Thursday, October 18, 2012

तालिबान ने किया इसलाम को शर्मिँदा


सलीम अख्तर सिद्दीकी 
भारतीय मुसलिम मलाला मामले पर चुप्पी क्यों साधे हुए हैं? किसी उलेमा का भी कोई बयान अब तक नहीं आया है। पिछले दिनों हुए कुछ इसलाम विरोधी मामलों पर मुखर रहा उर्दू मीडिया भी खामोश है।
किस्तान की 14 साल की मानवाधिकार कार्यकर्ता और लड़कियों में शिक्षा की अलख जगाने वाली मलाला यूसुफजई पर तालिबान ने जो गोली मारी है, वह मलाला के साथ ही इसलाम के बुनियादी उसूलों पर भी चली है। इसलाम लड़कियों को शिक्षा हासिल करने का अधिकार देता है, जिसे रोकना किसी भी सूरत जायज नहीं है। दूसरी बात यह कि अपने को इसलाम का अलंबरदार मानने वाले तालिबान ने किन इसलामी उसूलों के तहत एक मासूम बच्ची पर जानलेवा हमला किया है? मलाला 2009 से ही तालिबान की आंख का कांटा बनी हुई थी, जब से उसने तालिबान की शिक्षा विरोधी नीति का विरोध शुरू किया था। कट्टरपंथी ताकतें उन लोगों से हमेशा से ही डरती रही हैं, जो लोगों में जागरूकता लाने की कोशिश करते रहे हैं। ऐसा हर दौर में हुआ है, हालांकि तरीके बदलते रहे हैं।
मलाला के पक्ष में जिस तरह से पाकिस्तान का बच्चा-बच्चा उठ खड़ा हुआ है, उससे पता चलता है कि वे तालिबान के उस इसलाम से लोग कितना आजिज आ चुके हैं, जो कहीं से भी इसलाम का हिस्सा नहीं है, लेकिन वह हिंसा के बल पर उसे जबरदस्ती लोगों पर थोपना चाहते हैं। अच्छी बात यह है कि पाकिस्तान के 50 से ज्यादा मौलवियों ने तालिबान की गैरइसलामी हरकतों के खिलाफ फतवा जारी करके जारी अपनी जिम्मेदारी का सबूत दिया है। लेकिन बात इतनी भर नहीं है। अब दुनियाभर के इसलामी दानिश्वरों को यह तय करना पड़ेगा कि इसलाम को बदनाम करने वाली ताकतों से कैसे निपटा जाए। यह कहना गलत नहीं होगा कि इसलाम को बदनाम करने में कुछ गैरजिम्मेदार गैरमुसलिम ही नहीं, खुद मुसलमान भी आगे हैं। जब कोई इसलामी पवित्र स्थलों की गलत तस्वीर बनाकर सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर डालता है, तो उसके खिलाफ जबरदस्त हिंसक प्रदर्शन होता है। ष्ठ€ट्टइनोसेंस आॅफ मुसलिम्सष्ठ€ट्ठ के खिलाफ दुनियाभर के मुसलिम सड़कों पर उतर आते हैं और कई बेगुनाह लोगों की जान चली जाती हैं।
सबसे पहले तो यह कि जिस तल्ख तेवरों के साथ विरोध प्रदर्शन किया जाता है, क्या वह इसलामी तरीका है? हिंसक विरोध प्रदर्शन के दौरान किसी की जान चली जाए, क्या इसकी इसलाम इजाजत देता है? ऐसे वक्त में मुसलमान यह भूल जाते हैं कि इसलाम की रक्षा के नाम पर वह इसलाम का नुकसान ही कर रहे होते हैं। यह भी भूल जाते हैं कि कटाक्ष किया ही इसलिए जाता है, जिससे उनमें गुस्सा पनपे और वह सड़कों पर निकलें, जिससे उन्हें एक बार फिर कठघरे में खड़ा किया जा सके। इस तरह जाने-अनजाने साजिश का शिकार मुसलिम अपना ही नुकसान कर बैठते हैं। यह ठीक है कि जिस तरह इसलाम पर वार किए जा रहे हैं, वे असहनीय हैं, लेकिन यदि उनका शालीनता से जवाब दिया जाए और संयम रखा जाए तो यकीनन इसके अच्छे नतीजे सामने आएंगे। यदि ष्ठ€ट्टइनोसेंस आॅफ मुसलिम्सष्ठ€ट्ठ पर इतनी तल्ख प्रतिक्रिया नहीं आती, तो बहुत ज्यादा घटिया वह फिल्म कहीं कूड़े के ढेर पर पड़ी नजर आती। हजरत मोहम्मद साहब का चरित्र इतना ऊंचा है कि उसे कोईघटिया फिल्म दागदार कर भी नहीं सकती।
अब फिर मलाला पर आते हैं।उस पर किसी गैरजिम्मेदार गैरमुसलिम ने हमला नहीं किया है, मुसलमानों ने किया है। उलेमा मान चुके हैं कि हमला सरासर गैरइसलामी है। सवाल यह है कि जब खुद मुसलमान इसलाम की तौहीन करें, तो उसका विरोध शिद्दत के साथ क्यों नहीं होता? मलाला पर गोली इसलिए चली, क्योंकि वह इसलाम के बुनियादी उसूल, शिक्षा ग्रहण करने के लिए लड़कियों को जागरूक कर रही थी। वह धर्मनिरपेक्षता की हामी थी। धर्मनिरपेक्षता भी इसलाम का ही हिस्सा है। यह बात तालिबान को मंजूर नहीं थी। भारत की बात करें, तो जरा-जरा सी बात पर सड़कों पर निकल आने वाले मुसलिम मलाला मामले पर चुप्पी क्यों साधे हुए हैं? किसी उलेमा का भी इस संदर्भमें कोईबयान अब तक नहीं आया है। उदूर्मीडिया की भी यही हालत है। पिछले दिनों हुए कुछइसलाम विरोधी मामलों पर उदूर्मीडिया बहुत ज्यादा मुखर रहा था, लेकिन मलाला मामले पर उदासीनता बरतना समझ से परे है। क्या दुनियाभर में इसका यह संदेश नहीं जाएगा कि भारत के मुसलमान भी मलाला मामले में तालिबान के साथ खड़े हैं?
यही वक्त है, जब तालिबान जैसे इसलाम दुश्मनों के खिलाफ निर्णायक लड़ाईलड़ी जा सकती है। पाकिस्तान की अवाम मुखर है।इसमें भारत ही नहीं, दुनियाभर के मुसलमानों की आवाज भी शामिल हो जाए, तो अमेरिका द्वारा खड़े किए गए उस तालिबान की कमर तोड़ी जा सकती है, जिसने इसलाम की छवि धूमिल करने का ही काम किया है। तालिबान उन ताकतों का खिलौना है, जो इसलाम दुश्मनी में सबसे ज्यादा आगे रहती हैं। तालिबान की क्रूरता की ओर से आंखें मूंदने का मतलब अमेरिका की नीतियों का सर्मथन करने जैसा ही होगा। इस बात को वक्त रहते समझ लिया जाए, तो बेहतर होगा।
(लेखक जनवाणी से जुड़े हैं)

Monday, October 15, 2012

मुल्तवी


सलीम अख्तर सिद्दीकी
वे तीन दिन पहले फिर आए थे। पिछले कुछ सालों से मुसलसल आ रहे हैं। उनका हमेशा यही इसरार होता है कि मैं उनके साथ धार्मिक प्रचार के लिए कुछ दिनों के लिए दूसरे शहर में चलूं। लेकिन मैंने इसके लिए अपने को कभी इस काबिल नहीं माना कि मैं ऐसा भी कर सकता हूं। वे मेरी इस बात को नहीं समझते। मुझे भी उनकी बहुत बातें समझ में नहीं आतीं। कभी मुझे ऐसा भी नहीं लगा कि उनमें ऐसी कोई बात है, जिससे मुतास्सिर होकर उनकी बात मान लूं। उनमें वह बातें मौजूद थीं, जिसे मेरा धर्म सख्ती से मना करता है। इतना जरूर है कि वे धर्म के इबादत हिस्से वाले को शिद्दत से मानते थे। धर्म के दूसरे हिस्सों के लिए उनकी कोई अहमियत नहीं थी। मैं धर्म के उन हिस्सों पर जोर देता रहा हूं, जो इंसानियत के लिए हैं। शायद मेरे और उनके बीच यही एक दीवार थी। इस बार उनका इसरार कुछ ज्यादा ही बढ़ गया था। मैंने उन्हें टालने के लिए आज का दिन दे दिया था। सुबह के वक्त मैं अपनी बैठक में बैठा अखबारों को देख रहा था। पड़ोसी देश की एक खबर पर मेरी बार-बार नजर जा रही थी। जेहन बार-बार यही सोच रहा था कि मेरे धर्म के मानने वाले लोग कैसे एक 14 साल की बच्ची को इसलिए गोली मार सकते हैं, क्योंकि वह अपने मुल्क में लड़कियों की तालीम की अलख जगा रही है। सितमजरीफी यह कि मेरे धर्म के नाम पर ऐसा किया गया था। मेरा धर्म तो हर हाल में तालीम की हिमायत करता है। दिल को सुकून देने वाली बात यह भी लगी कि पड़ोसी मुल्क की अवाम जख्मी लड़की के हक में आगे आ गई थी। इबादतगाहों में उसकी जिंदगी के लिए दुआएं की जा रही थीं, लेकिन कट्टरपंथी अब भी कह रहे हैं कि अगर लड़की जिंदा बच गई, तो फिर मारेंगे। बहरहाल, यह सब पढ़ ही रहा था कि दरवाजे पर दस्तक हुई। दरवाजा खोला तो वही लोग थे। दुआ सलाम हुई। मैं अंदर चाय के लिए कहने चला गया। वापस आया, तो उनमें से एक साहब उसी खबर को पढ़ रहे थे। यह देखकर मैंने कहा, ष्ठ€ट्टबताइए कितनी गलत हरकत की है, इस बच्ची की गलती क्या है?ष्ठ€ट्ठ उन साहब ने मेरी बात को अनसुनी-सी करते हुए कहा, अरे! यह सब तो चलता ही रहता है। यह हमारा काम नहीं है। आप बताइए आपकी क्या तैयारी है।मैंने उनसे आॅफिस से छुट्टी न मिलने की बात कही। हकीकत में ऐसा था भी। एक साहब ने कहा, देखिए, जब हम इस काम में निकलते हैं, तो सब खुद ही सही हो जाता है। सब ऊपर वाले पर छोड़ देना चाहिए अभी मैं कोई दूसरा बहाना बनाने की सोच ही रहा था कि उन साहब की फोन की घंटी बज उठी, जो मुझे सब कुछ ऊपर वाले पर छोड़ देने की सलाह दे रहे थे। फोन की बातचीत से लग रहा था कि कुछ गड़बड़ है। बाद में पता चला कि जिस ट्रक से उन्होंने बिना टैक्स का अपना माल बाहर भेजा था, वह चेकपोस्ट पर पकड़ा गया था। उन्होंने धार्मिक प्रचार पर जाना तीन दिन के लिए मुल्तवी कर दिया था।

Saturday, October 13, 2012

महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी जयप्रकाश नारायण


देश में समाजवादी आंदोलन में अहम भूमिका निभाने और लोकतंत्र को दोबारा जिंदा करने वाले लोकनायक जयप्रकाश नारायण की आज 110वीं जयंती है। उनके निधन को 33 बरस बीत चुके हैं, लेकिन आज तक उनके व्यक्तित्व का सही तरीके से यह आकलन नहीं हो पाया है कि उनकी मूल राजनीतिक विचारधारा क्या थी, वह देश में किस तरह की राजनीतिक प्रणाली चाहते थे? किसी भी तरह का चुनाव लड़े बिना आखिर वह किस लोकशाही की बात करते थे? कुरबान अली ने उनके व्यक्तित्व के कुछ पहलुओं को छूने का प्रयास किया है।
भारत रत्न लोकनायक जयप्रकाश नारायण छात्र जीवन से ही महात्मा गांधी की विचाराधारा से प्रभावित थे और 18 वर्ष की उम्र में असहयोग आंदोलन में शरीक हो गए थे, लेकिन 1922 में चौरी चौरा की घटना के बाद जब गांधी जी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया, तो जेपी दु:खी होकर अमरीका पढ़ने चले गए। अमरीका में रहते हुए जेपी में वामपंथी रूझान पैदा हुआ और वह मार्क्‍सवादी बन गए। 1929 में अमरीका से वापस आने पर वह दोबारा महात्मा गांधी के आंदोलन में शरीक हुए, लेकिन अब वह जवाहर लाल नेहरू के संपर्क में आ गए थे और उनके निर्देशन में एआईसीसी के र्शम विभाग का कामकाज देखने लगे। नेहरू जी भी मार्क्‍सवाद और वामपंथ से काफी प्रभावित थे और 1927 में रूस के दौरे के बाद उन्होंने कांग्रेस पार्टी को एक प्रगतिशील पार्टी बनाने का बीड़ा उठाया। इस काम में जेपी सहित उनके दो समाजवादी मित्रों आचार्य नरेंद्र देव और संपूर्णानंद ने भी मदद की। 1932 के सविनय अवज्ञा आंदोलन में जब जेपी नासिक जेल में बंद थे, तो वहीं उनके मन में कांग्रेस पार्टी के भीतर एक सोशलिस्ट पार्टी बनाने का विचार आया और 17 मई 1934 को पटना में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का स्थापना सम्मेलन होने के साथ ही इस पार्टी की बुनियाद भी पड़ गई। जेपी ने इस सम्मेलन के लिए जो ‘सोशलिस्ट प्रोग्राम’ बनाया था, वह बड़ा ‘रैडीकल प्रोग्राम’ था, जिसमें निजि संपत्ति का खात्मा कर एक समाजवादी सरकार बनाने का सपना देखा गया था। महात्मा गांधी इस कार्यक्रम से खुश नहीं थे और उन्होंने इस कार्यक्रम का सर्मथन करने से इंकार कर दिया और यहीं से जेपी समेत समाजवादियों के गांधी जी से मतभेद शुरू हो गए। लेकिन विचारों में मतभेदों के बावजूद समाजवादी, राष्ट्रीय आंदोलन में गांधी जी के नेतृत्व में काम करते रहे। और 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में तो जयप्रकाश, लोहिया, अच्चुत पटर्वधन, युसुफ मेहरअली और अरूणा आसिफ अली ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और उस आंदोलन के ‘हीरो’ कहलाए। 1946 में जेपी और लोहिया की रिहाई के लिए वाइसराय को पत्र लिखते हुए गांधी जी ने लिखा था कि ‘इन दोनों से ज्यादा बहादुर व्यक्ति मैंने नहीं देखे। इन लोगों ने काफी यातनाएं सही हैं। अब इन्हें रिहा कर दीजिए।’ लेकिन महात्मा गांधी के ये प्यारे देश आजाद हो जाने के बाद ज्यादा समय कांग्रेस पार्टी में नहीं रह सके और गांधी जी की हत्या के डेढ़ माह बाद ही कांग्रेस पार्टी से अलग हो गए। डॉ. लोहिया के मुताबिक कांग्रेस से अलग होने का आग्रह सबसे ज्यादा जेपी का था। उन्होंने कांग्रेस पार्टी का विरोध करने और ‘रचनात्मक विपक्ष’ की भूमिका निभाने का प्रण किया। 1948 से लेकर 1952 तक जेपी ने देशभर का दौरा किया और सोशालिस्ट पार्टी को खड़ा करके उसे कांग्रेस के विकल्प के रूप में तैयार किया, लेकिन 1952 के आम चुनावों में उन्हें अपनी उम्मीद के मुताबिक सफलता नहीं मिली और सोशालिस्ट पार्टी को केवल 10 प्रतिशत मत और देश भर में केवल 12 सीटें मिली तो जेपी का धैर्य टूट गया।
इन चुनावों के फौरन बाद उन्होंने आचार्य जेबी कृपलानी की किसान मजदूर प्रजा पार्टी के साथ अपनी पार्टी का विलय करके प्रजा सोशालिस्ट पार्टी का गठन किया, लेकिन साल भर के अंदर ही उनको लेकर यह चर्चाएं शुरू हो गईं कि जेपी सरकार के साथ सहयोग चाहते हैं और शायद उपप्रधानमंत्री होने वाले हैं। प्रधानमंत्री नेहरू के साथ उनका पत्राचार भी हुआ, लेकिन कुछ कारणों से बात आगे नहीं बढ़ पाई, मगर प्रसोपा के बैतूल सम्मेलन में जेपी की काफी आलोचना हुई और उन पर निजी हमले भी किए गए। इससे जेपी टूट गए और सवरेदय की और उन्होंने रूख किया, तथा विनोबा भावे के भूदान आंदोलन से जुड़ गए।
1954 से लेकर 1974 तक जेपी दलगत राजनीति और परपंरागत विपक्ष की भूमिका से अलग रहे। इस बीच वह कश्मीर, नगालैंड जैसी राष्ट्रीय समस्याओं के हल और नागरिक अधिकारों के लिए भी काम करते रहे। सवरेदय के लिए काम करने के लिए उन्हें ‘मैगेसैसे’ पुरस्कार से भी नवाजा गया और देश विदेश की भी उन्होंने कई यात्राएं कीं। इस बीच वह ‘पार्टी लैस डेमोक्रेसी’ या दलविहीन लोकतंत्र की वकालत भी करते रहे, लेकिन अपना मॉडल क्या हो, यह बता पाने में विफल रहे।
1973-74 में जब गुजरात और बिहार में छात्रों का आंदोलन शुरू हुआ और जेपी उसमें शामिल हुए, तो उन्होंने ‘राइट टू रिकॉल’ यानी चुने हुए प्रतिनिधियों को वापस बुलाए जाने की व्यवस्था संविधान में किए जाने की मांग की, जिस पर आज भी चर्चा हो रही है। 1974 के आंदोलन के दौरान जेपी पर प्रतिक्रियावादी शक्तियों के साथ जुड़ने और अपनी समाजवादी-सवरेदयी विचारधारा से समझौता करने के आरोप भी लगे। इसके जवाब में जेपी यहां तक कह गए कि अगर आरएसएस सांप्रदायिक है, तो में भी सांप्रदायिक हूं। यहीं से आरएसएस ने उन्हें ‘हाईजैक’ कर लिया। ज्यों-ज्यों जेपी का आंदोलन तेज होता गया, इंदिरा गांधी की अधिनायकवादी गतिविधियां तेज होती गईं। लोकतांत्रिक संस्थाओं का गला घोंटा जाने लगा और इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद जब उनका सांसद के रूप में चुनाव अवैध घोषित कर दिया गया तो इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 को आपातकाल की घोषण कर दी।
जेपी समेत विपक्षी दलों के लगभग सभी प्रमुख नेता और एक लाख से ज्यादा कार्यकर्त्ता जेलों में बंद कर दिए गए। अखबारों पर सेंसरशिप लागू कर दी गई। न्यायपालिका को बंधक बना दिया गया। 19 माह तक देश किस तरह चला किसी को नहीं मालूम, क्योंकि संसद विपक्षी नेताओं के बिना सूनी थी और असंवैधानिक तरीके से पांचवी लोकसभा का कार्यकाल बढ़ा लिया गया था। विरोध में मधु लिमए और शरद यादव ने लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया।
आखिरकार जब आपातकाल के काले बादल छंटे और इंदिरा गांधी ने जनवरी 1977 में लोकसभा भंग कर आम चुनावों का ऐलान किया, तो जेपी के नेतृत्व में चार मुख्य विपक्षी दलों, भारतीय लोकदल, कांग्रेस (संगठन), भारतीय जनसंघ और सोशलिस्ट पार्टी को मिलाकर जनता पार्टी का गठन किया गया। फरवरी-मार्च 1977 में हुए चुनावों में जनता पार्टी के उम्मीदवारों को भारी सफलता मिली। मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता सरकार का गठन हुआ। लेकिन 23 मार्च 1977 को प्रधानमंत्री पद की शपथ लेते ही जनता पार्टीजेपी को भूल गई। हालांकि जनता पार्टी का विधिवत गठन एक मई 1977 को हुआ और जेपी के चहेते चंद्रशेखर जनता पार्टी के अध्यक्ष बनाए गए, लेकिन वह भी जल्द ही जेपी को भूल गए।
जनता पार्टी के एक वर्ष बाद जेपी ने ‘रविवार’ पत्रिका को एक लंबा इंटरव्यू देते हुए बहुत ही दु:खी मन से कहा था, ‘मुझे अब कोई नहीं पूछता जनता पार्टी और उसकी सरकार में अब मेरी कोई भूमिका नहीं है।’ उधर मोरारजी देसाई दंभ भरते थे कि मैं जेपी की मेहरबानी से प्रधानमंत्री नहीं बना हूं। साथ ही जनता पार्टी में सत्ता संघर्ष भी चरम पर था। मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह और जगजीवन राम एक-दूसरे के पतन का इंतजार कर रहे थे। जुलाई 1979 में जनता पार्टी का विघटन हो गया और मृत्यु शैय्या पर पड़े जेपी ने अपनी मौत से ढाई माह पहले इस पतन को देखा। तानाशाही को खत्म करने के लिए उन्होंने जनता पार्टी का जो वटवृक्ष लगाया था, वह उनके सामने ही जवान मौत मारा गया।
जेपी की 77 वर्ष की उम्र का आकलन किया जाए तो करीब 54-55 वर्ष का सार्वजनिक जीवन उन्होंने जिया। उनकी राजनीतिक यात्रा गांधी जी से शुरू होकर मार्क्‍सवाद फिर गांधीवाद फिर समाजवाद और अंतत: सवरेदय और भूदान से होती हुई छात्र-युवा आंदोलन, संपूर्ण क्रांति और जनता पार्टी के साथ समाप्त हुई। जेपी अंत तक देश को यह नहीं बता सके कि दलविहीन लोकतंत्र की जो कल्पना वह लंबे समय से करते रहे, उसे जनता पार्टी का गठन करते समय उन्होंने क्यूं मूर्त रूप नहीं दिया? चुने हुए प्रतिनिधियों को वापस बुलाए जाने की मांग को लेकर 1974 में बिहार विधान सभा का जो घेराव उन्होंने किया था, 1977 के जनता पार्टी के चुनाव घोषणा पत्र में वह उस मांग को क्यूं शामिल नहीं करवा पाए? क्यूं अपनी पार्टी, जिसे लोकसभा में दो-तिहाई बहुमत हासिल था, इस मुद्दे पर संविधान में संशोधन करवा पाए?
क्या कारण था कि जिस मार्क्‍सवादी विचारधारा और सिद्धांत के आधार पर उन्होंने भारतीय समाजवाद की नींव डाली थी और ‘समाजवादी कार्यक्रम’ तैयार किया था, 1954 के बाद वह उससे क्यूं विमुख हो गए? कभी पार्टी बनाकर चुनावों में हिस्सा लेना और फिर अगले 20 वर्षों तक भूल जाना कि यह देश लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई सरकार के तहत ही चलता है। कभी भी सीधे तौर पर चुनाव में हिस्सा न लेना, मगर फिर भी प्रधानमंत्री बनने का सपना देखना, ऐसे सवाल हैं, जो जेपी के विरोधाभामी राजनीतिक व्यक्त्वि को दर्शाते हैं। उनके राजनीतिक वारिसों के बारे में अगर कुछ न कहा जाए, तो बेहतर होगा। आज आधे दर्जन से भी ज्यादा गैर कांग्रेसी और गैर वामपंथी पार्टियां जेपी को अपना आदर्श मानती हैं, लेकिन उन्हें जेपी के मूल्यों की कितनी चिंता है, यह सर्वविदित है। अपने जीवन के अंतिम दिनों में जेपी ने राजनीतिक भ्रष्टाचार के खिलाफ जो आंदोलन शुरू किया था, आज लगभग उनके सभी वारिस उस दलदल में आकंठ डूबे नज़र आते हैं।
दैनिक जनवाणी के 11 अक्टूबर के अंक में प्रकाशित