Monday, March 26, 2012

एलपीजी का फेर

सलीम अख्तर सिद्दीकी
रसोई गैस लेने वालों की गैस गोदाम पर सुबह छह बजे से लंबी लाइन लगी हुई थी। वक्त बढ़ने के साथ लाइन लंबी होती जा रही थी। लंबी लाइन देखकर देर से आने वाले लोगों के माथे पर शिकन पड़ रही थीं। सबके मन में यही अंदेशा था कि पता नहीं आज भी गैस मिल पाएगी नहीं। बहुत लोग ऐसे थे, जो तीन दिन से लगातार आ रहे थे, लेकिन उन्हें कोई न कोई बहाना बनाकर टरका दिया जाता था। लगभग 60 साल की एक बुजुर्ग महिला लगभग 14-15 साल के किशोर के साथ गैस लेने आई थी। महिला लाइन के लगभग बीच में गैस सिलेंडर पर वह कपड़ा डालकर बैठी हुई थी, जिसमें वह सिलेंडर लपेट कर लायी होगी। उसके साथ आया किशोर अपनी साइकिल के कैरियर पर बैठा बेजारी से इधर-उधर देख रहा था। बुजुर्ग महिला बड़ी आस से गोदाम के बड़े से लोहे के गेट को टकटकी लगाए देख रही थी। थोड़ी देर बाद किशोर बुजुर्ग महिला के पास आया और बोला, ‘अम्मा पता नहीं आज भी गैस मिलेगी या नहीं? कोई कह रहा था कि ट्रक अभी तक नहीं आया है।’ महिला ने कोई जवाब नहीं दिया। किशोर फिर बोला, ‘तीन दिन हो गए लगातार आते-आते, रोज बिना गैस के ही वापस जाना पड़ता है।’ महिला ने इस बार मुंह खोला और बोली, ‘आज तो मैं गैस लेकर ही जाऊंगी। बाजार से 60 रुपये किलो की गैस तीन बार छोटे सिलेंडर में भरवा चुकी हूं। कमबख्त सारी गैस ब्लैक में बेच देते हैं।’ महिला के बराबर में खड़े एक अधेड़ को जैसे बहाना मिल गया। वह बोला, ‘बहन जी मैं कल भी आया था। पूरा एक ट्रक गैस सिलेंडरों का बाहर निकला था, जो हर हाल में ब्लैकियों को ही गया होगा।’ थोड़ी देर बाद गोदाम का गेट खुला। लाइन में तेज हलचल हुई और गैस सिलेंडरों के खिसकने और एक दूसरे से टकराने की आवाजें गूंजने लगीं। बुजुर्ग महिला भी सिलेंडर पर से खड़ी हो गई। गेट से एक छोटा ट्रक बाहर आता दिखा, जिसमें सिलेंडर भरे हुए थे। ट्रक के साथ कुछ लोग चल रहे थे, जो शक्ल से गुंडे लग रहे थे। लाइन एक झटके में भीड़ में तब्दील होकर ट्रक के चारों ओर जमा हो गई। कुछ नौजवान सिलेंडर बाहर ले जाए जाने का विरोध करने लगे। गोदाम कर्मचारियों और कुछ लोगों में धक्का-मुक्की होने लगी। ट्रक भीड़ के बीच में फंस गया था। ड्राइवर ने कई बार ट्रक को आगे बढ़ाने की कोशिश की, लेकिन उसके आगे से लोग हटने को तैयार नहीं थे। कर्मचारियों और लोगों में तकरार बढ़ती जा रही थी। कुछ ही देर में पुलिस की जीप धड़धड़ाती हुई वहां आकर रुकी। चार-पांच पुलिसवाले उसमें से डंडे लेकर फुर्ती से उतरे और भीड़ पर बरसाने शुरू कर दिए। चंद क्षणों में ही भीड़ तीतर-बीतर हो गई। ट्रक के आगे जाने का रास्ता साफ हो गया। ड्राइवर ने विजयी मुस्कान के साथ ट्रक आगे बढ़ा दिया। पुलिसवाले डंडे फटकार कर लोगों से दोबारा लाइन में लगने की हिदायत देने लगे। बुजुर्ग महिला, जो पहले लाइन के बीच में थी, सबसे पीछे पहुंच गई। एक बार फिर लोग गोदाम का गेट खुलने का इंतजार करने लगे। थोड़ी देर बाद बड़े गेट में लगा छोटा गेट खोलकर एक कर्मचारी प्रकट हुआ और बोला, ‘हमारे पास सिर्फ सौ सिलेंडर हैं बांटने के लिए। शुरू के सौ आदमी रुक जाएं। बाकी को दो दिन बाद गैस मिलेगी।’ बुजुर्ग महिला ने उचककर देखा और मायूसी से अपने साथ आए किशोर को वापस चलने के लिए कहा। किशोर ने सिलेंडर को उठाकर साइकिल के कैरियर पर बांधना शुरू कर दिया।

Sunday, March 11, 2012

बदलाव की चाहत


उत्तर प्रदेश की एक विधानसभा क्षेत्र का गांव। गांव में प्रवेश करते ही एक मेडिकल स्टोर में कुछ लोग चुनाव के नतीजे देख रहे हैं। नजरें टीवी स्क्रीन से हट नहीं रही हैं। सब में एक समानता यह है कि चाहते हैं कि सरकार बदल जाए। जैसे-जैसे नतीजे आते जा रहे हैं, सबकी सांसें ऊपर-नीचे हो रही हैं। तनाव दूर करने के लिए कोई बीड़ी फूंक रहा है, तो कोई थोड़ी- थोड़ी दूर बाद पाऊच में से तंबाकू निकालकर हाथ से रगड़कर मुंह में रख रहा है। सभी आपस में किसी उम्मीदवार के जीतने और हारने पर अफसोस और खुशी जाहिर करने में भी नहीं चूक रहे थे। टीवी स्क्रीन पर जैसे- जैसे स्थिति साफ हो रही है, सबके चेहरे पर संतोष के भाव आ रहे हैं। लेकिन जब जीतने वाली पार्टी का आंकड़ा 170 के आसपास आकर बहुत देर तक नहीं बढ़ता, तो उनमें थोड़ी बैचेनी होने लगती है। एक बुङी बीड़ी को दोबारा जलाकर बैचेनी से पहलू बदलते हुए बड़बड़ाता है, ‘त्रिशंकु की स्थिति नहीं बननी चाहिए, बहुमत पूरा आना चाहिए।’ दूसरा उसको तसल्ली देने के लिए शब्द उछालता है, ‘देखते रहो, इतनी आ जाएंगी कि दो-चार सीटों का अंतर रह जाएगा। दो-चार सीटें मायने नहीं रखतीं।’ आहिस्ता-आहिस्ता तस्वीर साफ होने लगी और आंकड़ा बहुमत के पार पहुंचा तो सभी ने जैसे चैन की सांस ही। चुनावी चर्चाओं के बीच मेडिकल स्टोर पर एक काफी बुजुर्ग महिला दवा लेने पहुंची। महिला को एहसास हुआ कि टीवी पर चुनावी नतीजे आ रहे हैं। उसने उत्सुकता से मेडिकल स्टोर वाले से पूछा, ‘भैया कौन जीत रहा है? सरकार बदल रही या ना?’ स्टोर वाले ने लापरवाही से कहा, ‘तू इससे क्या ले ताई, कोई हार रहा या जीत रहा?’ बुजुर्ग महिला ने तल्खी से कहा, ‘भैया, क्यूं न लूं सरकार के आने या जाने से? हमारी गली में हर वक्त पानी भरा रहवे है। सड़क टूटी पड़ी है। बच्चे स्कूल आते-जाते गिरते रहवे हैं उसमें। गली वालों ने कई बार अफसरों को लिखित में दिया, मगर कोई सुनता ही ना।’ महिला ने थोड़ा सांस लिया और स्टोर वाले को पैसे देते हुए बोली, जुल्म करे है सरकार भी। हमारे गली से थोड़ी दूर वाली गली तो बहुत अच्छी थी, उसे तो सरकार ने दोबारा बनवा दिया, मगर हमारी सुनते ही ना है। यूं कहेवे हैं कि तुम्हारी गली के लिए पैसा मंजूर नहीं किया सरकार ने। जिसके लिए किया वह बना रहे हैं। भैया सरकार बदल जावेगी तो हो सकता है हमारी गली के भाग भी फिर जा।’ बुजुर्ग महिला के जाते ही एक शख्स न जुमला उछाला, ‘ऐसी गलियां पूरे उत्तर प्रदेश में हैं।’

Wednesday, March 7, 2012

चुनाव की चकल्लस

- का मुसलिम बाहुल्य क्षेत्र। रात के लगभग दस बजे हैं। देर रात तक गुलजार रहने वाले इस क्षेत्र की एक चाय की दुकान पर छह-सात लोग नई बनी विधानसभा सीट पर हुए मतदान के रुझन को लेकर माथापच्ची करने में मशगूल हैं। सबका एक एजेंडा है, एक खास उम्मीदवार किसी भी हालत में नहीं जीतना चाहिए, भले ही उस पार्टी का उम्मीदवार जीत जाए, जिसे हराने के लिए वे आज तक वोटिंग करते आए हैं। की खबर को एक आदमी पढ़कर बाकी लोगों को सुना रहा है। खबर के मुताबिक वह उम्मीदवार दौड़ में कहीं नहीं है, जिसे वह हराना चाहते हैं। सबके चेहरे पर इत्मीनान झलकता है।

उनमें से एक आदमी चाय वाले को आवाज देकर कहता है, ‘भैया, पांच चाय छह जगह देना।’ एक सिगरेट सुलगा लेता है। वे फिर से वोटिंग के हिसाब-किताब में मशगूल हो जाते हैं। थोड़ी देर बाद एक और शख्स वहां पहुंचता है। उसे देखकर उनमें से एक आदमी चाय को सात जगह कर देने का आग्रह चाय वाले से करके नवआगुंतक की ओर मुखातिब होकर पूछता है, ‘क्या खबरें हैं चुनाव की?’ उस आदमी के चेहरे पर थोड़े असमंजस के भाव हैं। वह कहता है, ‘हमारे अस्सी प्रतिशत वोट तो उसे नहीं पड़े, लेकिन दूसरे समुदाय के उसके समर्थकों ने जमकर वोट डाले हैं, समझ नहीं आ रहा क्या होगा? मुङो तो वही जीतता लग रहा है।’ सबके चेहरे लटक जाते हैं। चाय वाला उनके सामने चाय के गिलास रख गया है। सब खामोशी से चाय की चुस्कियां लेने लगे हैं। एक आदमी खामोशी तोड़ते हुए कहता है, ‘बिना हमारे वोट के थोड़े ही जीत जाएगा वह?’ एक आदमी तल्खी से कहता है, ‘लेकिन हमारे वोट भी तो बिरादरीवाद के चक्कर में बंटे हैं।’ एक और अपनी टांग फंसाते हुए कहता है, ‘उसकी बिरादरी के वोट भी तो बंटे हैं, हिसाब बराबर हो जाएगा।’ उनमें से एक और आवाज उभरती है, ‘और शहर सीट पर क्या हुआ है?’ उसके सवाल का आता है, ‘अरे, शहर को छोड़ो, यह बताओ कि वह हार रहा है या नहीं?’ बहुत देर तक उनमें सवाल-जवाब होते रहे। आंकड़े लगाए जाते रहे। हर बार बात अगर-मगर और हालांकि पर अटक जाती थी। बहुत देर बाद भी वे किसी नतीजे पर नहीं पहुंचे। इस बीच कई बार चाय का दौर चला। एक आदमी बोला, ‘दो दिन बाद पता चल जाएगा, क्यों मगजमारी करते हो? यह तो तय है कि उसकी पार्टी की सरकार नहीं बना रही है।’ एक आदमी ने बहुत तल्खी से कहा, ‘सरकार तो नहीं आएगी, लेकिन वह पाला बदलकर सरकार के साथ आ सकता है, इसलिए उसका हारना जरूरी है।’