ने सभी उपन्यासों की बिक्री के सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले। जो लोग उपन्यास नहीं पढ़ते थे, उन्होंने भी ‘वर्दी वाला गुंडा’ पढ़ा। इस उपन्यास के प्रकाशन ेके बाद वेद प्रकाश शर्मा को पूरे भारत में जबरदस्त पहचान मिली। चर्चा हुई कि क्या कोई थ्रिलर उपन्यास इतना भी बिक सकता है। लेकिन यह सच थ। ‘वर्दी वाला गुंडा’ ने कई रिकॉर्ड बनाए।
केशव पंडित का जन्म और बॉलीवुड में कदम
अस्सी के दशक में जब दहेज के नाम पर बहुएं जलाकर मारी जा रही थीं, तब उस समय की इस बड़ी समस्या पर वेद प्रकाश शर्मा की कलम से निकला ‘बहु मांगे इंसाफ’ नाम का एक थ्रिलर उपन्यास। इसी उपन्यास में उन्होंने एक किरदार गढ़ा केशव पंडित। केशव पंडित। एलआईसी का काईयां जासूस। इस उपन्यास पर फिल्म बनी ‘बहु की आवाज’ इस फिल्म में उस समय की आर्ट फिल्मों में काम करने वाले ओमपुरी और नसीरूद्दीन शाह ने काम किया था। साथ में थीं सुप्रिया पाठक। ‘बहु की आवाज’ हिट रही। लेकिन कहानी में हो रद्दोबदल किए गए थे, वे वेदप्रकाश शर्मा का पसंद नहीं आए थे।
‘विधवा के पति’ के पति पर बनी अनाम रही सुपर फ्लॉप
‘विधवा का पति’ एक सस्पेंस थ्रिलर उपन्यास था, जो बहुत हिट हुआ था। उस उपन्यास पर रमेश मोदी नाम के एक प्रोड्यूसर ने अरमान कोहली को लेकर ‘अनाम’ फिल्म बनाई, जो सुपर फ्लॉप रही। फिल्म फ्लॉप होने पर वेदप्रकाश शर्मा का समझ में आया कि कहानी के अलावा पटकथा और डायलॉग्स भी कुछ चीज होते हैं। ‘अनाम’ इस मामले में मात खा गई थी।
पटकथा और संवाद भी लिखे
फिल्म निर्माता निर्देशक उमेश मेहरा ने वेदप्रकाश शर्मा से संपर्क किया। वह उनके उपन्यास ‘लल्लू’ पर फिल्म बनाना चाहते थे। लेकिन उमेश मेहरा की शर्त थी कि फिल्म की पटकथा और संवाद खुद वेद लिखेंगे, तो कहानी के साथ इंसाफ होगा। वेद की भी यही तमन्ना थी। उन्होंने ‘लल्लू’ पर बनने वाली फिल्म ‘सबसे बड़ा खिलाड़ी’ की पटकथा और संवाद लिखे। फिल्म न केवल सुपर हिट रही, बल्कि वह उस साल के वीडियोकॉन एवार्ड में भी नॉमिनेट हुई। लेकिन एवार्ड उन्हें नहीं मिला। लेकिन दर्शकों ने फिल्म की गोल्डन जुबली बनाकर अपना ईनाम दे दिया था। इसके बाद उमेश मेहरा की ही ‘इंटरनेशनल खिलाड़ी’ की कहानी, पटकथा और संवाद भी वेदप्रकाश शर्मा ने ही लिखे थे। इस फिल्म में अक्षय कुमार और ट्विंकल खन्ना मुख्य भूमिकाओं में थे। यह फिल्म भी सुपर हिट रही थी।